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संसदीय समितियां और उनका महत्व

हाल ही में लोकसभा स्पीकर ने एक मंच पर अपने व्यक्तव्य में कहा कि भारतीय संसदीय प्रथा में संसदीय समितियां लोकतांत्रिक व्यवस्था की रीढ़ हैं, जो न केवल कानून निर्माण प्रक्रिया को सशक्त करती हैं बल्कि शासन के प्रत्येक पहलु को गहराई और विवेचनात्मक दृष्टि से जांचने का अवसर प्रदान करती हैं।

भारतीय संसद के दोनों सदनों में बनी इन समितियों ने समय के साथ देश के प्रशासन, नीति और बजट की जांच के लिए अनुपम महत्व हासिल किया है, जिसमें उनका स्वरूप और कार्यप्रणाली लगातार विकसित हुई है।

संसदीय समितियों का इतिहास ब्रिटिश संसद की परंपरा से शुरू होता है, किंतु भारत में इसका औपचारिक आरंभ 1854 में भारतीय विधायी काउंसिल की स्थापना और 1856 में पहली सिलेक्ट कमेटी से हुआ. आधुनिक भारतीय संसद में पहली मुख्य स्थायी समिति “पब्लिक अकाउंट्स कमेटी” 1921 में बनी थी, जिसको संविधान के अनुच्छेद 105 और 118 के तहत अधिकार प्राप्त हैं. स्वतंत्रता के बाद समितियों की संख्या, प्रकार और उद्देश्यों का विस्तार नियमित रूप से हुआ, जहां 1993 में ‘डिपार्टमेंटली रिलेटेड स्टैंडिंग कमेटीज़’ (DRSCs) की स्थापना से कार्य की गति और गुणवत्ता में अप्रत्याशित वृद्धि हुई।

समितियों के दो प्रकार हैं: स्थायी समितियां (जिनमें वित्त से संबंधित PAC, एस्टीमेट्स कमेटी, पब्लिक अंडरटेकिंग्स कमेटी आदि शामिल हैं) और अस्थायी या एड-हॉक समितियां (जो विशिष्ट विधेयकों या विषयों पर विचार कर अपना कार्य पूरा कर भंग हो जाती हैं)।वर्तमान में लोकसभा व राज्यसभा में कुल 24 डिपार्टमेंटली रिलेटेड स्टैंडिंग कमेटीज़ कार्यरत हैं, जिनमें सदस्यों का चयन राजनीतिक ताकत के अनुपात में किया जाता है, जिससे प्रत्येक दल की प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होती है।इनके अतिरिक्त, सरकार द्वारा दिए गए आश्वासनों, उपविधियों, आचरण व विशेष नीति क्षेत्रों पर भी समितियां कार्यरत हैं, जो शक्तियों के विकेंद्रीकरण तथा व्यापक प्रशासनिक पारदर्शिता लाती हैं।

 

संसदीय समितियों की अवधारणा का मूल उद्देश्य विधायी कार्यों की त्वरित और प्रभावी जाँच करना एवं कार्यपालिका के निर्णयों की विवेचना करना है. ये समितियां अपेक्षाकृत छोटे समूह में काम करती हैं, जिसमें पक्ष-विपक्ष के सांसदों की सहभागिता रहती है, जिससे गैर-पक्षपातपूर्ण और सार्थक विचार-विमर्श सुनिश्चित होता है. संसद में सीमित समय की बाध्यता के चलते लगभग 60–70 दिन सालाना सभा बैठकों में खर्च होते हैं, जबकि समितियां वर्षों भर कार्यरत रहती हैं, जिससे निरंतरता बनी रहती है. इनमें गहन विचार, विशेषज्ञों से सलाह, जनसुनवाई, मुद्दा-विश्लेषण और सरकार से प्रश्न पूछने जैसी प्रक्रियाएं होती हैं. उदाहरणस्वरूप, पब्लिक अकाउंट्स कमेटी प्रत्येक वर्ष नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की रिपोर्टों का अवलोकन कर उन पर शासन से जवाब तलाशी करती है, जिससे बजटीय पारदर्शिता और न्यायिकता बनी रहती है.

विविध उदाहरणों में कई समितियों ने सरकार की कार्यप्रणाली और नीति निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाई है. उदाहरणस्वरूप, सार्वजनिक उपक्रम समिति ने राज्य के उपक्रमों के प्रदर्शन की समीक्षा की, स्वास्थ्य संबंधी समिति ने सरोगेसी (रेग्युलेशन) बिल 2016 का सूक्ष्म अध्ययन कर उसमें संशोधन की सिफारिशें दीं. ग्रामीण विकास समिति ने पंचायत राज संस्थाओं की बजट कटौती की लगातार निगरानी की और इसका संज्ञान लिया. 2019 में व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक पर संयुक्त संसदीय समिति की सिफारिशों के आधार पर सरकार ने कई ठोस संशोधन किए, जिससे कानून में विशेषज्ञता और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित हुई. 2024 में सार्वजनिक लेखा समिति ने चार मंत्रालयों की अतिरिक्त व्यय का सवाल उठाया, जिससे सार्वजनिक धन की निगरानी सुनिश्चित हुई.

