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संविधान सभा की बहसें (Constituent Assembly debates)

संविधान सभा की बहसें: राष्ट्रवादी एवं गैर-राष्ट्रवादी दृष्टिकोण

संविधान सभा की बहसें (Constituent Assembly Debates) को समझना भारत के लोकतंत्र, राजनीति और संविधान की आत्मा को जानने के लिए बेहद ज़रूरी है। संविधान सिर्फ़ एक ‘कानूनी दस्तावेज़’ नहीं है, यह उस समय के विचारों, संघर्षों और आदर्शों का परिणाम है।
संविधान सभा में 1946–1949 के बीच 300 से अधिक सदस्य थे।
इनमें महिलाएँ, अल्पसंख्यक, किसान, वकील, समाजसुधारक, शिक्षाविद और राजनीतिक नेता शामिल थे। संविधान सभा की बहसें हमें दिखाती हैं कि आज़ादी के बाद भारत कैसा बनना चाहता था।
यह हमारे राष्ट्र-निर्माण की सबसे ईमानदार झलक है। जहाँ महज़ ‘कानून’ नहीं, बल्कि ‘भारत के विचार’ गढ़े जा रहे थे।

संविधान सभा के बारे मे

  • संविधान सभा की बहस पहली बार 9 दिसंबर, 1946 को बुलाई गई थी। भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए अगले दो साल और ग्यारह महीनों में सभा की 166 दिन तक बैठकें हुईं। संविधान सभा की बहस का अंतिम सत्र 24 जनवरी, 1950 को हुआ था।
  • स्वतंत्रता से पहले, केंद्रीय विधानमंडल दो कक्षों में विभाजित था: विधान सभा और राज्य परिषद।
  • इन दोनों सदनों को 15 अगस्त 1947 को एक सदन, भारत की संविधान सभा-विधान द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था, जो भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 की धारा 8 के तहत 14-15 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि को समाप्त हो गया था।

भारतीय संविधान सभा की बहसों में कई विषयों को शामिल किया गया, जिनमें शामिल हैं:

  • मौलिक अधिकार:उन आवश्यक अधिकारों पर चर्चा जो सभी नागरिकों को सुनिश्चित किये जाने चाहिए।
  • राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत:राज्य के शासन में मार्गदर्शन के लिए सिद्धांतों पर विचार-विमर्श।
  • सरकार की संरचना:सरकार की विधायी, कार्यकारी और न्यायिक शाखाओं के डिजाइन पर बहस।
  • संघवाद:केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों के विभाजन के संबंध में विचार।
  • सामाजिक न्याय:समाज के सभी वर्गों के लिए समानता और न्याय सुनिश्चित करने के उद्देश्य से प्रावधान।

भारतीय संविधान निर्माण की समयरेखा (Timeline of the Making of the Indian Constitution)

