भारत का इतिहास व्हिसलब्लोअर्स (Whistleblowers) के उदाहरणों से भरा हुआ है। समय-समय पर अनेक लोगों ने शासन-प्रणाली की खामियों और भ्रष्टाचार को उजागर करने का साहस दिखाया, लेकिन इसके चलते उन्हें अपनी जान तक गंवानी पड़ी।
इसी प्रकार की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को रोकने के लिए भारतीय संसद ने 2014 में व्हिसलब्लोअर्स संरक्षण अधिनियम (Whistle Blowers Protection Act, 2014) पारित किया। लेकिन, आज तक यह अधिनियम लागू नहीं हो पाया है। इसके आलोचकों का कहना है कि यह कानून नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। इस कारण यह कानून लागू होने से पहले ही विवादों में आ गया है ।
व्हिसलब्लोइंग (Whistleblowing) का अर्थ
- व्हिसलब्लोइंग (Whistleblowing) का अर्थ है — किसी संस्था के कर्मचारी अथवा हितधारक द्वारा संस्था के भीतर हो रही अवैध या अनैतिक गतिविधियों को उजागर करना।
- व्हिसलब्लोअर वह व्यक्ति होता है जो ऐसे गैरकानूनी कार्यों की सूचना सार्वजनिक करता है। भारत में कई ऐसे मामले सामने आए हैं जहाँ व्हिसलब्लोअर्स पर हमला हुआ।
- उदाहरण के लिए, 2003 में इंजीनियर सत्येंद्र दुबे की हत्या कर दी गई क्योंकि उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (NHAI) में भ्रष्टाचार का पर्दाफाश किया था। इसके बाद 2005 में भारतीय ऑयल कॉर्पोरेशन के कर्मचारी शन्मुगम मंजीनाथ की हत्या कर दी गई क्योंकि उन्होंने पेट्रोल पंपों पर ईंधन मिलावट की साजिश का भंडाफोड़ किया था। इन घटनाओं ने यह स्पष्ट कर दिया कि व्हिसलब्लोअर्स की सुरक्षा के लिए सशक्त और प्रभावी कानून बनाना आवश्यक है।
व्हिसलब्लोअर संरक्षण कानून की पृष्ठभूमि
- भारत के विधि आयोग (2001) ने सुझाव दिया था कि भ्रष्टाचार को रोकने के लिए व्हिसलब्लोअर संरक्षण कानून जरूरी है।
- 2004 में NHAI अधिकारी की हत्या के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को निर्देश दिया कि कानून बनने तक एक व्यवस्था बनाई जाए। इसके बाद सरकार ने Public Interest Disclosure and Protection of Informers Resolution (PIDPIR), 2004 लागू किया और शिकायतों पर कार्यवाही का अधिकार केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC) को दिया।
- द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (2007) और संयुक्त राष्ट्र भ्रष्टाचार विरोधी अभिसमय (2005) ने भी ऐसे कानून की ज़रूरत पर बल दिया।
- इसके बाद अगस्त 2010 में केंद्र सरकार ने लोकसभा में एक विधेयक पेश किया, जिसमें सरकारी संस्थाओं में भ्रष्टाचार उजागर करने वाले किसी भी व्यक्ति को सुरक्षा देने का प्रावधान था।
- यह विधेयक सितंबर 2010 में संसदीय स्थायी समिति (Parliamentary Standing Committee on Personnel, Law and Justice) को भेजा गया और जनता से सुझाव आमंत्रित किए गए। इनमें से कई सिफारिशों को विधेयक में शामिल भी किया गया। लोकसभा ने 27 दिसंबर 2011 को इस विधेयक को पारित कर दिया और 2012 में इसे राज्यसभा में पेश किया गया।
- अंततः लंबी बहस के बाद 21 फरवरी 2014 को इसे पारित कर दिया गया और 9 मई 2014 को राष्ट्रपति ने अपनी स्वीकृति दी। इसके बावजूद, आज तक व्हिसलब्लोअर्स संरक्षण अधिनियम, 2014 लागू नहीं हो पाया है क्योंकि वर्तमान सरकार ने इसके क्रियान्वयन पर कोई निर्णय नहीं लिया है।
व्हिसलब्लोअर्स संरक्षण अधिनियम, 2014 : प्रमुख विशेषताएँ
यह अधिनियम अपेक्षाकृत छोटा है, जिसमें कुल 7 अध्याय और 31 धाराएँ शामिल हैं।