समितियों की आवश्यकता का एक प्रमुख कारण विधायी कार्यों की जटिलता और बहुआयामी प्रकृति है. संसद में विषय-वस्तु के विशेषज्ञता के अभाव को समितियों की संरचना और प्रक्रिया से भरपूर विशेषज्ञ सलाह व तथ्यपरक अध्ययन मिलते हैं. यह प्रक्रिया न केवल सांसदों बल्कि आम नागरिकों, पेशेवरों और विषय विशेषज्ञों को भी प्रशासनिक निर्णयों और विधायिका में भागीदारी का अवसर देती है, जिससे पारदर्शिता, सार्वजनिक विश्वास एवं जवाबदेही का माहौल बनता है. समितियों के सुझाव सार्वजनिक रिकॉर्ड में दर्ज होते हैं, जिन पर विचार-विमर्श करने के लिए सरकार को बाध्य होना पड़ता है, भले ही उनकी सिफारिशें बाध्यकारी न हों.

परंतु, वर्तमान परिदृश्य में संसदीय समितियों के कार्य में कई चुनौतियां स्पष्ट हैं. सबसे बड़ी चुनौती बिलों का समितियों को रेफर करना अनिवार्य नहीं होना है, जिसके कारण 15वीं लोकसभा में 71% विधेयकों को समितियों को सौंपा गया था, जबकि 16वीं में यह प्रतिशत 28% और 17वीं में मात्र 16% रह गया है. इससे विधायिका की गहराई और सार्वजनिक भागीदारी प्रभावित होती है. इसके अतिरिक्त सांसदों की समिति बैठकों में औसत उपस्थिति लगभग 50% है, जो संसद बैठकों की 84% उपस्थिति से बहुत कम है. अनुसंधान व विशेषज्ञ समर्थन का अभाव भी समितियों के गहन अध्ययन व विवेचनात्मक क्षमता को सीमित करता है, जिससे जटिल नीतिगत मुद्दों का पर्याप्त विवेचन नहीं हो पाता. संसदीय समय, संसाधनों व कर्मियों की कमी, समिति के सदस्यों की अल्पावधि, साथ ही राजनीतिक दबाव व कार्यपालिका की हस्तक्षेप भी समिति व्यवस्था की कमजोरी के घटकों में शामिल हैं.

एक और गंभीर प्रवृत्ति कार्यपालिका द्वारा समितियों को कमजोर करने या उनकी सिफारिशों की अवहेलना करने की रही है. उदाहरण के तौर पर, पिछला दशक बड़े विधेयकों एवं बजट प्रस्तावों को समिति द्वारा जांचे बिना पारित करने की प्रवृत्ति बढ़ी है, जिससे कानून कार्यपालिका के नियंत्रण में सीमित गुणवत्ता व पारदर्शिता के साथ लागू हो जाते हैं. राजनीतिक नेतृत्व या बाहरी दबाव के कारण समितियों की निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं, जिससे उनके परिणामों को लागू करने में बाधाएं आती हैं. हाल ही में किसान विधेयकों की पारितीकरण प्रक्रिया में विपक्षी दलों व जनता की समिति में भेजने की मांग को अनदेखा कर सरकार ने विधेयकों को पारित किया, जो संसदीय प्रक्रिया और विधायी जवाबदेही के क्षय का उदाहरण है. विशेषज्ञों के अनुसार, यदि समितियों में बाहरी विशेषज्ञों की भर्ती और दीर्घकालिक संसाधन सुलभ कर दिए जाएं तो कार्यपालिका का हस्तक्षेप कम हो सकता है.

समसामयिक सिफारिशों की दृष्टि से कई सुधार आवश्यक हैं, जैसे: प्रत्येक विधेयक को समिति में अनिवार्य रूप से रेफर करना, जैसा कि यूनाइटेड किंगडम में होता है. समितियों को ठोस शोध और विशेषज्ञ सहायता उपलब्ध कराई जाए जिससे विधायिका का मूल्यवर्द्धन हो सके. सिफारिशों की अस्वीकृति के कारण सार्वजनिक रूप से स्पष्ट किए जाएं, जिससे पारदर्शिता बढे और राजनीतिक पक्षपातिता कम हो. कार्यपालिका या पार्टी नेतृत्व के हस्तक्षेप से मुक्त समितियां ही विधायी प्रणाली की प्रभावशीलता, उत्तरदायित्व और जनविश्वास को बनाए रख सकती हैं.

अंततः, संसदीय समितियों ने भारतीय लोकतंत्र में विधायिका का स्तर ऊँचा किया है—सरकारी नीतियों, कार्यक्रमों, वित्तीय वितरण और प्रशासन पर सतत निगरानी रखकर, विशेषज्ञता और सहभागीता को बढ़ाकर, तथा सरकार को जवाबदेह बनाकर. यद्यपि चुनौतियां गंभीर हैं, किंतु सार्थक सुधारों और संसाधनों के विस्तार से भारतीय संसदीय परंपरा में समितियों की भूमिका निश्चय ही और सशक्त तथा समावेशी बन सकती है


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