• सबऑल्टर्न स्टडीज़ की शुरुआत 1980 के दशक की शुरुआत में हुई। इसे रानाजीत गुहा और कुछ युवा इतिहासकारों ने शुरू किया। इसका लक्ष्य था कि भारतीय इतिहास को सिर्फ़ बड़े नेताओं, अंग्रेज़ अफसरों और अमीर वर्ग की नज़र से न लिखा जाए, बल्कि किसान, मज़दूर, आदिवासी, दलित, औरतें – यानी हाशिये पर रहने वाले लोग भी इतिहास का हिस्सा बनें।
• सुमित सरकार, जो शुरू में इस परियोजना से जुड़े थे, बाद में इसके सबसे बड़े आलोचक बने। उन्होंने कहा कि यह प्रोजेक्ट धीरे-धीरे अपनी असली दिशा खो बैठा और असल“subaltern” (हाशिये पर रहने वाले लोग) इसमें से गायब हो गए। उन्होंने इस स्थिति को कहा – “The Decline of the Subaltern” (सबऑल्टर्न का पतन)।
शुरुआती सबऑल्टर्न स्टडीज़ – किसानों और मज़दूरों की राजनीति
• पहले खंड (Volumes I–II, 1982–83) में ज़्यादातर लेख किसानों और मज़दूरों पर थे।
• रानाजीत गुहा ने लिखा – किसान विद्रोह सिर्फ़ “कानून-व्यवस्था की समस्या” नहीं थे, बल्कि उनमें अपनी राजनीतिक समझ और चेतना थी।
• लेखों में मार्क्सवादी शब्द इस्तेमाल होते थे जैसेclass,exploitation, hegemony।
• किसानों के छोटे-छोटे विद्रोहों को एक नई नज़र से देखा गया: वे औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ़ संघर्ष थे।
• सुमित सरकार मानते हैं कि यह दौर सबऑल्टर्न स्टडीज़ का सबसे मज़बूत और सार्थक समय था। धीरे-धीरे आया बदलाव समय के साथ Subaltern Studies का फोकस बदलने लगा:
पश्चिमी सिद्धांतों का प्रभाव
• Edward Said का Orientalism और Michel Foucault का power/knowledge का गहरा असर हुआ।
• अब शोध इस बात पर होने लगा कि औपनिवेशिक सत्ता ने भाषा और ज्ञान के ज़रिए कैसे नियंत्रण किया।
Class से Culture की ओर झुकाव
• किसानों और मज़दूरों की ठोस परिस्थितियाँ (गरीबी, भूख, ज़मींदारी शोषण) कम दिखाई देने लगीं। ज़्यादातर संस्कृति, पहचान और भाषा पर चला गया।
सुमित सरकार की मुख्य आलोचना
वर्ग (Class) का क्षरण
• पहले किसानों और मज़दूरों को वर्ग (class) के आधार पर समझा जाता था।
• अब उन्हें ज़्यादातर हिन्दू या मुस्लिम जैसे धार्मिक समुदायों में बाँटकर देखा जाने लगा।
• इससे असली आर्थिक शोषण और वर्गीय संघर्ष गायब होने लगे।
• उदाहरण: अगर किसान विद्रोह को सिर्फ़ धार्मिक पहचान से समझेंगे, तो उसमें छिपा भूख, कर, कर्ज़ और शोषण का सच सामने नहीं आएगा।
सबऑल्टर्न का गायब हो जाना
• शुरुआत में Subaltern Studies ने सबऑल्टर्न (गरीब, किसान, मज़दूर, दलित) को इतिहास का नायक बनाया।
• लेकिन बाद में, लेखों में वही सबऑल्टर्न कहीं नहीं रहे।
• उनकी जगह औपनिवेशिक विमर्श, भाषा, पश्चिमी सिद्धांत मुख्य हो गए।
• सरकार कहते हैं कि यह बहुत बड़ा विरोधाभास है नाम तो है Subaltern Studies, लेकिन असली subaltern इसमें कम और थ्योरी ज़्यादा हो गई।
इतिहास का “भाषा का खेल” बन जाना
• Postmodern विचारों ने कहा इतिहास कोई ठोस सच नहीं, बल्कि सिर्फ़ भाषा और विमर्श पर आधारित है।
• सरकार की आपत्ति अगर ऐसा मान लिया जाए, तो असली घटनाएँ जैसे अकाल, विद्रोह, मजदूरी, ज़मींदारी शोषण सब गायब हो जाते हैं।
• इतिहास सिर्फ़ बौद्धिक खेल रह जाएगा, आम जनता की ज़िंदगी से कटकर।
राष्ट्रवाद की आलोचना और खतरा
• Subaltern Studies ने शुरू में राष्ट्रवादी इतिहास को चुनौती दी थी, जो केवल बड़े नेताओं (गांधी, नेहरू) की राजनीति दिखाता था।
• लेकिन सरकार चेताते हैं: अब कहीं ऐसा तो नहीं कि राष्ट्रवाद की आलोचना करते-करते हम औपनिवेशिक शोषण की असली सच्चाई को ही कमतर मानने लगें?
• अगर सब कुछ केवल “विमर्श” का परिणाम बताया जाएगा, तो औपनिवेशिक शासन की भौतिक हिंसा और लूट छिप जाएगी।
4. वैश्विक अकादमिक प्रभाव
• सुमित सरकार कहते हैं कि यह बदलाव केवल भारत तक सीमित नहीं है।
• 1980–90 के दशक में पश्चिमी विश्वविद्यालयों में Postmodernism और Poststructuralism का बहुत ज़्यादा प्रभाव था।
• Subaltern Studies के कई लेखक (जैसे पार्थ चटर्जी, दीपेश चक्रवर्ती, गायत्री स्पिवाक) इन वैश्विक बहसों से जुड़े थे।
• नतीजा यह हुआ कि Subaltern Studies भारतीय जनता की जगह पश्चिमी अकादमिक फैशन का हिस्सा बन गई
निष्कर्ष
• Subaltern Studies ने शुरुआत में इतिहास को नई दिशा दी थी उसने गरीब और हाशिये के वर्गों को आवाज़ दी थी।
• लेकिन समय के साथ यह अपनी राह से भटक गया।
• अब इसमें असली जनता नहीं, बल्कि पश्चिमी सिद्धांत और भाषा की चर्चा बची है।
• यही कारण है कि उन्होंने कहा “The Decline of the Subaltern”।
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