शीत युद्ध (1945–1991) एक दीर्घकालिक वैश्विक वैचारिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सामरिक प्रतिद्वंद्विता थी, जो संयुक्त राज्य अमेरिका (USA) के नेतृत्व वाले पूंजीवादी-लोकतांत्रिक गुट और सोवियत संघ (USSR) के नेतृत्व वाले साम्यवादी गुट के बीच विद्यमान रही। इसे “शीत” इसलिए कहा गया क्योंकि इस संघर्ष में प्रत्यक्ष सैन्य टकराव नहीं हुआ; बल्कि यह प्रतिस्पर्धा अप्रत्यक्ष रूपों में जैसे छद्म युद्धों, प्रचार अभियानों, हथियारों की दौड़, जासूसी, और कूटनीतिक तनाव के माध्यम से प्रकट हुई।

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात्, जब धुरी शक्तियों का पतन हुआ, तब अमेरिका और सोवियत संघ दो वैश्विक महाशक्तियों के रूप में उभरे। इस समय के दौरान दोनों राष्ट्र अपने-अपने राजनीतिक सिद्धांतों पूंजीवाद और साम्यवाद के प्रसार और वर्चस्व की स्थापना हेतु सक्रिय रहे। परिणामस्वरूप विश्व द्विध्रुवीय (Bipolar) व्यवस्था में विभाजित हो गया।
“शीत युद्ध” शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 1945 में ब्रिटिश लेखक जॉर्ज ऑरवेल द्वारा किया गया, जिसने सैन्य आक्रामकता की अनुपस्थिति में भी राजनीतिक और वैचारिक तनाव की प्रकृति को अभिव्यक्त किया।
शीत युद्ध की उत्पत्ति एवं प्रमुख कारक
शीत युद्ध की पृष्ठभूमि द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात गठित अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था में निहित थी। सहयोगी शक्तियों (अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस) और सोवियत संघ के बीच युद्धकालीन एकता युद्धोत्तर काल में शीघ्र ही अविश्वास में परिवर्तित हो गई।
मुख्य निर्णायक घटनाएँ:
- पॉट्सडैम सम्मेलन (1945): युद्धोत्तर पुनर्गठन हेतु आयोजित इस सम्मेलन में जर्मनी के विभाजन और पूर्वी यूरोप में सोवियत प्रभाव के प्रश्नों पर मतभेद उभरे। अमेरिका द्वारा परमाणु बम की जानकारी गोपनीय रखने से सोवियत-अमेरिकी अविश्वास गहरा गया।
- ट्रूमैन सिद्धांत (1947): राष्ट्रपति हैरी एस. ट्रूमैन द्वारा प्रस्तुत यह नीति साम्यवाद के प्रसार को रोकने हेतु “Containment” नीति की आधारशिला बनी। इस सिद्धांत के तहत अमेरिका ने ग्रीस और तुर्की को साम्यवादी प्रभाव से बचाने हेतु आर्थिक व सैन्य सहायता प्रदान की, जिससे अमेरिका की वैश्विक भूमिका का विस्तार हुआ।
- आयरन कर्टेन (1946): विंस्टन चर्चिल के फुल्टन भाषण में प्रयुक्त यह रूपक पूर्वी यूरोप पर सोवियत नियंत्रण और पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों से उसके वैचारिक अलगाव का प्रतीक बन गया।
- पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच वैचारिक संघर्ष।
- युद्धोत्तर शक्ति-संतुलन में अमेरिका और सोवियत संघ का उदय।
- याल्टा और पॉट्सडैम सम्मेलनों में जर्मनी के पुनर्गठन पर असहमति।
- सोवियत संघ द्वारा पूर्वी यूरोप में साम्यवादी शासन की स्थापना।
- अमेरिकी मार्शल योजना (1947) के प्रत्युत्तर में सोवियत कमिनफॉर्म (1947) का गठन।
- नाटो (1949) और वारसा संधि (1955) जैसे सैन्य गठबंधनों की प्रतिस्पर्धा।
मुख्य घटनाएँ एवं प्रतिस्पर्धाएँ
- बर्लिन संकट और दीवार का निर्माण
