क्या है अति-विश्वावादी सिद्धांत, संदेहवादी सिद्धांत और परिवर्तनवादी सिद्धांत?
- डेविड हेल्ड एवं अन्य विद्वानों ने (1999) ने वैश्वीकरण के कारणात्मक तंत्र की व्याख्या करने वाले विभिन्न दृष्टिकोणों का विश्लेषण किया और उन्हें व्यापक रूप से तीन शोध-प्रबंधों के आधार पर तीन विचारधाराओं में बांटा, जिसमे शामिल है अति-विश्वावादी सिद्धांत, संदेहवादी सिद्धांत और परिवर्तनवादी सिद्धांत।
अति-विश्वावादी सिद्धांत
- अति-विश्वावादी सिद्धांत वैश्वीकरण को एक नई घटना मानता है। अति-विश्वावादी मानते हैं कि आर्थिक लेन-देन के विस्तार, गहराई और गति के कारण राष्ट्र-राज्यों की भूमिका कम हो गई है और उन्हें केवल व्यावसायिक इकाइयों के रूप में देखा जाने लगा है। इससे दुनिया ‘सीमाहीन’ बनती जा रही है। इसका मतलब यह नहीं कि राष्ट्र-राज्य पूरी तरह खत्म हो जायेगी या राजनीतिक सीमाएं मिट जाएंगी।
- बल्कि, इससे राज्य के अधिकार क्षेत्र में कमी आएगी परिणामस्वरूप राज्य ऐसी संस्थान बनेगी जो आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आदान-प्रदान को आसान बनाने का काम करेंगी।
नव-उदारवादी इस नई प्रवृत्ति का स्वागत करते हैं, जबकि नव-मार्क्सवादी इसे नकारात्मक मानते हैं, लेकिन वे इन परिवर्तनों के तथ्य को नहीं नकारते।
संदेहवादी सिद्धांत
- संदेहवादी सिद्धांत अति-विश्वावादी के विपरीत है। ये मानते हैं कि समकालीन वैश्वीकरण नई घटना नहीं है। वे व्यापार, निवेश और श्रम प्रवाह के आंकड़ों का विश्लेषण करते हैं और कहते हैं कि केवल अंतरराष्ट्रीयकरण का विस्तार ही असली बदलाव है। इसका मतलब है कि राष्ट्र-राज्यों को खत्म नहीं किया जा सकता, बल्कि वैश्वीकरण राज्य और सरकारों की नियामक शक्तियों पर निर्भर है। इसलिए राज्य केवल निष्क्रिय नहीं हैं, बल्कि वैश्वीकरण को सक्रिय रूप से आकार दे रहे हैं।
अति-विश्वावादी और संदेहवादी दोनों मानते हैं कि वैश्वीकरण असमानता बढ़ाता है। नए विजेता और हारने वाले विकसित और विकासशील देशों के बीच पहले से मौजूद आर्थिक असमानताओं को और मजबूत करने का काम करता है।
परिवर्तनवादी सिद्धांत
- परिवर्तनवादी सिद्धांत मध्य मार्ग अपनाता है। यह वैश्वीकरण को बड़े पैमाने पर परिवर्तन की शक्ति के रूप में देखता है और मानता है कि यह समाज, अर्थव्यवस्था, शासन संस्थानों और विश्व व्यवस्था को बदल देगा। यह समकालीन वैश्वीकरण को ऐतिहासिक रूप से अभूतपूर्व मानता है। अति-विश्वावादी और संदेहवादी के विपरीत, यह भविष्य के वैश्वीकरण के बारे में कोई निश्चित दावा नहीं करता। यह बताता है कि किसी भी विचारधारा को समझने के लिए इतिहास और प्रक्रियाओं को ध्यान में रखना चाहिए।
- असमानताओं के मामले में, परिवर्तनवादी मानते हैं कि यह न केवल विकसित और विकासशील देशों के बीच है, बल्कि इनके भीतर भी मौजूद है। अमीर और गरीब के बीच के अंतर, विशेषकर बड़े शहरों में, इसका एक उदाहरण हैं। राज्यों की प्रासंगिकता के सवाल पर, परिवर्तनवादी मानते हैं कि राज्य कानूनी सर्वोच्चता बनाए रखेंगे, लेकिन वैश्विक संस्थान और अंतरराष्ट्रीय संगठन भी शक्तिशाली प्राधिकरण के रूप में उभरेंगे। इसका मतलब है कि राज्य का अधिकार अब अकेला नहीं रहेगा।
डेविड हेल्ड
- डेविड हेल्ड का जन्म यूनाइटेड किंगडम में एक औद्योगिक परिवार में हुआ था। उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ मैनचेस्टर से स्नातक की पढ़ाई की। इसके बाद उन्होंने मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (MIT) से डॉक्टरेट (PhD) की उपाधि प्राप्त की और फिर यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज में शोध कार्य (postdoctoral research) किया।
- डेविड हेल्ड का शोध “वैश्वीकरण” और “वैश्विक शासन” पर केंद्रित था।
- वे यह समझना चाहते थे कि जब पूरी दुनिया एक-दूसरे से जुड़ती जा रही है, तो राजनीति और शासन के तौर-तरीके कैसे बदल रहे हैं। उन्होंने यह विचार दिया कि अब हम केवल “राष्ट्रीय राज्यों” तक सीमित नहीं हैं, बल्कि “परस्पर जुड़ी हुई नियति की समुदायों (overlapping communities of fate)” में रहते हैं। वे मानते थे कि लोकतंत्र (democracy) और मानवता के सार्वभौमिक मूल्य (cosmopolitan values) को वैश्विक स्तर पर लागू किया जाना चाहिए।
पुस्तके
- Introduction to Critical Theory (1980)
- Global Transformations (1999)
- Democracy in the Global Order (1999)
- Globalization/Antiglobalization (2007)
- Global Inequality (2007)
- Cosmopolitanism: Ideals and Realities (2010)
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