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क्या राज्यों को संसद के कानूनों को नकारने का अधिकार है?: एक बहस

केन्द्र-राज्य

यह लेख भारत के लोकतंत्र, संघवाद, और नीति निर्माण में राज्यों की भूमिका की गहरी खोज करता है। यह केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति-संतुलन के विवाद को उजगार करते हुए, इस प्रश्न को समझने का प्रयास करेंगे कि क्या राज्य संसद द्वारा बनाये कानून को लागु करने से मना कर सकती है? जो भारत जैसे विविध और बहुलतावादी देश में सतत चर्चा का विषय बना रहता है। आइये पहले यह जाने की केंद्र और राज्य में कैसे सम्बन्ध होते है।

केंद्रराज्य के बीच संबंध

भारतीय संघीय व्यवस्था में, संविधान केंद्र और राज्यों के बीच विधायी, कार्यकारी और वित्तीय कार्यों को विभाजित करता है। केंद्र-राज्य संबंध निम्नलिखित तीन विषयों में विभाजित हैं;

  1. विधायी संबंध (Legislative Relations)
  • संविधान की सातवीं अनुसूची में तीन सूचियाँ दी गई हैं:
    • संघ सूची (Union List) – केवल संसद कानून बना सकती है।
    • राज्य सूची (State List) – केवल राज्य विधानसभाएं कानून बना सकती हैं।
    • समवर्ती सूची (Concurrent List) – दोनों बना सकते हैं, परंतु टकराव की स्थिति में केंद्र का कानून प्रभावी होता है।
  1. प्रशासनिक संबंध (Administrative Relations)
  • अनुच्छेद 256-263 तक इन संबंधों को नियंत्रित करते हैं।
  • केंद्र राज्यों को दिशा-निर्देश दे सकता है ताकि राष्ट्रीय हित बनाए रखे जा सकें।
  • केंद्र सरकार संकट की स्थिति में जैसे आपातकाल, राज्यों के प्रशासनिक कार्यों को अपने हाथ में ले सकती है।
  1. वित्तीय संबंध (Financial Relations)
  • केंद्र सरकार को कर लगाने के अधिक अधिकार हैं।
  • वित्त आयोग (Finance Commission) राज्यों को केंद्र से मिलने वाली सहायता और राजस्व वितरण पर सलाह देता है।
  • केंद्र द्वारा राज्यों को अनुदान (Grants-in-aid) दिए जाते हैं।

 