- बर्लिन की घेराबंदी (Berlin Blockade), 1948 में हुई, जैसे ही सोवियत संघ और सहयोगी देशों के बीच तनाव बढ़ा सोवियत संघ ने वर्ष 1948 में बर्लिन की घेराबंदी शुरू कर दी।
- बर्लिन की घेराबंदी सोवियत संघ द्वारा सहयोगी देशों के नियंत्रण वाले बर्लिन क्षेत्र में उनकी गतिशीलता को सीमित करने का एक प्रयास था।
- इसके अतिरिक्त 13 अगस्त, 1961 को जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक (पूर्वी जर्मनी) की साम्यवादी सरकार ने पूर्वी और पश्चिमी बर्लिन के बीच एक काँटेदार बाड़ और कंक्रीट की दीवार (बर्लिन की दीवार) का निर्माण भी शुरू कर दिया।
- इसने मुख्य रूप से पूर्वी बर्लिन से पश्चिमी बर्लिन में बड़े पैमाने पर प्रवसन को रोकने के उद्देश्य को पूरा किया।
- विशेष परिस्थितियों को छोड़कर पूर्वी और पश्चिमी बर्लिन के लोगों को सीमा पार करने की अनुमति नहीं दी गई थी।
- वर्ष 1989 में बर्लिन की दीवार के ध्वस्त होने से पहले तक यह अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रतीक या स्मारक बना रहा।

बर्लिन की दीवार का इतिहास: सहयोगी देशों (अमेरिका, यू.के., फ्रांस) और सोवियत संघ ने साथ मिलकर द्वितीय विश्व युद्ध में नाज़ी जर्मनी को पराजित किया था जिसके बाद सोवियत संघ और सहयोगी देशों के बीच जर्मनी के क्षेत्रों के भाग्य का फैसला करने के लिये याल्टा और पोट्सडैम सम्मेलन (1945) आयोजित किये गए थे।
- सम्मेलन में जर्मनी को रूसी, अमेरिकी, ब्रिटिश और फ्रांसीसी प्रभाव वाले क्षेत्रों में विभाजित किया गया था।
- जर्मनी का पूर्वी भाग सोवियत संघ को प्राप्त हुआ, जबकि पश्चिमी भाग संयुक्त राज्य अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन और फ्रांस को मिला।
बर्लिन की दीवार 9 नवंबर, 1989 को ढहा दी गई जिसने शीत युद्ध के प्रतीकात्मक अंत को चिन्हित किया।
- मार्शल योजना बनाम कमिनफॉर्म: अमेरिका की मार्शल योजना यूरोपीय पुनर्निर्माण और पूंजीवादी प्रभाव के प्रसार का माध्यम बनी, जबकि सोवियत संघ ने इसे “डॉलर साम्राज्यवाद” कहकर खारिज किया और अपने नियंत्रण वाले देशों हेतु कमिनफॉर्म की स्थापना की।
- नाटो और वारसा संधि: नाटो (1949) पश्चिमी गुट का सामूहिक रक्षा संगठन बना, जबकि सोवियत संघ ने प्रतिक्रिया स्वरूप वारसा संधि (1955) की स्थापना की, जिससे वैश्विक सैन्य ध्रुवीकरण सुदृढ़ हुआ।
- क्यूबा मिसाइल संकट (1962): क्यूबा में सोवियत परमाणु मिसाइल तैनाती ने विश्व को परमाणु युद्ध के कगार पर पहुँचा दिया। अंततः राजनयिक समझौते के माध्यम से यह संकट टल गया, किंतु इसने शीत युद्ध की चरम तनावपूर्ण प्रकृति को उजागर किया।

- अंतरिक्ष प्रतिस्पर्धा: स्पुतनिक (1957), यूरी गागरिन की अंतरिक्ष यात्रा (1961), और अमेरिकी अपोलो मिशन (1969) ने विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में दोनों महाशक्तियों के बीच श्रेष्ठता की दौड़ को रेखांकित किया।
- हथियारों की दौड़: परमाणु हथियारों के तीव्र उत्पादन, ICBM के विकास और SALT व START जैसी संधियों ने “Mutually Assured Destruction (MAD)” की नीति को जन्म दिया।
शीत युद्ध का अंत (1991)
सोवियत संघ के विघटन के साथ ही शीत युद्ध का समापन हुआ, जिसने द्विध्रुवीय विश्व व्यवस्था के अंत और अमेरिकी वर्चस्व वाले एकध्रुवीय युग की शुरुआत को चिह्नित किया।