तिथि / अवधिघटना / कार्यवाहीमुख्य विवरण / महत्व
मई 1946कैबिनेट मिशन योजनासंविधान सभा की स्थापना का प्रस्ताव; उद्देश्य – भारत के लिए संविधान निर्माण।
9 दिसम्बर 1946संविधान सभा की पहली बैठकसंविधान सभा का प्रथम सत्र आयोजित; अस्थायी अध्यक्ष – सच्चिदानंद सिन्हा।
11 दिसम्बर 1946अध्यक्षीय चुनावडॉ. राजेंद्र प्रसाद – अध्यक्ष; हरेंद्र कुमार मुखर्जी एवं वी.टी. कृष्णमाचारी – उपाध्यक्ष; बी.एन. राव – संवैधानिक सलाहकार नियुक्त।
13 दिसम्बर 1946‘उद्देश्य प्रस्ताव’ (Objective Resolution)जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रस्तुत; संविधान के मूल दर्शन का निर्धारण – संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना, समानता, न्याय और स्वतंत्रता का आश्वासन।
22 जनवरी 1947उद्देश्य प्रस्ताव स्वीकृतप्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित; यही आगे चलकर संविधान की प्रस्तावना (Preamble) का आधार बना।
जुलाई 1947भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947संविधान सभा को पूर्ण स्वायत्तता और विधायी अधिकार प्रदान; ब्रिटिश संसद के किसी भी कानून को संशोधित करने का अधिकार।
जुलाईअक्टूबर 1947प्रथम प्रारूप की तैयारीसंवैधानिक सलाहकार बी.एन. राव द्वारा विभिन्न रिपोर्टों के समन्वय से प्रारूप का निर्माण।
22 जुलाई 1947राष्ट्रीय ध्वज का अंगीकरणसंविधान सभा ने भारत के राष्ट्रीय ध्वज को अपनाया।
अक्टूबर 1947 – फरवरी 1948प्रारूप समिति में विचार-विमर्शप्रारूप समिति (Drafting Committee) द्वारा मसौदा तैयार किया गया; 21 फरवरी 1948 को प्रस्तुत – 315 अनुच्छेद एवं 8 अनुसूचियाँ।
4 नवम्बर9 नवम्बर 1948प्रथम वाचन (First Reading)प्रारूप समिति द्वारा तैयार संविधान का प्रारूप सभा में प्रस्तुत।
15 नवम्बर 1948 – 17 अक्टूबर 1949द्वितीय वाचन (Second Reading)अनुच्छेदवार चर्चा; संशोधन और परिशोधन की प्रक्रिया।
मई 1949राष्ट्रमंडल सदस्यता स्वीकारसंविधान सभा ने ब्रिटिश राष्ट्रमंडल में भारत की सदस्यता को अनुमोदित किया।
14 नवम्बर26 नवम्बर 1949तृतीय वाचन (Third Reading)अंतिम विचार-विमर्श एवं संविधान को पारित करने की प्रक्रिया पूरी।
26 नवम्बर 1949संविधान अपनाया गयासंविधान सभा ने भारत के संविधान को औपचारिक रूप से पारित और अपनाया।
24 जनवरी 1950राष्ट्रपति का निर्वाचन एवं प्रतीकों का अंगीकरणडॉ. राजेंद्र प्रसाद – भारत के प्रथम राष्ट्रपति निर्वाचित; राष्ट्रगान (जन गण मन) एवं राष्ट्रगीत (वंदे मातरम्) को अपनाया गया।
26 जनवरी 1950संविधान का पूर्ण रूप से लागू होनाभारतीय संविधान प्रभावी हुआ; यह तिथि ‘पूर्ण स्वराज दिवस’ (1929) की स्मृति में चुनी गई; गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है।

संविधान के आंशिक रूप से प्रभावी प्रावधान (26 नवम्बर 1949 से)

संविधान के निम्न अनुच्छेद 26 नवम्बर 1949 से लागू हुए: अनुच्छेद 5, 6, 7, 8, 9, 60, 324, 366, 367, 379, 380, 388, 391, 392, 393।
ये नागरिकता, चुनाव, अंतरिम संसद, अस्थायी एवं संक्रमणकालीन प्रावधानों से संबंधित थे।

शेष प्रावधान 26 जनवरी 1950 से लागू हुए, जब संविधान पूर्ण रूप से प्रभावी हुआ।

मुख्य समितियाँ (Constituent Assembly Committees)

समिति का नामअध्यक्ष / संयोजकमुख्य कार्य
प्रारूप समिति (Drafting Committee)डॉ. बी.आर. आंबेडकरसंविधान का अंतिम मसौदा तैयार करना
स्टीयरिंग समितिडॉ. राजेंद्र प्रसादसभा की कार्यवाही का समन्वय
नियम समितिराजेन्द्र प्रसादसंविधान सभा के कार्यनियम निर्धारित करना
मौलिक अधिकार समितिसरदार वल्लभभाई पटेलनागरिकों के अधिकार निर्धारित करना
संघ शक्ति समितिजवाहरलाल नेहरूकेंद्र-राज्य शक्तियों का विभाजन
राज्य संविधान समितिजवाहरलाल नेहरूराज्यों के संविधान का प्रारूप तैयार करना
प्रांतीय संविधान समितिसरदार पटेलराज्यों में प्रशासनिक ढांचा तय करना
सलाहकार समितिसरदार पटेलअल्पसंख्यक, जनजातीय और मौलिक अधिकार संबंधी सुझाव देना