संसद/केंद्र की राज्यों पर शक्तियाँ

  • संविधान के भाग- XI में अनुच्छेद 245 से 255 तक केन्द्र-राज्य के संबंधों की चर्चा की गई है।
  • अनुच्छेद 256 और 257 राज्यों को केंद्र की आवश्यकताओं के अनुसार काम करने को बाध्य करते हैं।
  • अनुच्छेद 248 (1): संसद को उन सभी विषयों पर कानून बनाने का अनन्य अधिकार है जिनका उल्लेख राज्य व समवर्ती सूची में नहीं है। दूसरे शब्दों में अवशिष्ट शक्तियाँ केंद्र सरकार के पास हैं। यदि समवर्ती सूची में टकराव होता है, तो केंद्र का कानून मान्य होगा।
  • अनुच्छेद 249: यदि राज्यसभा अपने उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव करें कि राष्ट्र हित में यह आवश्यक या हितकर है तो संसद राज्य सूची में दिये गए किसी विषय पर कानून बना सकती है।
  • 42वें संविधान संशोधन: अधिनियम, 1976 के तहत पाँच विषयों को राज्य सूची से समवर्ती सूची में शामिल किया गया है। वे हैं- शिक्षा, वन, नाप-तौल, वन्यजीवों एवं पक्षियों का संरक्षण, न्याय का प्रशासन। साथ ही संसद को यह शक्ति दी गई है कि वह किसी अंतर्राष्ट्रीय संधि, करार, अभिसमय को कार्य रूप देने के लिये समूचे देश या उसके किसी भाग के लिये कोई विधि बना सके (अनुच्छेद 253)।
  • अनुच्छेद 245: संसद भारत के संपूर्ण राज्य क्षेत्र अथवा उसके किसी भाग के लिये विधि बना सकेगी तथा किसी राज्य का विधानमंडल उस संपूर्ण राज्य अथवा किसी भाग के लिये विधि बना सकेगा।
  • अनुच्छेद 250: आपातकाल की उद्घोषणा प्रवर्तन में हो तो राज्य सूची के विषय के संबंध में विधि बनाने की शक्ति संसद की होगी।
  • अनुच्छेद 252 के अनुसार, दो या दो से अधिक राज्यों के विधानमंडल एक संकल्प पारित करके संसद से अनुरोध कर सकते हैं कि वे राज्य सूची के किसी विषय के बारे में विधियाँ बनाएँ। ऐसी विधियों का विस्तार अन्य राज्यों पर भी किया जा सकता है बशर्ते संबद्ध राज्यों के विधानमंडल इस आशय के संकल्प पारित करें।
  • अनुच्छेद 356: जब राष्ट्रपति को राज्यपाल की रिपोर्ट पर यह समाधान हो जाए कि किसी राज्य में ऐसी स्थिति पैदा हो गई है जिसमें राज्य का शासन वैधानिक उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है तो राष्ट्रपति यह घोषित करेगा कि राज्य के विधानमंडल की शक्तियाँ संसद के प्राधिकार के द्वारा प्रयोग की जाएंगी।
  • अनुच्छेद 368: संविधान के कुछ प्रावधानों में संशोधन के लिए आधे से अधिक राज्यों के विधानमंडलों द्वारा अनुसमर्थन किया जाना आवश्यक है। ये विषय हैं- राष्ट्रपति के निर्वाचन की प्रक्रिया, संघ की कार्यपालिका शक्ति का क्षेत्र, राज्य की कार्यपालिका शक्ति का क्षेत्र, विधायी शक्ति का वितरण आदि।
  • कभी-कभी यह विवाद उत्पन्न हो सकता है कि किस विषय पर कानून बनाने का अधिकार किसके पास है – केंद्र के पास या राज्य के पास? इस स्थिति में न्यायपालिका यह जाँचती है कि विधेयक का “मुख्य उद्देश्य” और “वास्तविक प्रभाव” क्या है? अगर किसी कानून का मुख्य उद्देश्य केंद्र सूची के दायरे में आता है, तो वह वैध माना जाएगा, भले ही वह राज्य सूची को थोड़ा छूता हो। इसे ‘सार और सत्त्व का सिद्धांत’ (Doctrine of Pith and Substance) कहा जाता है।

संविधान द्वारा केंद्र तथा राज्यों की विधायी शक्तियों का स्पष्ट रूप से विभाजन किया गया है लेकिन व्यावहारिक रूप से संविधान में कुछ ऐसे प्रावधान है जिसके द्वारा केंद्र सरकार राज्य सरकारों की विधायी शक्तियों में हस्तक्षेप कर सकती है।

 

राज्य के पास मौजूद विकल्प?

  • यदि संसद ने संविधान के तहत विधिवत कानून पारित किया है, तो राज्य को उसे लागू करना ही होगा। वह कानून राज्य के अंदर भी लागू होता है, भले ही वह सहमत हो या नहीं।
  • राज्य सरकार केवल राजनीतिक विरोध दर्ज कर सकती है। या कानून को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है यदि वह संविधान के किसी प्रावधान का उल्लंघन करता है। उदहारण; कृषि कानून (2020)।

 

राज्य द्वारा संसदीय/केंद्र निर्णय को चुनौतियां?

