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भारत में न्यायिक सक्रियता (Judicial activism): सुप्रीम कोर्ट में वक्फ (Waqf) बिल पर सुनवाई के संदर्भ में

भारत में न्यायिक सक्रियता (Judicial Overactivism): सुप्रीम कोर्ट में वक्फ (Waqf) बिल पर सुनवाई के संदर्भ में

परिचय
न्यायिक सक्रियता (Judicial Overactivism) का तात्पर्य उन स्थितियों से है जब न्यायालय, विशेष रूप से भारत में न्यायपालिका, कार्यपालिका या विधायिका के पारंपरिक क्षेत्र में हस्तक्षेप करता है। यह परिभाषा तब और अधिक जटिल हो जाती है जब न्यायपालिका केवल कानूनों की व्याख्या करने की बजाय, नीति निर्माण (Policy-making) में भी शामिल हो जाती है।

एक महत्वपूर्ण उदाहरण वक्फ (Waqf) बिल पर सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई है, जो धार्मिक स्वतंत्रता, प्रशासनिक नियंत्रण और न्यायपालिका की भूमिका पर गंभीर प्रश्न उठाता है। इस संदर्भ में, यह चर्चा करना आवश्यक है कि क्या न्यायपालिका अपनी भूमिका से अधिक हस्तक्षेप कर रही है, या यह संविधान द्वारा निर्धारित सीमाओं के भीतर रहकर कार्य कर रही है।

1. वक्फ (Waqf) बिल का परिचय

वक्फ (Waqf) बिल, जो भारतीय संसद में प्रस्तुत किया गया था, वक्फ संपत्तियों के प्रशासन और प्रबंधन को नियंत्रित करने का उद्देश्य रखता है। इस बिल की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

  • वक्फ प्रशासन का केंद्रीकरण: यह बिल वक्फ बोर्डों के राज्य स्तर पर संचालित होने के बजाय केंद्र में संचालित होने का प्रावधान करता है।

  • शासन और जवाबदेही में वृद्धि: यह वक्फ संपत्तियों के बेहतर प्रबंधन, पारदर्शिता और उपयोग के दुरुपयोग को रोकने के उपायों को लागू करता है।

  • कानूनी विवाद: इसमें वक्फ संपत्तियों से संबंधित विवादों को निपटाने के लिए प्रावधान हैं।

2. न्यायपालिका की भूमिका

भारत में न्यायपालिका का अद्वितीय कार्य संविधान और कानूनों की व्याख्या करना है। लेकिन यह भूमिका न्यायिक (Judicial) होने चाहिए, न कि विधायी (Legislative) या कार्यकारी (Executive)। इस सत्ता के विभाजन के सिद्धांत (Doctrine of Separation of Powers) का पालन करना बहुत आवश्यक है, ताकि किसी एक शाखा के अधिकारों का उल्लंघन न हो।

लेकिन भारत में न्यायपालिका, विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट, पर न्यायिक सक्रियता का आरोप कई बार लगता रहा है, जिसमें न्यायपालिका ने उन मुद्दों में हस्तक्षेप किया है जो पारंपरिक रूप से विधायिका या कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में आते हैं।

3. वक्फ (Waqf) बिल पर सुप्रीम कोर्ट की भूमिका

वक्फ बिल के मामले में, सुप्रीम कोर्ट को वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन और शासन से संबंधित कई मुद्दों पर निर्णय लेने के लिए बुलाया गया था। इसने न्यायपालिका की भूमिका पर सवाल खड़ा किया है कि क्या यह विधायिका के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप कर रहा है।

विवाद के प्रमुख बिंदु:

  • विधायी क्रियावली पर न्यायिक समीक्षा: न्यायपालिका का यह कार्य विधायी (Legislative) क्रियावली की समीक्षा करना है, लेकिन क्या यह विधायिका की मंशा को पलट सकता है या उसे प्रभावित कर सकता है, यह सवाल खड़ा होता है।

  • धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप: वक्फ संपत्तियाँ धार्मिक रूप से संवेदनशील होती हैं, और भारत के संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता (Article 25) को सर्वोपरि माना गया है। न्यायपालिका का हस्तक्षेप इस क्षेत्र में राज्य-धर्म के सिद्धांत (Separation of Church and State) के उल्लंघन के रूप में देखा जा सकता है।

  • नीति निर्माण बनाम न्यायिक निर्णय: विधायिका का कार्य नीति निर्माण (Policy-making) करना है, जबकि न्यायपालिका का कार्य केवल उन नीतियों की संविधानिकता की समीक्षा करना है। वक्फ बिल के मामले में, आलोचकों का कहना है कि न्यायपालिका नीति निर्माण में हस्तक्षेप कर रही है, जो कि न्यायिक अधिकार क्षेत्र के बाहर का मामला है।

4. न्यायिक सक्रियता पर शैक्षिक दृष्टिकोण (Academic Perspective on Judicial Overactivism)