भारतीय संविधान को आम तौर पर भारतीय राष्ट्रवाद की सफलता के रूप में देखा जाता  है, लेकिन यह दृष्टिकोण सीमित है, क्योंकि इससे संविधान निर्माण की जटिल, बहुआयामी और संघर्षपूर्ण प्रक्रिया को नज़रअंदाज़ किया गया है। संविधान-निर्माण को ‘राष्ट्र-निर्माण’ से अलग करके देखा जाए तभी भारतीय संवैधानिक इतिहास की गहराई और विविधता को सही रूप से समझा जा सकता है।

राष्ट्रवादी दृष्टिकोण

भारतीय संविधान, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का स्वाभाविक और गौरवशाली परिणाम था।
इस विचारधारा में संविधान को भारतीय राष्ट्रवाद की सफलता, लोकतांत्रिक आदर्शों की स्थापना, और औपनिवेशिक शासन से मुक्ति का प्रतीक माना जाता है।

इस दृष्टिकोण के समर्थक यह मानते हैं कि संविधान बनाने वाली संविधान सभा ने राष्ट्र के ‘एकता, सामाजिक न्याय, और लोकतंत्र’ के आदर्शों को मूर्त रूप दिया।

  1. ग्रैनविल ऑस्टिन (Granville Austin)
  • उनकी प्रसिद्ध किताब: The Indian Constitution: Cornerstone of a Nation (1966)
  • उन्होंने कहा कि संविधान सभा के सदस्य सामाजिक क्रांति (social revolution) लाना चाहते थे।
  • उनके अनुसार,
    • सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार,
    • मौलिक अधिकार,
    • राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (Directive Principles),
    • और केंद्र-राज्य संबंध; सब भारतीय राष्ट्रवाद के ‘लोकतांत्रिक आदर्शों’ के प्रतीक हैं।
  • ऑस्टिन के लिए संविधान था ‘भारतीय राष्ट्रवाद की सर्वोच्च उपलब्धि।’
  1. सर्बनी सेन (Sarbani Sen)
  • पुस्तक: Popular Sovereignty and Democratic Transformations (2007)
  • उनका कहना था कि संविधान सभा केवल विधायी संस्था नहीं थी,
    बल्कि यह जन-क्रांतिकारी राजनीतिक परंपरा की निरंतरता थी।
  • संविधान-निर्माण उनके अनुसार एक ऐसा क्षण था जब भारतीय जनता की संप्रभुता (popular sovereignty) को औपचारिक रूप से स्थापित किया गया।
  1. उमा कांत तिवारी (Uma Kant Tiwary)
  • पुस्तक: The Making of the Indian Constitution (1967)
  • उन्होंने लिखा: ‘भारत की स्वतंत्रता का इतिहास, प्रतिनिधिक संस्थाओं के माध्यम से आत्म-शासन की क्रमिक प्राप्ति का इतिहास है।’
    यानी — संविधान भारतीय राष्ट्रवाद की परिपूर्ण परिणति है।

आलोचनात्मक दृष्टिकोण (Critical Shifts)

1980 के दशक में ‘Subaltern Studies’ आंदोलन के साथ इतिहासकारों ने यह सवाल उठाना शुरू किया कि क्या संविधान वास्तव में सबके हितों का प्रतिनिधित्व करता था।

