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स्मृतियों से ओझल राष्ट्रवाद

The Nationalism We Forgot- Yogendra Yadav

राष्ट्रवाद एक ऐसा विषय है जो समय-समय पर चर्चा का केंद्र बनता रहा है। हाल के वर्षों में, हमने देखा है कि कैसे विभिन्न देशों में राष्ट्रवाद की भावना को बढ़ावा दिया गया है। योगेन्द्र यादव के अनुसार, वर्तमान भारत में संकीर्ण राष्ट्रवाद बढ़ रहा है जो स्वतंत्रता संग्राम की आत्मा में मौजूद समावेशी, बहुलतावादी राष्ट्रवाद की अवधारणा को दबाते हुए आगे बढ़ रहा जबकि समावेशी, बहुलतावादी राष्ट्रवाद को पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता है।

योगेन्द्र यादव – भारतीय राष्ट्रवाद (nationalism), जो कभी विविधता और नागरिक अधिकारों पर आधारित एक समावेशी विचार था, अब एक संकीर्ण और असहिष्णु रूप लेता जा रहा है।

राष्ट्र किसे कहते है?

राष्ट्र (Nation) कोई भौगोलिक, राजनीतिक या जातीय इकाई मात्र नहीं है, बल्कि यह एक मानसिक समुदाय होता है, जिसमें लोग एक साझा इतिहास, भाषा, संस्कृति, परंपरा और मूल्य प्रणाली के आधार पर स्वयं को एक समुदाय के रूप में पहचानते हैं। राष्ट्र की इस अवधारणा को बेंडिक्ट एंडरसन ने कल्पित समुदाय (Imagined Community) कहा है।

  • राष्ट्र एक सामाजिक रचना (social construct) है।
  • इसमें सांस्कृतिक एकरूपता, ऐतिहासिक चेतना और भावनात्मक एकता होती है।
  • इसका आधार समान मूल्यों, संघर्षों, और विश्वासों में होता है।

राष्ट्रवाद क्या है?

राष्ट्रवाद (Nationalism) एक वैचारिक, राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन है जो यह विश्वास करता है कि एक विशेष सांस्कृतिक या जातीय समूह को अपना स्वतंत्र राष्ट्र-राज्य प्राप्त होना चाहिए। यह एक भावना है जो राष्ट्र की पहचान, उसके हितों, और संप्रभुता की रक्षा को सर्वोच्च मानती है।

  • यह एक राजनीतिक सिद्धांत है जो यह मानता है कि राष्ट्र और राज्य को एक होना चाहिए।
  • यह आधुनिक युग में मुख्यतः स्वतंत्रता आंदोलनों और औपनिवेशिक विरोध में उभरा।
  • राष्ट्रवाद विभिन्न रूपों में होता है: सांस्कृतिक, राजनीतिक, धार्मिक, उदार या उग्र।

राष्ट्र एक भावनात्मक और सांस्कृतिक संरचना है जबकि राष्ट्रवाद एक राजनीतिक और वैचारिक अभिव्यक्ति है जो राष्ट्र की रक्षा, उसका निर्माण और विस्तार करने का प्रयास करता है। दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे से गहराई से जुड़ा हुआ है परंतु दोनों की प्रकृति में मूलभूत अंतर भी हैं।

भारत में राष्ट्रीयता

भारत में राष्ट्रीयता एक जटिल और बहुआयामी अवधारणा है, जो ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक कारकों से प्रभावित होती है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: भारत की राष्ट्रीयता का विकास उपनिवेशी शासन के खिलाफ संघर्ष के दौरान हुआ। स्वतंत्रता संग्राम ने भारतीयों में एकजुटता की भावना को बढ़ावा दिया, जिससे एक साझा पहचान का निर्माण हुआ। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं ने इस भावना को मजबूत किया।

संविधान और विविधता: भारत का संविधान विभिन्नता में एकता का प्रतीक है। यह विभिन्न भाषाओं, धर्मों और संस्कृतियों को मान्यता देता है, जो भारतीय राष्ट्रीयता का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। संविधान ने नागरिकों को समान अधिकार और स्वतंत्रता प्रदान की, जिससे एक समावेशी राष्ट्रीयता का निर्माण हुआ।

राजनीतिक प्रभाव: भारतीय राजनीति में राष्ट्रीयता का एक महत्वपूर्ण स्थान है। विभिन्न राजनीतिक दलों ने राष्ट्रीयता के अपने-अपने दृष्टिकोण विकसित किए हैं। कुछ दलों ने सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को प्राथमिकता दी है, जबकि अन्य ने धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय पर जोर दिया है।

