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राज्यपाल द्वारा बिलों पर सहमति: संवैधानिक समय-सीमा और विवाद

भारत के संविधान का अनुच्छेद 200 राज्यपाल को राज्य विधानसभा द्वारा पारित किसी भी विधेयक (Bill) पर कार्यवाही करने के लिए शक्तियां और विकल्प प्रदान करता है। हालाँकि, यह अनुच्छेद राज्यपाल द्वारा विधेयक पर निर्णय लेने के लिए कोई विशिष्ट समय-सीमा निर्धारित नहीं करता है, जिससे अक्सर केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव उत्पन्न होता है और विधायी प्रक्रिया में बाधा आती है। हाल के वर्षों में, गैर-भाजपा शासित राज्यों ने आरोप लगाया है कि उनके राज्यपाल, केंद्र सरकार के इशारे पर, महत्वपूर्ण विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोके रखते हैं, जिससे संवैधानिक गतिरोध पैदा होता है। इस विवाद ने उच्चतम न्यायालय तक का रास्ता तय किया, जिसके परिणामस्वरूप सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण संवैधानिक संदर्भ (Presidential Reference) पर फैसला सुनाया, जिसने इस मुद्दे पर आवश्यक स्पष्टीकरण दिया है।

पृष्ठभूमि और संवैधानिक प्रावधान

भारतीय संविधान संघीय ढांचे पर आधारित है, जहाँ केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन है। राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक को कानून बनने के लिए राज्यपाल की सहमति आवश्यक है।

अनुच्छेद 200 राज्यपाल को चार विकल्प देता है:

  • 1- सहमति देना: विधेयक तुरंत कानून बन जाता है।
  • 2- सहमति रोकना: राज्यपाल विधेयक को अस्वीकृत कर सकते हैं। इस स्थिति में, सदन को इस पर पुनः विचार करना होता है।
  • 3- पुनर्विचार के लिए सदन को वापस भेजना: राज्यपाल कुछ संशोधन या पुनर्विचार के लिए विधेयक को सदन को वापस भेज सकते हैं। यदि सदन इसे संशोधनों सहित या बिना संशोधनों के पुनः पारित कर देता है, तो राज्यपाल को सहमति देनी होगी।
  • 4- राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखना: कुछ विशिष्ट प्रकार के विधेयकों, जैसे कि जो उच्च न्यायालय की शक्तियों को खतरे में डालते हैं या संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करते हैं, को राज्यपाल राष्ट्रपति के लिए आरक्षित रख सकते हैं (अनुच्छेद 201)।

अनुच्छेद 200 में वाक्यांश “जितनी जल्दी हो सके” (as soon as possible) राज्यपाल द्वारा पुनर्विचार के लिए विधेयक को वापस भेजने के संदर्भ में प्रयोग किया गया है, न कि सहमति देने या आरक्षित रखने के संदर्भ में। इस अस्पष्टता ने ही विवादों को जन्म दिया है।

राज्यों द्वारा उठाया गया मुद्दा और संवैधानिक गतिरोध:

हाल के वर्षों में, केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना और पंजाब जैसे राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है, आरोप लगाया है कि उनके राज्यपाल जानबूझकर महत्वपूर्ण राज्य विधेयकों को रोक रहे हैं। इन राज्यों का तर्क है कि राज्यपाल की यह निष्क्रियता विधायी प्रभुसत्ता और संघवाद के सिद्धांतों का उल्लंघन करती है।

उदाहरण के लिए, तमिलनाडु ने आरोप लगाया कि उसके राज्यपाल ने कई विधेयकों को महीनों तक लटकाए रखा, जिनमें ऑनलाइन जुए पर प्रतिबंध लगाने और विश्वविद्यालयों में कुलपति की नियुक्ति से संबंधित विधेयक शामिल थे। केरल ने भी राज्य विश्वविद्यालय कानून (संशोधन) विधेयक सहित कई महत्वपूर्ण विधेयकों पर राज्यपाल की अनिर्णय की स्थिति पर आपत्ति जताई थी।

राज्यों का मुख्य तर्क यह रहा है कि अनिश्चितकालीन देरी से “शासन का संकट” पैदा होता है और राज्य सरकार की नीतिगत पहलों को विफल करने का प्रयास किया जाता है। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य करना चाहिए, और इसलिए सहमति को रोकना केवल ‘अंतिम विकल्प’ (last resort) होना चाहिए, न कि एक ‘नियमित प्रक्रिया’।

पूर्व के मामले और कानूनी स्थिति:

राज्यपाल की शक्तियों से संबंधित विवाद कोई नया नहीं है। विभिन्न अदालतों ने समय-समय पर इस मामले पर टिप्पणी की है, लेकिन कोई निश्चित समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई थी।