  • Upendra Baxi ने Austin की आलोचना करते हुए कहा कि संविधान-निर्माण ‘सर्वसम्मति’ का नहीं बल्कि ‘राजनीतिक संघर्षों’ का परिणाम था।
  • Aditya Nigam ने संविधान सभा की बहसों को ‘बहु-स्वर’ (polyphonic) प्रक्रिया बताया। जिसमें कोई एक ‘राष्ट्रीय आवाज़’ नहीं थी।
  • Mithi Mukherjee ने संविधान को ‘न्याय’ (justice) की औपनिवेशिक परंपरा से जोड़ा और कहा कि यह राष्ट्रवाद नहीं बल्कि राज्यकेंद्रित कानूनी चिंतन से प्रेरित था।
  • Pratap Bhanu Mehta, Uday Mehta, और Rohit De ने संविधान को दार्शनिक, राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से पुनर्परिभाषित करने का प्रयास किया।
    • Pratap Mehta ने ‘संवैधानिक नैतिकता’ (constitutional morality) की अवधारणा पर बल दिया।
    • Uday Mehta ने कहा कि संविधान ने स्वतंत्रता की अवधारणा को ‘राष्ट्र-निर्माण’ की राजनीति के अधीन कर दिया।
    • Rohit De ने दिखाया कि आम लोग भी अदालतों के माध्यम से संविधान की व्याख्या में सहभागी बने।

दो ऐतिहासिक उदाहरण

  1. मुस्लिम लीग का बहिष्कार (1946):
    बी.एन. राउ ने चेतावनी दी थी कि मुस्लिम लीग की अनुपस्थिति संविधान सभा की वैधता को प्रभावित कर सकती है।
    लेकिन के.एम. मुंशी ने कहा कि सभा ‘राष्ट्र की संप्रभु इच्छा’ का प्रतिनिधित्व करती है, न कि केवल समुदायों का।
    यह टकराव संविधान निर्माण की कानूनी बनाम राजनीतिक दृष्टियों के बीच तनाव को दिखाता है।
  2. मौलिक अधिकारों पर मतभेद:डॉ. अंबेडकर ने ‘भय और अभाव से मुक्ति’ सहित सामाजिक समानता पर बल दिया।
    • के.एम. मुंशी ने अधिक ‘उदारवादी’ (liberal) और व्यक्ति-केंद्रित अधिकारों का मसौदा बनाया।
      अन्ततः मुंशी का मसौदा स्वीकार हुआ जिससे अंबेडकर की सामाजिक न्याय की दृष्टि कुछ हद तक सीमित रह गई।

एलंगोवन कहते हैं कि संविधान को केवल ‘राष्ट्रवादी सहमति’ का प्रतीक मानना गलत है।
‘गैर-राष्ट्रवादी दृष्टिकोण’ अपनाने से संविधान निर्माण की विभिन्न आवाज़ें, संघर्ष और अनसुनी कहानियाँ सामने आती हैं।

  • यह भी समझ आता है कि स्वतंत्र भारत के राजनीतिक संकटों की जड़ें शायद संविधान-निर्माण के दौर में ही थीं।
  • यह दृष्टिकोण भारतीय लोकतंत्र की सीमाओं और संभावनाओं दोनों को गहराई से समझने में मदद करता है।

The Making of the Indian Constitution: A Case for a Non-Nationalist Approach- Arvind Elangovan, History Compass, 2014

संविधान सभा की बहस से संबंधित मुख्य तथ्य

  • 1946 और 1950 के बीच सभा की बैठकें 165 दिनों तक चलीं।
  • सभा ने प्रारंभिक बहस पर 46 दिन और संविधान के मसौदे के खंड-दर-खंड विचार-विमर्श पर 101 दिन व्यतीत किये।
  • संविधान के मसौदे के भाग III में मौलिक अधिकारों पर एक खंड शामिल है। 16 दिनों तक इस पर बहस हुई। मौलिक अधिकारों पर खंड-दर-खंड चर्चा में 14% हिस्सा प्राप्त हुआ।
  • भाग IV में राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत शामिल थे। इन मुद्दों पर छह दिनों तक बहस हुई। निर्देशक सिद्धांतों पर खंड-दर-खंड चर्चा का 4% हिस्सा था।
  • भाग II में नागरिकता के बारे में प्रावधान हैं। इस पर बहस करने में तीन दिन लगे। इस भाग पर चर्चा का 2% समय खर्च हुआ।
  • मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने विधानसभा में सबसे ज्यादा बात की।
  • कुछ विधानसभा सदस्यों को मसौदा समिति में होना चाहिए था और विचार-विमर्श में सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिए था।
  • विधानसभा के कार्यकाल के दौरान 15 महिलाएँ सदस्य थीं, जिनमें से 10 ने बहस में भाग लिया। उन्होंने विधानसभा के विचार-विमर्श में 2% का योगदान दिया।
  • अम्मू स्वामीनाथन, बेगम ऐजाज़ रसूल और दक्षिणानी वेलायुधन ने मौलिक अधिकारों पर बहस में भाग लिया।
  • भारत में हंसा मेहता और रेणुका रे ने महिला अधिकारों के लिए बहस में भाग लिया।