  • आज के भारत में राष्ट्रीयता को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जैसे कि जातिवाद, धार्मिक असहिष्णुता और क्षेत्रीय असंतोष। ये कारक कभी-कभी राष्ट्रीय एकता को कमजोर कर सकते हैं और सामाजिक तनाव पैदा कर सकते हैं।
  • भारत की राष्ट्रीयता का दृष्टिकोण अन्य देशों के साथ सहयोग और संबंधों को प्रभावित करता है।
  • क्योंकि यह न केवल देश के भीतर एकता को बढ़ावा देती है, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी भारत की पहचान को आकार देती है।

राष्ट्रीयता में संविधान की भूमिका

राष्ट्रीयता किसी व्यक्ति की उस भावना को दर्शाती है, इस भावना को दिशा देने और आधार प्रदान करने का कार्य संविधान करता है। संविधान किसी भी देश का सर्वोच्च कानून होता है, जो केवल शासन की रूपरेखा नहीं तय करता, बल्कि यह भी स्पष्ट करता है कि उस देश में कौन नागरिक है, नागरिकों के क्या अधिकार हैं, और राष्ट्र के भीतर समानता और समावेशन कैसे सुनिश्चित किया जाएगा।

  • राष्ट्रीयता का पहला और सबसे स्पष्ट आयाम है कानूनी नागरिकता (Legal Nationality)। संविधान यह तय करता है कि कौन व्यक्ति उस देश का नागरिक होगा।
    भारत के संविधान के अनुच्छेद 5 से 11 तक यह स्पष्ट किया गया है कि नागरिकता किन आधारों पर मिलेगी: जैसे जन्म से, वंशानुगत रूप से (अभिभावकों के आधार पर), प्रवास के बाद स्वीकृति (naturalization) आदि। यह स्पष्टता नागरिकता के विवादों को रोकने में मदद करती है और यह तय करती है कि राष्ट्र के साथ कानूनी रूप से कौन जुड़ा है।
  • एक समावेशी राष्ट्रीयता का निर्माण तभी हो सकता है जब सभी नागरिकों को समान अधिकार मिलें। संविधान अनुच्छेद 14 के तहत “कानून के समक्ष समानता” और अनुच्छेद 15-16 के तहत “भेदभाव निषेध” की गारंटी देता है।
  • भारत जैसे बहुलतावादी देश में संविधान ही वह सेतु है जो विविधताओं को एक राष्ट्रीय पहचान में बदलता है। यह अलग-अलग भाषाओं, संस्कृतियों और धर्मों को मान्यता देकर, उन्हें भारत की एकता का हिस्सा बनाता है।
    संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है, जो इस बात का प्रतीक है कि राष्ट्रीयता एक समानता में विविधता (Unity in Diversity) की भावना पर आधारित होनी चाहिए।
  • कई बार राष्ट्रीयता के नाम पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता और असहमति को दबाने की कोशिश होती है। संविधान इस असंतुलन को रोकता है।
    यह सुनिश्चित करता है कि राष्ट्र के नाम पर नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन न हो—जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धार्मिक स्वतंत्रता, और संघ बनाने का अधिकार। इससे स्पष्ट होता है कि एक सच्चा राष्ट्रवाद वह है जो संविधान के मूल्यों का सम्मान करता है।
  • संविधान केवल नागरिकता देने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह नागरिकता छोड़ने, बदलने या छिनने के भी नियम तय करता है।
  • संविधान राष्ट्रीयता का मार्गदर्शक है। यह न केवल यह तय करता है कि हम किस राष्ट्र से संबंधित हैं, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि वह राष्ट्र सबका है। संविधान ही वह नींव है जिस पर एक समावेशी, न्यायपूर्ण और उत्तरदायी राष्ट्रीयता खड़ी की जा सकती है।