भारत का संविधान संघीय है, लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से एक “अर्ध-संघात्मक” प्रणाली लागू होती है जिसमें केंद्र को अपेक्षाकृत अधिक शक्तियाँ प्राप्त हैं। इससे समय-समय पर कुछ संवैधानिक और राजनीतिक विवाद उत्पन्न होते हैं। नीचे ऐसे प्रमुख मुद्दों का वर्णन किया गया है:

मुद्दाविवरण उदाहरणसंभावित समाधान
केंद्र के कानून को चुनौती देनाराज्यों द्वारा संघ के बनाए कानूनों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देना।

यह उदाहरण “संघवाद बनाम एकात्मकता” (Federalism vs Unitarism) की बहस को पुनर्जीवित करते हैं।

CAA पर केरल का केस; NIA अधिनियम पर छत्तीसगढ़अनुच्छेद 131 के तहत राज्यों को न्यायिक मार्ग देना, पर संवाद को प्राथमिकता
संसाधनों का आवंटनराजस्व, टैक्स और निधियों के वितरण में विवाद।

यह एक संवेदनशील मुद्दा है जो “राज्यों की राजकोषीय स्वतंत्रता” को चुनौती देता है।

GST क्षतिपूर्ति विवाद, 15वें वित्त आयोग के मानदंडराज्यों को वित्त आयोग में अधिक प्रतिनिधित्व, स्थाई GST परिषद
अनुच्छेद 356 का दुरुपयोगराष्ट्रपति शासन का राजनीतिक उद्देश्य से प्रयोग।

यह केंद्र द्वारा राजनीतिक रूप से असहज राज्य सरकारों को हटाने का माध्यम बनता रहा है।

उत्तराखंड (2016), अरुणाचल प्रदेश (2016)S.R. Bommai केस की सख्ती से पालना, न्यायिक निगरानी
राज्यपाल की भूमिकाराज्यपाल का केंद्र का पक्ष लेना या पक्षपातपूर्ण निर्णय।

यह कार्यपालिका के “गैर-निर्वाचित” अंग द्वारा “निर्वाचित सरकार” पर हस्तक्षेप जैसा प्रतीत होता है।

महाराष्ट्र, बंगाल में टकरावराज्यपाल चयन हेतु स्वतंत्र आयोग, भूमिका की पुनःव्याख्या
एकतरफा विधायी कदमराज्यों से परामर्श के बिना केंद्रीय कानून बनाना।कृषि कानून 2020विधेयकों में राज्यों की भागीदारी, संसदीय समितियों में राज्य प्रतिनिधि
अंतर-सरकारी संवाद की कमीकेंद्र-राज्य मंचों की निष्क्रियता।NITI Aayog में केवल सलाहकारी भूमिकाअंतर-सरकारी परिषद को वैधानिक शक्तियाँ देना
संघीय ढांचे की न्यायिक व्याख्यान्यायपालिका के फैसलों में संघीयता की व्याख्या।S.R. Bommai v. Union of Indiaन्यायपालिका द्वारा ‘संघवाद’ को मूल संरचना मानना

 

क्या कोई राज्य सरकार संसद द्वारा बनाए गए कानून को लागू करने से मना कर सकती है?

यह प्रश्न भारत के संघीय ढांचे (Federal Structure), संविधान की सर्वोच्चता (Supremacy of Constitution), और राज्यों की स्वायत्तता के बीच संतुलन से जुड़ा है। मूलत: राज्य किसी संसद द्वारा पारित वैध कानून को “ना” नहीं कह सकता है। क्योंकि भारत में संविधान की सर्वोच्चता है। भारत का संविधान केंद्र को कुछ विषयों पर पूर्ण विधायी अधिकार देता है।

पक्ष में उत्तर (State can refuse to implement)

राजनीतिक असहमति का अधिकार

  • किसी राज्य की निर्वाचित सरकार राजनीतिक रूप से किसी केंद्रीय कानून से असहमति जता सकती है और उसका सार्वजनिक रूप से विरोध कर सकती है।
  • केरल सरकार ने CAA (नागरिकता संशोधन अधिनियम) का विरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी और राज्य में इसके प्रभावी अमल से इंकार किया।
  • पंजाब और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों ने भी NIA अधिनियम को संविधान विरोधी बताकर लागू करने से इनकार किया।

