शक्तियों का पृथक्करण (Separation of Powers) और शक्तियों का विभाजन (Division of Powers) लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के दो महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। जहाँ शक्तियों का पृथक्करण शासन के विभिन्न अंगों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन सुनिश्चित करता है, वहीं शक्तियों का विभाजन केंद्र और राज्यों के बीच अधिकारों और कर्तव्यों का स्पष्ट वितरण करता है।
पृष्ठभूमि
शक्तियों का पृथक्करण (Separation of Powers) जिसे त्रैस पॉलिटिका (trias politica) भी कहा जाता है, की अवधारणा सर्वप्रथम प्राचीन ग्रीस में विकसित हुई थी और इसके बाद रोमन गणराज्य (Roman Republic) द्वारा इसे अपनाया गया।
- अरस्तु ने सबसे पहले इस सिद्धांत की अवधारणा दी। अरस्तु (Aristotle) ने अपनी प्रसिद्ध कृति “Politics” में राज्य की शासन व्यवस्था को विश्लेषित करते हुए यह कहा कि एक सुशासित राज्य के लिए सरकार की शक्तियाँ तीन भागों में बंटी होनी चाहिए:
- विधायी कार्य (Deliberative function) – नीति निर्माण और कानून बनाना
- कार्यकारी कार्य (Executive function) – कानूनों का क्रियान्वयन
- न्यायिक कार्य (Judicial function) – कानून की व्याख्या और विवादों का समाधान
- अरस्तु की इस प्रारंभिक अवधारणा ने यह नींव रखी कि जब एक ही व्यक्ति या संस्था इन तीनों शक्तियों को अपने पास केंद्रित कर लेती है, तो तानाशाही की संभावना बढ़ जाती है।
- इसीलिए, स्वतंत्र और संतुलित शासन प्रणाली में इन तीनों शक्तियों का पृथक्करण आवश्यक माना गया।
- उसके बाद प्रसिद्ध फ्रांसीसी विचारक मॉन्टेस्क्यू (Montesquieu) ने अपने ग्रंथ ‘The Spirit of Laws’ में यह बताया कि जब सम्पूर्ण सत्ता एक व्यक्ति या एक छोटे समूह के हाथों में केंद्रित हो जाती है, तो वहाँ स्वेच्छाचारी शासन (despotic government) का उदय होता है। इसलिए शासन के तीन प्रमुख अंग विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में शक्ति का विभाजन लोकतंत्र की रक्षा के लिए आवश्यक है।
- अमेरिकी संविधान में इस सिद्धांत को पूर्णतः अपनाया गया।
नीचे शक्तियों का पृथक्करण (Separation of Powers) और शक्तियों का विभाजन (Division of Powers) के मूल अन्तरो पर बात की गयी है:
शक्तियों का पृथक्करण (Separation of Powers)
- शक्तियों का पृथक्करण (Separation of Powers) एक ऐसी शासन प्रणाली को दर्शाता है जिसमें सरकार की शक्तियाँ विभिन्न शाखाओं (विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका) में बाँटी जाती हैं। प्रत्येक शाखा का कार्यक्षेत्र अलग होता है ताकि कोई भी शाखा निरंकुश न बन सके और लोकतांत्रिक व्यवस्था बनी रहे।
- शक्तियों का पृथक्करण का अर्थ है, किसी उच्च संस्था द्वारा अपने कुछ अधिकार किसी अधीनस्थ संस्था को सौंपना। यह सिद्धांत शासन को अधिक व्यावहारिक और उत्तरदायी बनाता है, विशेष रूप से प्रशासनिक क्षेत्रों में जहां संसद सभी नियम नहीं बना सकती।
- Delegation is necessary in modern governance to ensure administrative flexibility and technical specialization. – Jain, M.P. (2014).
उदाहरण: भारतीय संसद द्वारा कार्यपालिका को नियम बनाने का अधिकार दिया जाना शक्तियों का पृथक्करण का उदाहरण है। जैसे, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के अंतर्गत केंद्र सरकार को नियम और मानक निर्धारित करने का अधिकार प्राप्त है।
शक्तियों का विभाजन (Division of Powers)
- दूसरी ओर, शक्तियों का विभाजन (Division of Powers) से तात्पर्य है, सरकार के विभिन्न स्तरों (जैसे कि केंद्र और राज्य) के बीच अधिकारों और जिम्मेदारियों का वितरण। यह विशेष रूप से संघात्मक देशों (Federal Countries) की एक प्रमुख विशेषता है, जहाँ संविधान द्वारा यह तय किया जाता है कि कौन-से विषय केंद्र के अधीन होंगे और कौन-से राज्य के।
- When the legislative and executive powers are united in the same person. there can be no liberty. – Montesquieu, The Spirit of Laws (1748)
- इन दोनों सिद्धांतों के भिन्न आयाम होते हुए भी, दोनों का अंतिम उद्देश्य सत्ता के केंद्रीकरण को रोकना और शासन में दक्षता लाना है।
भारतीय संविधान शक्ति विभाजन को स्पष्ट रूप से लागू नहीं करता, परंतु इसके तत्व संविधान में विद्यमान हैं। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह स्वीकारा है कि कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतंत्र हैं (Refer: Kesavananda Bharati v. State of Kerala, AIR 1973 SC 1461).