राष्ट्रीयता का वैश्विक सहयोग पर प्रभाव

  • राष्ट्रीयता एक ओर तो देश के अंदर एकता बढ़ा सकती है, लेकिन अगर यह बहुत ज्यादा हो जाए, तो दूसरे देशों के साथ मिलकर काम करना कठिन हो जाता है। इसलिए ज़रूरी है कि हम राष्ट्रीयता के साथ-साथ साझेदारी और सहयोग को भी अपनाएं।
  • राष्ट्रीयता यानी जब कोई देश अपने हितों को सबसे पहले रखता है। यह भावना देश के लिए अच्छी हो सकती है, लेकिन कई बार यह दूसरे देशों के साथ मिलकर काम करने में रुकावट बन सकती है।जैसे जब COVID-19 महामारी आई, तब अमीर देशों ने पहले अपने लोगों को वैक्सीन देने पर ज़ोर दिया। उन्होंने वैक्सीन जमा कर ली और गरीब देशों को वैक्सीन मिलने में देरी हुई। इससे दुनिया भर में वायरस को रोकने में मुश्किलें आईं।
  • महामारी ने बताया कि बीमारियों से लड़ने के लिए सभी देशों को एक साथ आना ज़रूरी है। लेकिन उस समय, कुछ देश केवल अपने फायदे की सोचने लगे। इससे वैश्विक सहयोग कमजोर हुआ।
  • जब देश अपनी ही कंपनियों और फैक्ट्रियों को बढ़ावा देते हैं और बाहरी देशों से सामान लेना कम कर देते हैं, तो इससे वैश्विक व्यापार में रुकावट आती है। दुनिया की आपूर्ति श्रृंखला (supply chain) टूट सकती है।
  • राष्ट्रीयता में अक्सर अपनी संस्कृति और पहचान को सबसे ऊपर रखा जाता है। इससे दूसरे देशों या समुदायों के साथ जुड़ने में हिचकिचाहट हो सकती है। जलवायु परिवर्तन जैसे बड़े मुद्दों पर मिलकर काम करने की इच्छा भी कम हो सकती है।
  • जैसे-जैसे दुनिया में राष्ट्रीयता बढ़ रही है, वैसे-वैसे वैश्विक सहयोग मुश्किल होता जा रहा है। अगर हर देश सिर्फ अपने बारे में सोचेगा, तो विश्व की बड़ी समस्याओं को सुलझाना बहुत कठिन हो जाएगा।
  • इसलिए हमें एक ऐसा तरीका अपनाना होगा, जिसमें राष्ट्रहित और वैश्विक भलाई दोनों का संतुलन बना रहे।

भारतीय राष्ट्रवाद की अवधारणा  

टैगोर का राष्ट्रवाद

  • टैगोर के अनुसार, राष्ट्रवाद वह रूप है जो एक जनसमूह उस समय ग्रहण करता है जब वह किसी मशीनी उद्देश्य की पूर्ति हेतु संगठित होता है (1917)।
  • वे इसे मानव आत्मा और प्रकृति से विहीन प्रणाली मानते थे।
  • टैगोर का राष्ट्रवाद के प्रति गहरा आध्यात्मिक और दार्शनिक दृष्टिकोण था। वह यूरोप में राष्ट्रवाद के उदय को लेकर बहुत चिंतित थे, खासकर इसलिए क्योंकि इसमें प्रभुत्व और शक्ति पर जोर दिया जाता था।
  • उनका मानना ​​था कि राष्ट्रवाद अक्सर एकता के बजाय विभाजन का कारण बनता है, जिसके परिणामस्वरूप विवाद, युद्ध और व्यक्ति की स्वतंत्रता का नुकसान होता है।
  • टैगोर भारत द्वारा राष्ट्रवाद के पश्चिमी विचारों को लापरवाही से अपनाने के बारे में विशेष रूप से मुखर थे। भारत की आध्यात्मिक विरासत, जो विविधता में एकता और मतभेदों का जश्न मनाने पर जोर देती है, उनके अनुसार, देश को मजबूत बनाती है।
  • टैगोर का मानना ​​था कि अगर राष्ट्रवाद को सख्त और एकरूप तरीके से लागू किया गया तो भारत के विविधतापूर्ण समाज को नुकसान होगा।

राष्ट्रवाद बनाम मानवतावाद

  • टैगोर ने राष्ट्रवाद के बजाय मानवतावाद के मूल्य पर ध्यान केंद्रित किया, जो राष्ट्रवाद की चर्चा में उनके सबसे महत्वपूर्ण योगदानों में से एक है। उन्होंने कहा कि अपने देश के प्रति प्रेम से दूसरे लोगों के प्रति घृणा नहीं पैदा होनी चाहिए।
  • टैगोर के अनुसार, सच्ची देशभक्ति आक्रामक गर्व या श्रेष्ठता के बजाय अंतरराष्ट्रीय भाईचारे की भावना को बढ़ावा देने के बारे में थी।

