मानव सभ्यता के इतिहास में संघर्ष और शांति दो ऐसे स्थायी तत्व रहे हैं जिन्होंने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को गहराई से प्रभावित किया है। जहाँ एक ओर संघर्ष असहमति, हिंसा और युद्ध के रूप में सामने आता है, वहीं दूसरी ओर शांति सामंजस्य, सहयोग और सहअस्तित्व का प्रतीक है। अंतर्राष्ट्रीय संबंधों (International Relations – IR) में इन दोनों अवधारणाओं का अध्ययन न केवल सैद्धांतिक दृष्टि से बल्कि व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य से भी आवश्यक है। आज के समय में, जब वैश्वीकरण, तकनीकी प्रगति और भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा एक साथ काम कर रहे हैं, तब संघर्ष और शांति की समझ और भी अधिक प्रासंगिक हो जाती है।
संघर्ष की अवधारणा
संघर्ष (Conflict) सामान्यतः विरोधी हितों, विचारों या लक्ष्यों के कारण उत्पन्न होता है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह राज्यों, गुटों या गैर-राज्यीय तत्वों के बीच असहमति का रूप लेता है।
- सकारात्मक पहलू: संघर्ष कई बार उन अन्यायों को उजागर करता है जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता है। यह आवश्यक सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों को प्रोत्साहित कर सकता है और रचनात्मक समस्या-समाधान का अवसर प्रदान करता है।
- नकारात्मक पहलू: दूसरी ओर, संघर्ष हिंसा, जान-माल की हानि और अस्थिरता को जन्म देता है। लंबे समय तक चलने वाले युद्ध और आतंकवाद इसके उदाहरण हैं।
शांति की अवधारणा
शांति (Peace) को प्रायः हिंसा की अनुपस्थिति के रूप में परिभाषित किया जाता है, लेकिन यह केवल युद्ध न होने की स्थिति तक सीमित नहीं है।
- सकारात्मक शांति (Kenneth Boulding): इसमें सुव्यवस्थित शासन, न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था, संसाधनों का संतुलित वितरण और सहयोग शामिल है।
- नकारात्मक शांति: इसमें केवल युद्ध, हिंसा और तनाव का अभाव माना जाता है।
शांति का वास्तविक अर्थ है, सामाजिक सद्भाव, आपसी विश्वास और टिकाऊ विकास।
अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में संघर्ष के कारण
इतिहास में 1989 तक के संघर्षों को पाँच प्रमुख समूहों में बाँटा गया:
- क्षेत्रीय विवाद (Territorial Disputes) – सीमाओं और भू-भाग को लेकर युद्ध (उदाहरण: भारत-चीन युद्ध 1962)।
- आर्थिक मुद्दे – संसाधनों पर प्रतिस्पर्धा, व्यापार अवरोध और बाज़ार की होड़।
- राष्ट्र–राज्य निर्माण – औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता की माँग।
- वैचारिक मतभेद – पूँजीवाद बनाम साम्यवाद जैसे विवाद।
- मानवीय सहानुभूति से जुड़े मुद्दे – जातीय, धार्मिक और सांस्कृतिक टकराव।
युद्ध की बदलती प्रकृति
युद्ध का चरित्र स्थिर नहीं है, बल्कि समय और परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है।
- पारंपरिक युद्ध: राज्यों के बीच सशस्त्र संघर्ष।
- नए रूप:
- साइबर युद्ध: हैकिंग, सोशल मीडिया हस्तक्षेप, डेटा चोरी और AI-आधारित हमले।
- आर्थिक युद्ध: प्रतिबंध, व्यापार अवरोध, मुद्रा युद्ध (उदा. चीन की बेल्ट एंड रोड पहल को रणनीतिक हथियार माना जाता है)।
- आतंकवाद और प्रॉक्सी युद्ध: गैर-राज्यीय तत्वों द्वारा हिंसा।
- जैविक और रासायनिक युद्ध।
- परमाणु युद्ध: व्यापक विनाश का खतरा।
- कूटनीतिक युद्ध: जैसे चीन की “Wolf Warrior Diplomacy”।
21वीं सदी में संघर्ष केवल युद्धक्षेत्र तक सीमित नहीं है बल्कि यह सूचना, प्रौद्योगिकी और मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी फैला हुआ है।
सामूहिक विनाश के हथियार (WMDs)
परमाणु, रासायनिक और जैविक हथियारों ने अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा को नई चुनौतियाँ दी हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इन हथियारों पर नियंत्रण हेतु कई संधियाँ की गईं:
- परमाणु अप्रसार संधि (NPT, 1968)
- जैविक हथियार सम्मेलन (1972)
- रासायनिक हथियार सम्मेलन (1993)
- व्यापक परीक्षण प्रतिबंध संधि (CTBT, 1996)
इन प्रयासों के बावजूद परमाणु प्रसार, आतंकवादी संगठनों तक तकनीक पहुँचने और हथियारों का आधुनिकीकरण आज भी गंभीर खतरे बने हुए हैं।
डिटरेंस सिद्धांत (Deterrence Theory)
डिटरेंस एक सैन्य रणनीति है जिसमें विरोधी को आक्रमण करने से रोकने के लिए प्रतिशोध की धमकी दी जाती है। शीत युद्ध काल में अमेरिका और सोवियत संघ के बीच परमाणु हथियारों का संतुलन इसी पर आधारित था।
- प्रत्यक्ष डिटरेंस: सीधे शत्रु को रोकना।
- विस्तारित डिटरेंस: सहयोगी देशों पर हमले से रोकना (उदा. जापान और दक्षिण कोरिया की रक्षा में अमेरिकी डिटरेंस)।
यह सिद्धांत आज भी प्रासंगिक है, लेकिन गैर-राज्यीय खतरों और साइबर युद्ध जैसे नए आयामों के सामने इसकी सीमाएँ स्पष्ट हो रही हैं।
संघर्ष समाधान और रूपांतरण
संघर्ष को केवल रोकना या दबाना पर्याप्त नहीं है, बल्कि उसके मूल कारणों को समझना और समाधान निकालना आवश्यक है।
- संघर्ष समाधान (Conflict Resolution): बातचीत, मध्यस्थता, संसाधन विभाजन और आपसी समझौते।
- संघर्ष रूपांतरण (Conflict Transformation): जॉन पॉल लेडरच और मर्टिना फिशर के अनुसार, यह गहरी जड़ें जमाए सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं को सकारात्मक परिवर्तन के अवसर में बदलने की प्रक्रिया है।
संघर्ष रूपांतरण केवल अस्थायी शांति नहीं बल्कि दीर्घकालिक स्थायी शांति (Just Peace) पर बल देता है।
प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय संधियाँ और प्रयास
विश्व शांति और हथियारों पर नियंत्रण के लिए कई संधियाँ की गईं:
- SALT I (1972) और SALT II (1979) – परमाणु हथियारों की सीमा।
- START I (1991) और START II (1993) – सामरिक हथियारों में कटौती।
- नई START संधि (2010) – अमेरिका और रूस के बीच परमाणु शस्त्रों में कमी।
- MTCR (1987) – मिसाइल तकनीक के प्रसार पर रोक।
- ऑस्ट्रेलिया ग्रुप और वासेनार व्यवस्था – रासायनिक और पारंपरिक हथियारों पर नियंत्रण।
ये संधियाँ बताती हैं कि वैश्विक सुरक्षा के लिए सहयोग और सामूहिक जिम्मेदारी अनिवार्य है।
21वीं सदी की चुनौतियाँ
आज का विश्व कई नई चुनौतियों का सामना कर रहा है:
- तकनीकी प्रगति – AI, ड्रोन और साइबर हथियार।
- गैर–राज्यीय तत्व – आतंकवादी संगठन और प्रॉक्सी युद्ध।
- भू–राजनीतिक प्रतिस्पर्धा – अमेरिका-चीन प्रतिद्वंद्विता और रूस-यूक्रेन युद्ध।
- डिजिटल युग की सूचना–युद्ध (Information Warfare)।
- पर्यावरणीय और मानवीय संकट – जलवायु परिवर्तन, शरणार्थी समस्या आदि।
निष्कर्ष
संघर्ष और शांति एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं। जहाँ संघर्ष कई बार असमानताओं और अन्याय को उजागर करता है, वहीं शांति स्थायी समाधान और मानवता के लिए सुरक्षित भविष्य का मार्ग दिखाती है। अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में आज आवश्यकता है कि संघर्ष को केवल दबाने के बजाय उसे रचनात्मक दिशा दी जाए।
संयुक्त राष्ट्र और अन्य वैश्विक संस्थाओं की भूमिका इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है, लेकिन केवल संधियाँ और नियम पर्याप्त नहीं हैं। जब तक राष्ट्र, समाज और व्यक्ति स्तर पर सहयोग, पारदर्शिता और न्यायपूर्ण व्यवस्था स्थापित नहीं होती, तब तक शांति अधूरी रहेगी।
अतः, 21वीं सदी के इस दौर में संघर्ष और शांति का अध्ययन हमें यह सिखाता है कि युद्ध, हथियार और प्रतिद्वंद्विता की राजनीति से आगे बढ़कर हम साझा मानवता, सतत विकास और न्यायपूर्ण शांति की दिशा में कदम बढ़ाएँ। यही अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का वास्तविक लक्ष्य होना चाहिए।
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