- अध्याय I – प्रयोज्यता इस अधिनियम का दायरा पूरे भारत में है। किंतु, धारा 2 के अनुसार यह अधिनियम विशेष सुरक्षा समूह (Special Protection Group) के कर्मचारियों और अधिकारियों पर लागू नहीं होता, जो कि विशेष सुरक्षा समूह अधिनियम, 1988 के तहत गठित किया गया है।
- अध्याय II – जनहित प्रकटीकरण: अधिनियम की धारा 4 एक महत्वपूर्ण प्रावधान है। यह स्पष्ट करती है कि यदि कोई शिकायत जनहित में की जाती है तो उसे Official Secrets Act, 1923 (गोपनीयता अधिनियम) का उल्लंघन माना नहीं जाएगा, बशर्ते कि वह शिकायत राष्ट्रीय संप्रभुता को खतरे में न डाले।
- अध्याय III – सक्षम प्राधिकारी की शक्तियाँ और कर्तव्य: इस अध्याय में यह बताया गया है कि सक्षम प्राधिकारी किन-किन मामलों पर विचार कर सकता है और किन पर नहीं।
- अध्याय IV – जाँच प्रक्रिया: इसमें सक्षम प्राधिकारी द्वारा जाँच करते समय अपनाई जाने वाली प्रक्रिया का वर्णन है।
- अध्याय V – शिकायतकर्ता की सुरक्षा: इस अध्याय के अंतर्गत शिकायतकर्ताओं (Complainants) की सुरक्षा का प्रावधान किया गया है ताकि वे प्रताड़ना या प्रतिशोध का शिकार न बनें। लेकिन अधिनियम में गुमनाम शिकायतें (Anonymous Complaints) स्वीकार करने की अनुमति नहीं है। यदि शिकायतकर्ता अपनी पहचान उजागर नहीं करता, तो उस पर कोई कार्रवाई नहीं होगी। साथ ही, शिकायत दर्ज करने की समयसीमा 7 वर्ष तय की गई है।
- अध्याय VI – दंड: इस अध्याय में यह बताया गया है कि सक्षम प्राधिकारी शिकायतों की जाँच के दौरान या बाद में किस प्रकार दंडात्मक कार्रवाई कर सकता है। धारा 20 यह भी कहती है कि यदि किसी व्यक्ति को सक्षम प्राधिकारी के आदेश से असहमति है, तो वह आदेश की तिथि से 60 दिन के भीतर संबंधित उच्च न्यायालय में अपील कर सकता है।
- अध्याय VII – विविध प्रावधान: धारा 23 के अनुसार, सक्षम प्राधिकारी को प्रतिवर्ष एक रिपोर्ट तैयार करनी होगी, जिसमें उसके कार्यों और उपलब्धियों का विवरण होगा। यह रिपोर्ट केंद्र या राज्य सरकार को सौंपी जाएगी और तत्पश्चात संसद या राज्य विधानमंडल के समक्ष रखी जाएगी।
यह अधिनियम Official Secrets Act, 1923 से ऊपर है और सार्वजनिक हित में खुलासा करने की अनुमति देता है, बशर्ते कि यह राष्ट्र की संप्रभुता को नुकसान न पहुँचाए।
विभिन्न देशों में व्हिसलब्लोअर्स संरक्षण अधिनियम
(क) यूनाइटेड किंगडम (United Kingdom)
ब्रिटेन में ऐतिहासिक रूप से व्हिसलब्लोअर्स को प्रोत्साहित नहीं किया जाता था। इसे विश्वासघात (Betrayal of Confidence) माना जाता था। परंतु समय के साथ कुछ न्यायिक निर्णयों ने दृष्टिकोण बदला।
- Initial Services Ltd. v. Putterill (1968) में अदालत ने कहा कि यदि किसी प्रकार की गलत गतिविधि (Wrongdoing) हो रही है, तो गोपनीय सूचना का खुलासा सार्वजनिक हित में किया जा सकता है।
- Lion Laboratories Ltd. v. Evans (1985) मामले में अदालत ने स्पष्ट किया कि यदि खुलासा सार्वजनिक भलाई (Greater Good) के लिए हो तो उसे जायज़ ठहराया जा सकता है।
इसके बाद Public Interest Disclosure Act, 1998 पारित किया गया, जिसका उद्देश्य था:
- कर्मचारियों को अपनी संस्था की गलत नीतियों या प्रथाओं की जानकारी उजागर करने की अनुमति देना।
- व्हिसलब्लोअर्स को प्रताड़ना से बचाना।
इस कानून में तीन प्रकार के खुलासे (Disclosures) शामिल हैं:
- आंतरिक खुलासा (Internal Disclosure): नियोक्ता को।
- नियामक खुलासा (Regulatory Disclosure): किसी निर्धारित व्यक्ति या संस्था को।
- सामान्य खुलासा (General Disclosure): मीडिया, पुलिस, संसद सदस्य आदि को।
हालांकि, ब्रिटिश कानून में गुमनाम शिकायतों (Anonymous Complaints) की कोई विशेष व्यवस्था नहीं है, जबकि यूरोपीय कानून इसकी आवश्यकता पर बल देता है।