मन की स्वतंत्रता

टैगोर का मानना ​​था कि मानसिक स्वतंत्रता राजनीतिक स्वतंत्रता से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है। यूरोपीय-केंद्रित स्वतंत्रता अवधारणाओं के कारण अब हमारे देश में राजनीतिक स्वतंत्रता को स्वतंत्रता आंदोलन का अंतिम लक्ष्य माना जाता है।

  • यूरोप में अंध विश्वास के परिणामस्वरूप स्वामित्व की इच्छा बढ़ेगी।
  • परिणामस्वरूप, हमें इस संकीर्णता को त्यागना होगा और मानसिक स्वतंत्रता की अपनी आंतरिक और बाह्य अभिव्यक्तियों में अधिक व्यापक बनना होगा।
  • अंत में, यह मानसिक स्वतंत्रता मानव आत्मा और सामान्य रूप से जीवन के साथ संतुलन पाती है। इसके अतिरिक्त, उनका मानना ​​था कि केवल एक ही इतिहास है, मनुष्य का इतिहास, और अन्य सभी इतिहास इस महान इतिहास के केवल भाग हैं।
  • जो राष्ट्र प्रेम, करुणा और आध्यात्मिक सहयोग दिखाते हैं, वे किसी भी युग में अपनी स्थायी उपस्थिति स्थापित कर सकते हैं।
  • राष्ट्रवाद, चाहे भारतीय हो या अन्य, एकीकृत सामाजिक वस्तुओं और आदर्शों के संयोजन से ज़्यादा कुछ नहीं है। यह प्रबंधनीय प्रगति होनी चाहिए जो अंदर से शुरू हो।

भारत के लिए टैगोर का दृष्टिकोण

  • भारत के लिए टैगोर का दृष्टिकोण उनके राष्ट्रवाद के विचार से बहुत निकटता से जुड़ा हुआ था। उन्होंने एक ऐसे भारत को देखा जो न केवल औपनिवेशिक वर्चस्व से मुक्त था बल्कि संकीर्ण सोच वाले राष्ट्रवाद की सीमाओं से भी मुक्त था।
  • अपनी समृद्ध सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपराओं, समानता और करुणा में निहित राष्ट्रवाद के साथ, टैगोर ने एक ऐसा भारत देखा जो दुनिया के लिए एक मिसाल कायम करेगा। टैगोर ने पश्चिमी संस्कृति की नकल करने के बजाय भारतीयों से अपनी पहचान और परंपराओं को स्वीकार करने का आग्रह किया।
  • केवल राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए लड़ने के बजाय, टैगोर का राष्ट्रवाद आध्यात्मिक जागृति और आत्म-साक्षात्कार पर केंद्रित था। उनका मानना ​​था कि नैतिकता, सत्य और अहिंसा के मूल्यों को भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का आधार बनना चाहिए।

बाल गंगाधर तिलक के राष्ट्रवाद विचार

तिलक का राष्ट्रवाद एक ऐसे राष्ट्रवादी दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करता है जो स्वतंत्रता, आत्म-निर्भरता और भारतीय संस्कृति की पुनर्स्थापना पर जोर देता है। उनका मानना था कि भारत को एक शक्तिशाली और एकीकृत राष्ट्र के रूप में संगठित होना चाहिए। उनके विचारों में, “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है” नारा, जो स्वतंत्रता की मांग करता है, शामिल है। वे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख नेता थे और उनकी विचारधारा ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को प्रेरित किया।

तिलक के राष्ट्रवाद के मुख्य पहलू

  • स्वराज
  • भारतीय संस्कृति की पुनर्स्थापना
  • सामंजस्यपूर्ण विकास
  • एकता और संगठन
  • बहिष्कार और स्वदेशी आंदोलन
  • धार्मिक प्रतीकों का उपयोग

उनका राष्ट्रवाद स्वामी विवेकानंद की भाँति पुनरूत्थानवादी था। वे चाहते थे कि भारत एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में संगठित हो, एक हो और एक प्रचण्ड एकीकृत और केन्द्रीय शक्ति के रूप में एक ही धरा में बहे।

राष्ट्रवाद के सिद्धांत

राष्ट्रवाद कोई एकल विचारधारा नहीं है, बल्कि यह अनेक अनुभवों और संघर्षों से उपजी बहुआयामी अवधारणा होती है। विभिन्न युगों और क्षेत्रों में इसके सिद्धांत अलग-अलग रूपों में सामने आते हैं कभी यह मुक्ति का साधन होता है, तो कभी दमन का। इन सिद्धांतों के माध्यम से हम न केवल इतिहास की घटनाओं को समझते हैं बल्कि वर्तमान राजनीति की जड़ों को भी पहचानते हैं।

