नव-वेदांत स्वामी विवेकानंद द्वारा प्रस्तुत वेदान्त का आधुनिक रूप है, जिसमें पारंपरिक अद्वैत वेदान्त को व्यावहारिक, वैज्ञानिक, सामाजिक और वैश्विक दृष्टिकोण से पुनः परिभाषित किया गया। यह दर्शन केवल आत्मा और ब्रह्म की एकता पर ही नहीं, बल्कि सेवा, कर्म और मानवता के कार्यान्वयन पर भी ज़ोर देता है।
नव–वेदांत दर्शन के मुख्य तत्त्व (सिद्धांत)
- ईश्वर सर्वव्यापक है और हर व्यक्ति में स्थित है: ‘हर आत्मा संभावित ब्रह्म है’: इस वाक्य से विवेकानंद का नव-वेदांत ब्रह्म और जीव में अंतर को समाप्त कर देता है।
- मानव सेवा ही सर्वोच्च पूजा है: विवेकानंद का मानना था कि मानव में ईश्वर का वास है, इसलिए सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है।
- सर्व धर्म समभाव और धार्मिक सहिष्णुता: वे कहते हैं कि सत्य एक है, लेकिन उस तक पहुंचने के मार्ग अनेक हो सकते हैं। यही कारण है कि उन्होंने सभी धर्मों का सम्मान किया।
- कर्मयोग और समाजसेवा: नव-वेदांत केवल ज्ञान और साधना तक सीमित नहीं बल्कि समाज सेवा और कर्म में भी निहित है।
- वैज्ञानिक और तार्किक दृष्टिकोण: विवेकानंद ने धार्मिक विचारों को आधुनिक विज्ञान और तर्क के आलोक में प्रस्तुत किया, जिससे वह पाश्चात्य दुनिया को भी आकर्षित कर सके।
- व्यक्तित्व निर्माण और राष्ट्रीय पुनर्जागरण: नव-वेदांत दर्शन का उद्देश्य था कि भारत में आत्मगौरव और आत्म-विश्वास को जागृत किया जाए।
नव–वेदांत का सामाजिक प्रभाव
- राष्ट्र निर्माण और युवा चेतना: विवेकानंद ने युवाओं को राष्ट्र की आत्मा बताया और उन्हें जागरूक किया।
- धार्मिक पुनर्जागरण: सनातन धर्म की गहराई को आधुनिक भाषा में समझाकर धार्मिक पुनर्जागरण की नींव रखी।
- अंतरराष्ट्रीय संवाद: 1893 के शिकागो धर्म संसद में अपने भाषण के माध्यम से भारत के आध्यात्मिक दर्शन को विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया।
जड़ एवं चेतन (Matter and Spirit) की एकता
स्वामी विवेकानंद का यह विचार कि ‘जड़ और चेतन एक ही ब्रह्म की दो अवस्थाएँ हैं’ केवल दार्शनिक दृष्टिकोण नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक, सामाजिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। यह मनुष्य को आत्मा और पदार्थ के द्वैत से ऊपर उठाकर एकता के दर्शन में ले जाता है, जो कि नव-वेदांत की आत्मा है।
“The Many and the One are the same Reality, perceived by the same mind at different times and in different attitudes.” (The Complete Works of Swami Vivekananda, Vol. 8, p.261)
भारतीय दार्शनिक परंपरा में “जड़” का तात्पर्य है: भौतिक, निर्जीव वस्तुएँ जैसे शरीर, प्रकृति, पदार्थ इत्यादि।
‘चेतन’ का तात्पर्य है – चेतना, आत्मा, जीव, ब्रह्म या आत्मिक सत्ता।
नव–वेदांत का दृष्टिकोण (स्वामी विवेकानंद के अनुसार)
- जड़ और चेतन वास्तव में एक ही ब्रह्म की अभिव्यक्तियाँ हैं।
- यह एक ही सत्ता है, जो अलग-अलग अवस्थाओं में भिन्न प्रतीत होती है।
आधुनिक दृष्टिकोण से सामंजस्य
स्वामी विवेकानंद का यह सिद्धांत आधुनिक भौतिकी (Modern Physics) की Energy-Matter Equivalence (E=mc²) जैसी अवधारणाओं से मेल खाता है:
- जैसे पदार्थ ऊर्जा का ही एक रूप है,
- वैसे ही नव-वेदांत में ‘चेतन’ (आत्मिक सत्ता) ही “जड़” (पदार्थ) के रूप में व्यक्त होती है।
प्रेरणा स्रोत
- रामकृष्ण परमहंस: विवेकानंद के नव-वेदांत दर्शन की जड़ें उनके गुरु श्री रामकृष्ण की शिक्षाओं में थीं।
- प्राचीन उपनिषद और गीता: विवेकानंद ने वेदान्त को केवल सन्यासियों तक सीमित न रखकर सामान्य जीवन में उतारने का कार्य किया।
विवेकानंद के प्रमुख कार्य
- राज योग (1896)
- कर्म योग (1896)
- कोलंबो से अल्मोड़ा तक व्याख्यान (1897)
- ज्ञान योग (1899)