  • 1- वी. के. जैन बनाम हरियाणा राज्य , 1988:इस मामले में, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने इस मुद्दे पर विचार किया। हालाँकि, न्यायालय ने इस पर कोई स्पष्ट समय सीमा तय नहीं की, लेकिन यह माना कि राज्यपाल द्वारा अपनी शक्तियों का प्रयोग उचित समय के भीतर किया जाना चाहिए।
  • 2- होइहोनो खिरो बनाम नागालैंड राज्य मामला ,2017: इस मामले में, नागालैंड के राज्यपाल ने एक विधेयक को लंबे समय तक रोके रखा था। गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि अनुच्छेद 200 राज्यपाल को अनिश्चित काल तक बिलों को अपने पास रखने की शक्ति नहीं देता है।
  • 3- संविधान आयोग की रिपोर्टें: सरकारिया आयोग(1988) और पुंछी आयोग (2010) दोनों ने राज्यपाल के संवैधानिक विवेक के संबंध में अपनी सिफारिशें दी थीं।सरकारिया आयोग ने सिफारिश की थी कि राज्यपाल को छह महीने के भीतर विधेयक पर निर्णय ले लेना चाहिए।पुंछी आयोग ने भी इसी तरह की समय-सीमा की सिफारिश की थी और कहा था कि राज्यपाल की सहमति में देरी से बचना चाहिए।हालाँकि, ये सिफारिशें केवल सुझाव थीं और कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं थीं।

हालिया सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय

इस संवैधानिक गतिरोध को देखते हुए, भारत के राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से सलाह मांगी, जिसे “प्रेसिडेंशियल रेफरेंस” कहा जाता है। इसमें राज्यपालों और राष्ट्रपति की शक्तियों से संबंधित 14 महत्वपूर्ण प्रश्न शामिल थे, खासकर सहमति के लिए समय-सीमा के संबंध में।

 

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के मुख्य निष्कर्ष:

  • 1- निश्चित समय-सीमा का खंडन: सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यपालों या राष्ट्रपति के लिए विधेयकों पर सहमति देने हेतु कोई निश्चित या कठोर समय-सीमा निर्धारित करने से इनकार कर दिया। कोर्ट ने तर्क दिया कि न्यायिक शक्ति द्वारा ऐसी समय-सीमा थोपना शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन होगा, क्योंकि यह विधायी और कार्यकारी क्षेत्र में हस्तक्षेप होगा।
  • 2-अनिश्चितकालीन देरी पर रोक: हालांकि कोई निश्चित समय-सीमा नहीं दी गई, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोके नहीं रख सकते। उन्हें “उचित समय” के भीतर कार्य करना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा अपनी शक्तियों का प्रयोग “यथाशीघ्र” किया जाना चाहिए। अत्यधिक और अस्पष्टीकृत देरी संविधान के सिद्धांतों के विरुद्ध है।
  • 3-“सहमति रोकना” का सही अर्थ: कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि राज्यपाल जब विधेयक को अस्वीकार (veto) करना चाहते हैं, यानी सहमति रोकना , तो उन्हें केवल सहमति रोककर विधेयक को अपने पास रखना नहीं चाहिए। इसके बजाय, उन्हें विधेयक को पुनर्विचार के लिए सदन को वापस भेजना होगा। यह निर्णय राज्यपालों को केवल सहमति रोककर विधेयक को निष्क्रिय करने से रोकता है।
  • 4-मानित सहमति का खंडन: न्यायालय ने इस तर्क को अस्वीकार कर दिया कि यदि राज्यपाल एक निश्चित अवधि के भीतर कार्रवाई नहीं करते हैं, तो विधेयक को ‘मानित सहमति’ (Deemed Assent) प्राप्त हो जाएगी और वह कानून बन जाएगा।
  • 5-न्यायिक समीक्षा का दायरा: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लंबे समय तक, अस्पष्ट और अनिश्चित निष्क्रियता की स्थिति में, अदालतें सीमित न्यायिक समीक्षा कर सकती हैं। अदालत राज्यपाल को उचित समय-सीमा के भीतर निर्णय लेने का निर्देश दे सकती है।

निर्णय का महत्व और आगे की राह:

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय संवैधानिक संतुलन स्थापित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इसने एक ओर, राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों का सम्मान किया और शक्तियों के पृथक्करण को बनाए रखा; और दूसरी ओर, मनमानी और अनिश्चितकालीन निष्क्रियता पर रोक लगाई है। यह निर्णय इस बात पर जोर देता है कि राज्यपाल, राज्य के संवैधानिक प्रमुख होने के नाते, निष्क्रिय या विलंबित शासन का स्रोत नहीं हो सकते।

यह निर्णय राज्यों को एक स्पष्ट संदेश देता है कि उनके पास संवैधानिक उपाय उपलब्ध हैं और राज्यपाल की निष्क्रियता के विरुद्ध वे न्यायपालिका की शरण ले सकते हैं। इस फैसले से अब राज्यपालों को अधिक पारदर्शी और समयबद्ध तरीके से विधेयकों पर निर्णय लेने की अपेक्षा की जाती है, जिससे भारत के संघीय ढांचे में केंद्र और राज्यों के बीच विधायी सहयोग को बढ़ावा मिल सके। हालाँकि, “उचित समय” की परिभाषा अभी भी व्यक्तिपरक बनी हुई है, और यह संभव है कि भविष्य में इस पर और विवाद उत्पन्न हों, जिन्हें अदालतें मामले-दर-मामले के आधार पर तय करेंगी।

यह सुनिश्चित करने के लिए कि संवैधानिक गतिरोध भविष्य में न हो, यह आवश्यक है कि राज्यपाल अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय संवैधानिक नैतिकता और संघवाद की भावना को सर्वोच्च प्राथमिकता दें।


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