- इसके अतिरिक्त UK Bribery Act, 2010 और Employment Rights Act, 1996 भी व्हिसलब्लोअर्स की सुरक्षा प्रदान करते हैं।
(ख) न्यूज़ीलैंड (New Zealand)
- न्यूज़ीलैंड में व्हिसलब्लोअर्स की सुरक्षा के लिए Protected Disclosures Act, 2000 लागू किया गया।
- यह अधिनियम ऑस्ट्रेलिया के विक्टोरिया राज्य के कानून के समान है।
- इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि शिकायत केवल निर्धारित व्यक्तियों (Designated Persons) को ही दी जा सकती है।
- अधिनियम की धारा 7 से 14 में सूचना के प्रकटीकरण की पूरी प्रक्रिया बताई गई है।
- धारा 17 और 18 व्हिसलब्लोअर्स को विशेष प्रतिरक्षा (Immunity) प्रदान करती है।
- सबसे महत्वपूर्ण धारा 19 है, जिसके अनुसार शिकायतकर्ता की पहचान गोपनीय रखी जाएगी, सिवाय इसके कि:
- शिकायतकर्ता स्वयं अनुमति दे,
- पहचान उजागर करना जांच की सफलता के लिए आवश्यक हो,
- सार्वजनिक स्वास्थ्य या सुरक्षा खतरे में हो,
- प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों (Principles of Natural Justice) के तहत इसकी आवश्यकता हो।
- साथ ही धारा 20 के अनुसार यदि कोई झूठी या दुर्भावनापूर्ण शिकायत करता है, तो उसे इस अधिनियम की सुरक्षा प्राप्त नहीं होगी।
सूचना का अधिकार बनाम आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम, 1923
(1) संवैधानिक आधार
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) में नागरिकों को वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Freedom of Speech & Expression) का अधिकार दिया गया है।
- संविधान सभा की बहसों से यह भी स्पष्ट है कि इसमें मीडिया की स्वतंत्रता (Freedom of Press) भी शामिल है।
- हालाँकि, मूल संविधान में सूचना के अधिकार (Right to Information) का प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं था।
(2) न्यायिक व्याख्या
- स्टेट ऑफ यूपी बनाम राज नारायण (1975) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 19(1)(a) की व्यापक व्याख्या करते हुए इसमें सूचना का अधिकार भी शामिल कर लिया।
- न्यायमूर्ति मैथ्यू ने अपने निर्णय में कहा कि लोकतंत्र में हर नागरिक को सार्वजनिक कार्यों के बारे में जानने का अधिकार है।
- हालांकि, उन्होंने कुछ प्रतिबंध भी लगाए और यह कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा (National Security) के मामलों में कार्यपालिका (Executive) अंतिम निर्णय लेगी।
- बाद में, एस.पी. गुप्ता बनाम भारत के राष्ट्रपति (1981) में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि नीतिगत निर्णयों से जुड़े दस्तावेज भी स्वतः गोपनीय (Privileged) नहीं माने जा सकते।
- एल.के. कूलवाल बनाम राजस्थान राज्य (1986) में अदालत ने दोहराया कि अनुच्छेद 19(1)(a) के अंतर्गत सूचना का अधिकार भी शामिल है।
(3) साक्ष्य अधिनियम और गोपनीय दस्तावेज
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 123 कहती है कि राज्य से जुड़े अप्रकाशित दस्तावेज सबूत के रूप में इस्तेमाल नहीं किए जा सकते, जब तक विभागाध्यक्ष इसकी अनुमति न दे।
- लेकिन, अदालत यह तय कर सकती है कि कौन-सा दस्तावेज सार्वजनिक हित (Public Interest) में उजागर किया जाना चाहिए।
- धारा 162 भी कहती है कि गवाह दस्तावेज अदालत के समक्ष प्रस्तुत करेगा और फिर अदालत निर्णय लेगी कि उसे उजागर किया जाए या नहीं।
(4) आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम, 1923 (OSA)
