in , ,

सऊदी-पाक रक्षा समझौता:अरब – इस्लामिक नाटो का पहला कदम

सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच हाल ही में हुए रणनीतिक रक्षा समझौते ने खाड़ी और दक्षिण एशिया में एक नई रणनीतिक चर्चा को जन्म दिया है। यह समझौता, जिसे औपचारिक रूप से “स्ट्रैटेजिक म्यूचुअल डिफेंस एग्रीमेंट” या SMDA कहा जा रहा है, इस्लामिक जगत के दो महत्वपूर्ण देशों के आपसी रिश्ते और सुरक्षा साझेदारी को पहली बार विधिक रूप से मान्यता देता है। मध्य-पूर्व और दक्षिण एशिया के बदलते भू-राजनीतिक संकटों के बीच यह क़दम भारत, इजरायल, ईरान और अमेरिका समेत वैश्विक शक्तियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है और लंबे समय तक क्षेत्रीय समीकरणों को प्रभावित कर सकता है।

पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच यह रक्षा समझौता पहली बार नहीं है; दशकों से दोनों देशों के बीच सुरक्षा सहयोग चलता आया है। 1960 के दशक से पाकिस्तान की सेना की टुकड़ियाँ सऊदी अरब में तैनात रही हैं, जिसमें पाकिस्तानी सैनिक न केवल सुरक्षा संबंधी जिम्मेदारियां संभालते रहे, बल्कि सऊदी सुरक्षा बलों को प्रशिक्षण भी देते रहे। 1979 में मक्का की मस्जिद संकट के वक्त से लेकर हाल के दौर तक पाकिस्तानी सैनिकों की उपस्थिति अक्सर उल्लेखनीय रही है। वहीं सऊदी अरब आर्थिक दृष्टिकोण से हमेशा पाकिस्तान के लिए संकटमोचक रहा है, चाहे तेल आपूर्ति हो या आर्थिक सहायता। लेकिन जो रिश्ता अभी तक औपचारिक नहीं था, उसे अब SMDA समझौते ने ठोस संवैधानिक आधार दे दिया है।

इस समझौते का सबसे खास पहलू यही है कि दोनों पक्ष इसे ‘नाटो’ की तरह सामूहिक सुरक्षा की प्रतिज्ञा मानते हैं; यानी यदि किसी एक देश पर हमला होता है, तो दूसरा देश भी उसे खुद पर हमला मानेगा। यह शक्तिशाली बयान है, लेकिन इसकी व्यावहारिकता कई शर्तों, स्थितियों और परिस्थितियों पर निर्भर करती है। नाटो के 32 सदस्यीय गठबंधन में दीर्घकालिक सैन्य योजनाएं, साझा अभ्यास और संस्थागत संरचनाएं हैं, जबकि सऊदी-पाक रक्षा समझौता अभी केवल एक द्विपक्षीय राजनीतिक समझौता है। इसमें व्यावहारिक रूप से यह तय नहीं है कि किसी आपातस्थिति या हमले की आशंका में दोनों देशों की सेनाएँ किस तरह प्रतिक्रिया देंगी, क्या सैन्य हस्तक्षेप करेंगे या केवल विरोध दर्ज करेंगे, यह आने वाले समय में स्पष्ट होगा।

इस समझौते से यह सवाल भी खड़ा होता है कि क्या यह अरब-इस्लामिक नाटो की दिशा में पहला ठोस क़दम है। लंबे समय से इस्लामिक देशों के सामूहिक सैन्य गठबंधन की चर्चा होती रही है, जिससे ईरान, इजरायल और भारत जैसी क्षेत्रीय शक्तियों के लिए खतरे का आभास उभरता रहा है। विशेष रूप से जब पाकिस्तान एक मात्र मुस्लिम बहुल परमाणु शक्ति है और सऊदी अरब के संदर्भ में बार-बार न्यूक्लियर छाते (न्यूक्लियर अम्ब्रेला) की संभावना जताई जाती रही है, तो इस गठन को हल्के में लेना सही नहीं होगा। हालांकि इस समझौते में परमाणु हथियारों का सीधा उल्लेख नहीं है, लेकिन यह परोक्ष संदेश अवश्य देता है कि सऊदी अरब कठिन परिस्थितियों में परमाणु शक्ति वाले सहयोगी से सुरक्षा की अपेक्षा कर सकता है। कई पश्चिमी और अरब विश्लेषकों का मानना है कि यह केवल एक सैन्य समझौता नहीं, बल्कि क्षेत्रीय शक्ति संतुलन को फिर से स्थापित करने की कोशिश भी है।