संविधान सभा की आलोचना

कई विद्वानों और संविधान विशेषज्ञों ने विभिन्न आधारों पर संविधान सभा की आलोचना की है। ये आलोचनाएँ इस प्रकार हैं:

  • प्रतिनिधि निकाय नहीं:इसके सदस्यों का चुनाव सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर सीधे तौर पर नहीं किया गया था।
  • यह एक संप्रभु निकाय नहीं है: इसका निर्माण ब्रिटिश प्रस्तावों द्वारा किया गया था, तथा इसके सत्र ब्रिटिश सरकार की अनुमति से आयोजित किये जाते थे।
  • समय लेने वाला: संविधान बनाने में बहुत अधिक समय लगा, जबकि दूसरी ओर अमेरिकी संविधान 4 महीने में तैयार हो गया।
  • कांग्रेस का प्रभुत्व: ग्रैनविल ऑस्टिन ने  टिप्पणी की कि ‘संविधान सभा मूलतः एकदलीय देश में एकदलीय निकाय थी। सभा कांग्रेस थी, और कांग्रेस भारत थी।’
  • वकील-राजनेता प्रभुत्व: विद्वानों का मानना है कि वे संविधान सभा पर प्रभुत्व रखते थे और अन्य वर्गों के प्रतिनिधि नहीं हैं।
  • हिंदुओं का प्रभुत्व: विंस्टन चर्चिल ने  टिप्पणी की थी कि संविधान सभा ‘भारत में केवल एक प्रमुख समुदाय’ का प्रतिनिधित्व करती है।

इन आलोचनाओं के बावजूद, हम यह दावा कर सकते हैं कि हमारी संस्थापक संसद भारत के सर्वश्रेष्ठ लोगों का एक संग्रह थी, जिन्होंने भारतीय संविधान को सभी राष्ट्रीय संविधानों में सबसे अधिक विश्वसनीय और बुद्धिमान बनाने में मदद की।

निष्कर्ष (Conclusion)

संविधान सभा की बहसें भारत के लोकतंत्र की आत्मा और बौद्धिक धरोहर हैं।
ये बहसें केवल कानून बनाने की प्रक्रिया नहीं थीं-
बल्कि यह उस समय के भारत की विचारधारा, संघर्ष, आदर्श और विविधता का जीवंत चित्रण थीं।

इन बहसों से हमें यह समझने में मदद मिलती है कि-

  • संविधान के हर अनुच्छेद के पीछे क्या सोच और उद्देश्य थे,
  • किन मुद्दों पर मतभेद और समझौते हुए,
  • और भारत ने किस दिशा में अपने भविष्य की परिकल्पना की।

संविधान सभा की चर्चाएँ हमें यह सिखाती हैं कि

‘संविधान केवल एक विधिक दस्तावेज़ नहीं, बल्कि एक नैतिक और सामाजिक अनुबंध है- जो आज भी हमें जोड़ता है।’ इसलिए, इन बहसों को जानना न केवल इतिहास की दृष्टि से उपयोगी है,
बल्कि यह हमें लोकतांत्रिक चेतना, नागरिक जिम्मेदारी और संवैधानिक मूल्यों को गहराई से समझने की प्रेरणा भी देता है।


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