- ब्रिटिश काल में पारित यह कानून बेहद कठोर (Draconian) माना जाता है।
- इसमें “गोपनीय दस्तावेज” (Secret Documents) की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं दी गई, जिससे सरकार को मनमाने ढंग से किसी भी सूचना को गोपनीय घोषित करने का अधिकार मिल गया।
- इसके अंतर्गत:
- कोई भी सूचना सार्वजनिक करने पर अभियोजन (Prosecution) हो सकता है।
- ज़मानत मिलना मुश्किल होता है, क्योंकि इसे राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला मान लिया जाता है।
- “जासूसी” (Spying) की परिभाषा भी अस्पष्ट है और आरोपी को ही अपनी निर्दोषता साबित करनी पड़ती है।
(5) दुरुपयोग के उदाहरण
- संतनु साइकिया (1998): विनिवेश नीति से जुड़ा कैबिनेट मेमो प्रकाशित करने पर OSA के तहत मुकदमा। बरी होने में 11 साल लगे।
- इफ्तिखार गिलानी (2002): कश्मीर टाइम्स के पत्रकार पर OSA का केस, जबकि जिन दस्तावेजों की बात थी, वे पहले से सार्वजनिक थे।
- ताराकांत द्विवेदी (2011): रेलवे पुलिस के हथियारों की खराब हालत उजागर करने पर OSA में गिरफ्तार।
- पूनम अग्रवाल (2017): सेना के सहायक प्रथा (Sahayak System) के दुरुपयोग का खुलासा करने पर OSA के तहत मामला।
- राफेल मामला (2019): अटॉर्नी जनरल ने द हिन्दू समाचारपत्र के खिलाफ OSA का हवाला दिया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया।
व्हिसलब्लोअर्स संरक्षण अधिनियम, 2014 की कमियाँ
इस अधिनियम में कई खामियाँ (Discrepancies) पाई जाती हैं, जिनके कारण इसकी आलोचना की जाती है।
गुमनाम शिकायतों पर रोक
- अधिनियम के अनुसार, यदि कोई शिकायतकर्ता अपनी पहचान उजागर नहीं करता है, तो उसकी शिकायत पर विचार ही नहीं किया जाएगा।
- यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) के विपरीत माना गया है।
- अतीत में कई व्हिसलब्लोअर्स (जैसे सत्येन्द्र दुबे, शन्मुगम मणjunath) की हत्या हो चुकी है। अतः पहचान गुप्त रखना अत्यंत आवश्यक है।
गोपनीयता के अधिकार का उल्लंघन
- सुप्रीम कोर्ट ने के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017) मामले में स्पष्ट किया था कि गोपनीयता का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता का हिस्सा है।
- अधिनियम शिकायतकर्ता की पहचान उजागर करता है, जो इस मूल अधिकार का हनन है।
समानता का सिद्धांत प्रभावित
- प्रेमचंद सोमनचंद शाह बनाम भारत संघ (1991) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अनुच्छेद 14 केवल समान परिस्थितियों वाले लोगों को समान सुरक्षा देता है।
- लेकिन व्हिसलब्लोअर और आरोपी को समान स्तर पर रखना न्यायसंगत नहीं है।
सक्षम प्राधिकारी की विवेकाधीन शक्तियाँ
- धारा 13 के तहत सक्षम प्राधिकारी के पास शिकायतकर्ता की पहचान उजागर करने का अधिकार है।
- यह विवेकाधीन शक्ति आसानी से दुरुपयोग हो सकती है।
- इसलिए यह सुझाव दिया गया है कि शिकायतों की जाँच एक निष्पक्ष समिति (Impartial Committee) द्वारा की जानी चाहिए, न कि उसी संगठन के सदस्यों द्वारा।
समस्याएँ और आगे का रास्ता
- 2015 में एक संशोधन विधेयक लाया गया, जिसके अनुसार व्हिसलब्लोअर को गोपनीय दस्तावेज़ (Official Secrets Act, 1923) उजागर करने की अनुमति नहीं होगी, भले ही वह भ्रष्टाचार या अपराध को उजागर करने के लिए ही क्यों न हो।
- इससे इस अधिनियम की मूल भावना कमजोर हो जाती है।
- आगे का रास्ता यह है कि निर्दोष व्हिसलब्लोअर की रक्षा के लिए ठोस कानून बने और 2015 का संशोधन त्यागा जाए।
- यदि इस तंत्र को मजबूत किया जाए, तो यह लोकतंत्र की अखंडता और पारदर्शिता की रक्षा में मदद करेगा।