पाकिस्तान को इससे क्या लाभ हो सकता है, इसकी व्याख्या करते हुए कहा जा सकता है कि मौजूदा समय में गंभीर आर्थिक संकट, राजनीतिक अस्थिरता और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान को लगातार चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में सऊदी अरब जैसा आर्थिक और राजनीतिक रूप से ताकतवर साझीदार उसके लिए ‘ग्रेस कार्ड’ की भांति काम करेगा। न सिर्फ आर्थिक सहायता और निवेश में बढ़ोतरी की उम्मीद रहेगी, बल्कि क्षेत्रीय स्तर पर सऊदी की खुली सैन्य और राजनीतिक सरपरस्ती पाकिस्तान को भारत, अफगानिस्तान और ईरान जैसे पड़ोसी देशों के संदर्भ में मनोवैज्ञानिक और रणनीतिक बढ़त दे सकती है। खासतौर पर ओआईसी (ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन) में पाकिस्तान-सऊदी धुरी मजबूत होगी, जिससे कश्मीर जैसे द्विपक्षीय मुद्दों को ज्यादा खुलकर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाने का मौका मिलेगा।

भारत के नज़रिए से देखा जाए, तो यह एक ऐसा घटनाक्रम है जिसे दिल्ली अत्यंत सावधानी और सतर्कता से देखता है। भारत और सऊदी अरब के बीच पिछले एक दशक में रणनीतिक संबंधों में ज़बरदस्त गहराई आई है। सऊदी अरब भारत का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है, वहां प्रवासी भारतीयों की संख्या लाखों में है, और हाल के वर्षों में प्रधानमंत्री की कई सफल यात्राएँ और उच्चस्तरीय रक्षा-आर्थिक संवाद हुए हैं। दोनों देशों ने आतंकवाद के खिलाफ ज़ीरो टॉलरेंस नीति को ज़ाहिर किया है और भारतीय ऊर्जा सुरक्षा के लिए सऊदी सबसे अहम स्रोतों में है। लेकिन सऊदी-पाक रक्षा समझौते से भारत के समक्ष यह स्पष्ट प्रश्न खड़ा होता है कि क्या यदि सीमा पर भारत और पाकिस्तान के बीच सैन्य तनाव या युद्ध होता है, तो सऊदी की भूमिका क्या रहेगी? क्या भारत के खिलाफ प्रत्यक्ष या परोक्ष सैन्य सहयोग मिलेगा या फिर सऊदी अरब अपने आर्थिक और राजनीतिक हितों की रक्षा के लिए संतुलन बनाए रखेगा?

भारत ने इस समझौते पर संभली और संतुलित प्रतिक्रिया दी है। विदेश मंत्रालय ने इस समझौते को लंबे समय से चले आ रहे सुरक्षा संवाद का औपचारिक रूप कहा है और साफ कर दिया है कि भारत अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। विश्लेषकों की राय है कि इससे फिलहाल भारत-सऊदी संबंधों पर प्रत्यक्ष असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि दोनों देश गहरे आर्थिक-रणनीतिक सहयोग में बंधे हैं। इसके बावजूद यदि क्षेत्र में कोई विस्फोटक स्थिति बनती है, तो भारत को नई चुनौतियों, चौंकाने वाले समीकरणों और अपने कूटनीतिक विकल्पों पर तेज़ी से काम करने की आवश्यकता होगी।

इस समझौते के इजरायल पर असर को भी व्यापकता से समझना आवश्यक है। ईरान और इजरायल के साथ सऊदी रिश्ते पहले से तनावपूर्ण हैं, और हाल में इजरायल की सैन्य कार्रवाइयों से इस्लामी जगत में रोष बढ़ा है। पाकिस्तान और सऊदी अरब का निकट आना, और समवेत रूप में किसी तीसरे देश को खतरा होने की बात, इजरायल के लिए चिंता का विषय जरूर बन सकता है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि दोनों देशों का कट्टरपंथी वर्ग फिलिस्तीन और ग़ाज़ा मुद्दे पर मुखर है। हालाँकि सऊदी अरब खुलकर इजरायल विरोधी मोर्चा खोलने से अभी बचता रहा है ताकि पश्चिमी देशों, खासकर अमेरिका को नाराज़ न करे, लेकिन अगर मुस्लिम देशों में कोई सैन्य गठबंधन आकार लेता है, तो इजरायल की भविष्य की रणनीति पर इसका सीधा प्रभाव पड़ेगा।