समापन के प्रमुख कारण:
- आर्थिक एवं सैन्य दबाव:
हथियारों और अंतरिक्ष प्रतिस्पर्धा में सोवियत संसाधनों की अत्यधिक खपत हुई, जिससे अर्थव्यवस्था कमजोर हुई। - गोर्बाचेव की नीतियाँ:
ग्लासनोस्त (राजनीतिक पारदर्शिता) और पेरेस्त्रोइका (आर्थिक पुनर्गठन) जैसी सुधारवादी नीतियों ने साम्यवादी नियंत्रण को शिथिल किया, जिससे असंतोष और स्वतंत्रता आंदोलनों को बल मिला। - अफगानिस्तान युद्ध (1979–1989):
इस युद्ध ने सोवियत संघ की सैन्य और आर्थिक क्षमताओं को गंभीर रूप से क्षीण किया। - आंतरिक असंतोष और संघीय संकट:
विभिन्न गणराज्यों में राष्ट्रवादी आंदोलन और स्वतंत्रता की माँगों ने USSR के विघटन को जन्म दिया।
शीत युद्धोत्तर विश्व व्यवस्था
1991 के बाद विश्व व्यवस्था एकध्रुवीय रूप में उभरी जिसमें अमेरिका एकमात्र महाशक्ति था। पूंजीवाद और उदार लोकतंत्र को वैश्विक वैधता प्राप्त हुई। तथापि 21वीं सदी में चीन, भारत, और अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं के उदय ने विश्व को पुनः बहुध्रुवीयता की दिशा में अग्रसर किया।
एकध्रुवीय विश्व का उदय
- अमेरिका एकमात्र महाशक्ति बनकर उभरा।
- पूंजीवाद और लोकतंत्र को वैश्विक मान्यता मिली।
बहुध्रुवीयता की ओर संक्रमण
21वीं सदी में अमेरिका की स्थिति में अस्थिरता आई:
- अफगानिस्तान और इराक युद्ध में आलोचना।
- गैर-पारंपरिक सुरक्षा खतरे जैसे आतंकवाद, साइबर युद्ध।
- वैश्विक आर्थिक मंदी और धार्मिक कट्टरवाद का प्रसार।
नई शक्तियाँ उभर कर आईं – चीन, भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया आदि
- अब विश्व बहुध्रुवीय हो रहा है, जिसमें पश्चिम का पतन और पूर्व का उदय देखा जा रहा है।
विद्वानों की व्याख्याएँ
- फ्रांसिस फुकुयामा (1989): “The End of History?” में तर्क दिया कि शीत युद्ध के अंत के साथ वैचारिक संघर्ष समाप्त हो गया और उदार लोकतंत्र मानव शासन का अंतिम रूप बन गया।
- एंड्रयू हेवुड (Global Politics): शीत युद्ध के अंत को साम्यवाद पर उदार लोकतंत्र की विजय के रूप में व्याख्यायित करते हैं।
- जॉन लुईस गैडिस (The Cold War: A New History): गोर्बाचेव को “अनपेक्षित सुधारक” (Unintended Reformer) मानते हैं, जिनकी नीतियों ने USSR के अस्तित्व को बचाने के बजाय उसके पतन को तीव्र किया।
| वर्ष | घटना |
| 1947 | ट्रूमैन सिद्धांत और मार्शल प्लान की घोषणा |
| 1948–49 | बर्लिन एयरलिफ्ट |
| 1950–53 | कोरियाई युद्ध (छद्म युद्ध) |
| 1955 | वारसा संधि की स्थापना |
| 1961 | बर्लिन दीवार का निर्माण |
| 1962 | क्यूबा मिसाइल संकट – परमाणु युद्ध का खतरा |
| 1965–75 | वियतनाम युद्ध |
| 1979–89 | अफगानिस्तान युद्ध – USSR बनाम मुजाहिदीन (अमेरिका समर्थित) |
| 1985 | गोर्बाचेव की ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका नीतियाँ |
| 1991 | सोवियत संघ का विघटन – शीत युद्ध का अंत |
संक्षेप में, शीत युद्ध केवल एक राजनीतिक संघर्ष नहीं था, बल्कि यह 20वीं सदी के वैश्विक इतिहास की निर्णायक वैचारिक प्रतिस्पर्धा थी, जिसने अंतरराष्ट्रीय संबंधों, तकनीकी विकास, और विश्व व्यवस्था को स्थायी रूप से प्रभावित किया।
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