केस अध्ययन: भारत
भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में यह संतुलन संघीय ढांचे की सफलता के लिए अनिवार्य है। भारत ने भी संविधान के तहत विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को निर्धारित सीमाएँ और अधिकार क्षेत्र प्रदान किए हैं। संविधान अपेक्षा करता है कि ये अंग अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतंत्र रूप से कार्य करें, लेकिन एक-दूसरे की संवैधानिक मर्यादा का सम्मान करें।
भारत एक सहकारी संघवाद (Cooperative Federalism) वाला देश है, जहाँ केंद्र और राज्य दोनों मिलकर राष्ट्रीय विकास हेतु कार्य करते हैं, किंतु साथ ही संविधान द्वारा प्रदत्त अपने-अपने क्षेत्राधिकार के अंतर्गत कार्य करते हैं।
भारतीय संविधान शक्तियों के पृथक्करण को स्पष्ट रूप से नहीं अपनाता, लेकिन इसके विभिन्न अनुच्छेदों में इसका प्रभाव देखा जा सकता है:
- अनुच्छेद 50: कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच पृथक्करण की बात करता है।
- अनुच्छेद 121 और 211: न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करते हैं।
भारत में केंद्र और राज्य सरकारें और उनके बीच शक्तियों का संवैधानिक वितरण होता है।
सातवीं अनुसूची के तहत तीन सूचियाँ
- संघ सूची (Union List) – 97 विषय, केवल केंद्र को अधिकार
- राज्य सूची (State List) – 66 विषय, राज्यों के अधिकार
- समवर्ती सूची (Concurrent List) – 47 विषय, दोनों सरकारें कानून बना सकती हैं
- अनुच्छेद 246 इन सूचियों के आधार पर विधायी अधिकार तय करता है।
- भारत का संघवाद “केंद्राभिमुख” (centripetal) माना जाता है।
- संविधान की प्रस्तावना में “India is a Union of States” कहा गया है।
- आपातकालीन परिस्थितियों में केंद्र को अधिक शक्ति प्राप्त होती है (अनुच्छेद 356, 352)।
शक्तियों के संतुलन में चुनौतियाँ
- केन्द्र-राज्य संबंधों में तनाव: कर संग्रह, अनुदान वितरण, जीएसटी परिषद में निर्णय – सभी में केंद्र की भूमिका अधिक होती जा रही है।
- न्यायपालिका का सक्रियता (Judicial Activism): कई बार न्यायपालिका पर यह आरोप लगता है कि वह कार्यपालिका और विधायिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप कर रही है।
- राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता में कटौती: वित्त आयोगों द्वारा राज्यों की हिस्सेदारी में कटौती और केंद्र द्वारा उपकर (Cess) और अधिभार (Surcharge) के माध्यम से संसाधनों का केंद्रीकरण।
आगे की दिशा
- सहकारी संघवाद (Cooperative Federalism) को बढ़ावा देना।
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा और कार्यपालिका पर उसकी निर्भरता को सीमित करना।
- स्थानीय सरकारों (तीसरे स्तर) को सशक्त बनाना – अनुच्छेद 243 के तहत पंचायतों और नगरपालिकाओं को वित्तीय एवं प्रशासनिक अधिकार।
- जीएसटी परिषद, नीति आयोग, और इंटर-स्टेट काउंसिल जैसी संस्थाओं को प्रभावी बनाना।
निष्कर्ष
भारत का संविधान शक्तियों के संतुलन की एक परिपक्व और व्यावहारिक समझ प्रस्तुत करता है। लेकिन, वर्तमान राजनीतिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य में संघीय ढांचे को अधिक लचीला, सहभागी और न्यायसंगत बनाने की आवश्यकता है। शक्तियों का पृथक्करण और शक्तियों का विभाजन दोनों ही लोकतांत्रिक शासन की नींव हैं और इनका संतुलन ही भारत की संघीय व्यवस्था की दीर्घकालिक स्थिरता और सफलता को सुनिश्चित करेगा।