इस पूरी प्रक्रिया में एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि अमेरिकी हितों पर प्रश्नचिह्न बनता दिख रहा है। लंबे समय से खाड़ी के देशों की सुरक्षा अमेरिकी छत्रछाया में रही है, लेकिन हाल के वर्षों में अमेरिका की भूमिका सीमित होती जा रही है और खाड़ी के देशों का परंपरागत भरोसा डगमगाया है। सऊदी अरब अब बहु-ध्रुवीय विदेश नीति अपना रहा है, जिसमें चीन, रूस, तुर्की और पाकिस्तान के साथ-साथ भारत भी अहम कड़ी है। इसका बड़ा कारण ईरान का क्षेत्रीय महत्वाकांक्षी होना, इजरायल का उग्र होना और अंतर-अरब रंजिशों का फिर सिर उठाना है।

आगे की राह में संभावना यही है कि यह समझौता मुस्लिम दुनिया, खासतौर पर खाड़ी और दक्षिण एशिया की राजनीति में आगे अरब-इस्लामिक नाटो की नींव रख सकता है। यह गठबंधन OIC या दूसरे इस्लामिक मंचों के मुकाबले कहीं ज्यादा व्यवहारिक, सैन्य और रणनीतिक हो सकता है। अगर इसे और खाड़ी देशों जैसे यूएई, क़तर, मिस्र, तुर्की आदि का भी समर्थन मिलता है, तो यह क्षेत्रीय भू-राजनीति की तस्वीर ही बदल सकता है।

हालांकि, अभी तत्काल इस गठबंधन की व्यवहारिकता, सैन्य एकीकरण, साझा रणनीतिक उद्देश्यों और नेतृत्व के मुद्दों पर कई सवाल हैं। सभी मुस्लिम देश एक जैसे रणनीतिक हित साझा नहीं करते; देशों के बीच आपसी अविश्वास और अंतर्विरोध हावी हैं। इसके अलावा, ईरान और तुर्की जैसे बड़े इस्लामिक देश इसमें किस भूमिका में शामिल होंगे, यह भविष्य के घटनाक्रम पर निर्भर करेगा। कई समीक्षकों का यह भी कहना है कि पारंपरिक अरब प्रतिद्वंद्विता, संप्रभुता और नेतृत्व विवाद इस गठबंधन की राह में सबसे बड़ी बाधा हैं।

सारांशतः, सऊदी-पाक रक्षा समझौता महज दो देशों के रिश्तों का नया अध्याय नहीं है, बल्कि यह आने वाले वर्षों में पूरे इस्लामी जगत की सुरक्षा, रणनीति और क्षेत्रीय व्यवस्थाओं के पुनर्निर्माण की दिशा में पहला बड़ा कदम हो सकता है। भारत, इजरायल और अमेरिका जैसे देशों के लिए यह स्पष्ट संकेत है कि उन्हें आने वाले समय के लिए अपने कूटनीतिक, रणनीतिक और सुरक्षा विकल्पों को तेज़ी से पुनर्परिभाषित करना होगा। पाकिस्तान के लिए यह एक नई ऊर्जा, आर्थिक और कूटनीतिक समर्थन का रास्ता हो सकता है, वहीं सऊदी अरब के लिए क्षेत्रीय नेतृत्व की पुनः स्थापना का सुनहरा अवसर। यद्यपि दिखावे और व्यवहारिकता के बीच कई बार खाई होती है, लेकिन भू-राजनीति में प्रतीकात्मक बयान और जुड़ाव भी भविष्य के ठोस घटनाक्रमों की नींव बन जाते हैं। इस लिहाज से यह समझौता अरब-इस्लामिक नाटो की ओर पहला बड़ा क़दम कहा जा सकता है, जिसकी प्रतिध्वनि मध्य-पूर्व, दक्षिण एशिया और पूरी अंतरराष्ट्रीय राजनीति में महसूस की जाती रहेगी।

What do you think?

स्टैनली आई. बेन की A Theory of Freedom

विवेकानंद और गांधी: वैश्विक सामंजस्य