वर्तमान राष्ट्रवाद के दो घटक है:

  1. आधुनिकतावादी दृष्टिकोण (Modernist Perspective): यह दृष्टिकोण मानता है कि राष्ट्र और राष्ट्रवाद आधुनिक युग (विशेष रूप से 18वीं शताब्दी के बाद) की उपज हैं और इनका अस्तित्व आधुनिक औद्योगिक समाज, जनतंत्र, शिक्षा प्रणाली और राज्य की केंद्रीयता से जुड़ा है।
  2. पूर्व-आधुनिक दृष्टिकोण (Primordialist Perspective):यह दृष्टिकोण मानता है कि राष्ट्र और राष्ट्रवाद प्राचीन, प्राकृतिक और जैविक रूप से मौजूद रहे हैं। यह मनुष्य की मूल पहचान, संस्कृति, रक्त संबंध, भाषा और परंपराओं से जुड़ा होता है।

प्रमुख राष्ट्रवादी सिद्धांत और विचारक

सिद्धांतप्रमुख विचारकमुख्य तर्क या कथन
आविष्कृत परंपरा का सिद्धांत (Imagined Communities)बेंडिक्ट एंडरसनराष्ट्र एक “कल्पित समुदाय” है, जहाँ लोग एक-दूसरे को जाने बिना साझा भावना में जुड़ते हैं।
औद्योगिक राष्ट्रवादअर्नेस्ट गैलनर (Ernest Gellner)राष्ट्रवाद का उदय औद्योगिक समाज में शिक्षा और एकरूपता की आवश्यकता के कारण हुआ। राष्ट्र राज्य तभी बनता है जब शिक्षा और संस्कृति का मानकीकरण होता है।
आर्थिक राष्ट्रवादएरिक हॉब्सबॉम (Eric Hobsbawm)राष्ट्रवाद एक राजनीतिक कार्यक्रम है जो आर्थिक हितों से प्रेरित होता है।
संरचनात्मक राष्ट्रवादएंथनी स्मिथ (Anthony D. Smith)राष्ट्रों का आधार “ethnic cores” होते हैं – अर्थात सांस्कृतिक परंपराएं, स्मृतियाँ और मिथक राष्ट्र की नींव बनाते हैं।
मार्क्सवादी दृष्टिकोणटोमस नोयर (Tom Nairn)राष्ट्रवाद पूंजीवादी व्यवस्था का उत्पाद है, जो लोगों को वर्ग चेतना से हटाकर राष्ट्रीय एकता की ओर ले जाता है।
भौगोलिक-सांस्कृतिक सिद्धांतहर्बर्ट स्पेंसरराष्ट्र की उत्पत्ति विशेष भौगोलिक सीमाओं और सांस्कृतिक आदानों के संयोग से होती है।
प्रतिक्रिया आधारित राष्ट्रवादफ्रांज फैननउपनिवेशवाद के विरुद्ध उत्पन्न राष्ट्रवाद, जो आत्म-गौरव और सांस्कृतिक पुनरुत्थान पर आधारित होता है।
धार्मिक राष्ट्रवादसावरकर, इकबाल, मौलाना मौदूदीराष्ट्र को धार्मिक एकता से परिभाषित करते हैं। यह दृष्टिकोण भारत, पाकिस्तान और इज़राइल जैसे राष्ट्रों में उभरकर सामने आया।

 विचारकों के कुछ महत्वपूर्ण कथन

  • बेंडिक्ट एंडरसन: “राष्ट्र कल्पित समुदाय है, क्योंकि इसमें शामिल अधिकांश लोग एक-दूसरे को नहीं जानते, फिर भी एक साझा पहचान महसूस करते हैं।”
  • एंथनी स्मिथ: “आधुनिक राष्ट्र की जड़ें पूर्व-आधुनिक जातीय समुदायों में होती हैं। राष्ट्र की आत्मा उसकी ऐतिहासिक स्मृति और सांस्कृतिक प्रतीकों में बसती है।”
  • अर्नेस्ट गैलनर: “औद्योगिक समाज राष्ट्रवाद की जननी है, क्योंकि मशीनों की तरह नागरिकों को भी मानकीकृत किया जाना चाहिए।”
  • फ्रांज फैनन: “उपनिवेशवाद के विरुद्ध खड़ा राष्ट्रवाद अपने साथ सांस्कृतिक गौरव और हिंसात्मक मुक्ति संघर्ष लेकर आता है।”

 

स्रोत: इंडिया एक्सप्रेस


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