शैक्षिक दृष्टिकोण से, न्यायिक सक्रियता भारत में एक विकसित हो रहा विचार है। न्यायपालिका भारत में मूलभूत अधिकारों (Fundamental Rights) की रक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, लेकिन उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह विधायिका के अधिकार क्षेत्र में न हस्तक्षेप करे।

ध्यान देने योग्य बिंदु:

  • सत्ता का विभाजन (Separation of Powers): Montesquieu के सिद्धांत के अनुसार, न्यायपालिका का कार्य कार्यपालिका या विधायिका के कार्यों में हस्तक्षेप किए बिना केवल कानूनों और संविधान की व्याख्या करना है। न्यायिक सक्रियता सत्ता के विभाजन के सिद्धांत में विघटन कर सकती है।

  • न्यायिक समीक्षा (Judicial Review): जबकि न्यायिक समीक्षा भारत में लोकतंत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा है, न्यायपालिका को केवल यह देखना चाहिए कि क्या कानून संविधान के अनुरूप है, न कि नीति निर्धारण में हस्तक्षेप करना।

  • न्यायिक वैधता (Judicial Legitimacy): जब न्यायपालिका नीति निर्माण में हस्तक्षेप करती है, तो यह लोकतांत्रिक वैधता (Democratic Legitimacy) पर प्रश्न उठा सकती है, क्योंकि वह विधायिका की इच्छा के खिलाफ जा सकती है।

  • लोकहित याचिका (PIL): भारत में लोकहित याचिका (Public Interest Litigation) का उदय न्यायिक सक्रियता का एक उदाहरण है। हालांकि यह समाज के मुद्दों को हल करने में मदद करता है, लेकिन इसे नीति निर्माण में हस्तक्षेप के रूप में देखा जा सकता है, जो न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र से बाहर हो सकता है।

5. वक्फ प्रशासन में कार्यपालिका और विधायिका की भूमिका

यह महत्वपूर्ण है कि हम विधायिका और कार्यपालिका की भूमिका को पहचानें, विशेष रूप से वक्फ बिल जैसे मामलों में:

  • विधायिका: विधायिका का कार्य कानून बनाना और नीतियों का निर्माण करना है। वक्फ बिल में संसद को कानून बनाने का अधिकार है, और न्यायपालिका को केवल उसकी संविधानिकता की जांच करनी चाहिए, न कि उस पर नीति निर्धारण में हस्तक्षेप करना चाहिए।

  • कार्यपालिका: कार्यपालिका का कार्य विधायिका द्वारा पारित कानूनों को लागू करना है। वक्फ बिल के मामले में, यह कार्यपालिका का कर्तव्य है कि वह वक्फ संपत्तियों का प्रशासन ठीक से करें।

6. निष्कर्ष: न्यायिक समीक्षा और सक्रियता के बीच संतुलन

न्यायिक सक्रियता पर बहस जटिल है, विशेष रूप से वक्फ बिल के मामले में, जहाँ धार्मिक स्वतंत्रता, शासन और विधायिका की भूमिका आपस में जुड़ी हुई हैं।

  • न्यायिक अतिक्रमण: जब न्यायालय नीति निर्माण में हस्तक्षेप करता है, जैसा कि कुछ मामलों में वक्फ बिल के संबंध में देखा गया है, तो यह न्यायिक अधिकार क्षेत्र के उल्लंघन के रूप में देखा जा सकता है।

  • न्यायिक जिम्मेदारी: जबकि न्यायपालिका का कार्य कानूनों और नीतियों की संविधानिकता की समीक्षा करना है, उसे नीति निर्धारण में हस्तक्षेप करने से बचना चाहिए।

इसलिए, वक्फ बिल के संदर्भ में, यह जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट अपनी न्यायिक भूमिका को समझे और विधायिका के नीति निर्माण के अधिकार का उल्लंघन न करें। भारत के संविधान में सत्ता के विभाजन की अवधारणा पर जोर दिया गया है, और इस संतुलन को बनाए रखना सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक शाखा अपनी निर्धारित भूमिका में प्रभावी रूप से कार्य करे.

शैक्षिक संदर्भ:

  • भारत का संविधान (धारा 50): न्यायपालिका और कार्यपालिका का पृथक्करण।

  • केसावनंदा भारती बनाम केरल राज्य (1973): मूलभूत संरचना का सिद्धांत (Basic Structure Doctrine)।

  • लोकहित याचिका (PIL): न्यायिक सक्रियता पर इसके प्रभाव।

  • न्यायिक समीक्षा (Judicial Review): विधायी क्रियावली और कार्यपालिका निर्णयों की समीक्षा करने का न्यायपालिका का कार्य।

इन सिद्धांतों को समझते हुए, भारत न्यायपालिका और विधायिका के बीच उचित संतुलन बनाए रख सकता है, ताकि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को सुचारू रूप से चलाया जा सके।

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