कार्यपालिका की विवेकाधीन शक्ति

  • राज्य की कार्यपालिका (administration) कानून के क्रियान्वयन में देरी या शिथिलता दिखा सकती है, भले ही वैधानिक रूप से ऐसा कानून लागू हो।

संघवाद की आत्मा

  • भारतीय संघ एक “सहकारी संघवाद” पर आधारित है, जिसमें राज्यों को नीति निर्धारण में भागीदारी मिलनी चाहिए। जब उन्हें विश्वास में नहीं लिया जाता, वे विरोध का मार्ग चुनते हैं।

लेकिन ये कदम केवल प्रतीकात्मक या राजनीतिक होते हैं, वैधानिक नहीं।

विपक्ष में उत्तर (State cannot refuse legally)

भारतीय संविधान की सर्वोच्चता

  • संसद द्वारा बनाया गया कोई भी कानून जो संविधान के अनुसार वैध रूप से पारित हुआ है, उसे भारत के पूरे क्षेत्र में लागू किया जाना अनिवार्य है।
  • अनुच्छेद 245: संसद को भारत के संपूर्ण क्षेत्र में कानून बनाने का अधिकार देता है।
  • अनुच्छेद 254: यदि समवर्ती सूची में केंद्र और राज्य दोनों ने कानून बनाया, और टकराव हो, तो केंद्र का कानून प्रभावी रहेगा।

न्यायपालिका की भूमिका

  • यदि कोई राज्य किसी कानून को असंवैधानिक मानता है, तो एकमात्र वैध मार्ग है: सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट में न्यायिक समीक्षा के लिए याचिका दायर करना। कोई राज्य सरकार एकतरफा निर्णय से कानून को नकार नहीं सकती।

प्रशासनिक कर्तव्य

  • अनुच्छेद 256 और 257 राज्यों को बाध्य करता है कि वे केंद्र के कानूनों का पालन करें और उनके अनुसार प्रशासन करें।
  • अनुच्छेद 365: यदि कोई राज्य केंद्र सरकार के आदेशों/कानूनों का पालन नहीं करता, तो यह संवैधानिक तंत्र की विफलता मानी जा सकती है, जिससे अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन) लागू किया जा सकता है।

 

केंद्रराज्य संबंधों में समरसता लाने हेतु सुझाए गए सुझाव

स्रोत / आयोगसुझावविवरण
सरकारिया आयोग (1983)अखिल भारतीय सेवाओं को मजबूत करनाकेंद्र व राज्यों के बीच समन्वय बनाए रखने हेतु अधिक अखिल भारतीय सेवाएँ होनी चाहिए।
समवर्ती सूची में नीति एकरूपता वाले विषयों तक ही केंद्र का दायरा सीमित होशेष विषयों पर राज्यों को स्वतंत्र कार्य करने की अनुमति होनी चाहिए।
पंची आयोग (2007)स्थानीय स्वशासन संस्थाओं को अधिक संवैधानिक शक्तियाँसंविधान में संशोधन कर स्थानीय निकायों को अधिक अधिकार देने की अनुशंसा।
राज्यपाल का कार्यकाल निश्चित और हटाना केवल महाभियोग द्वाराराष्ट्रपति की तर्ज पर राज्यपालों को हटाने की सिफारिश, ताकि वे निष्पक्ष कार्य करें।
संविधान समीक्षा आयोग (NCRWC, 2000)अंतःराज्य व्यापार आयोग की स्थापनाअनुच्छेद 307 के अनुसार एक विधायी आयोग की स्थापना की अनुशंसा।
आपातकाल और आपदा प्रबंधन को समवर्ती सूची में शामिल करनाताकि दोनों स्तर पर समन्वित प्रतिक्रिया संभव हो सके।
अन्य उपायअंतर-सरकारी संस्थाओं को सशक्त बनानाअंतर-राज्यीय परिषद, वित्त आयोग, नीति आयोग को संवैधानिक समर्थन और शक्ति देना।
वित्तीय संघवाद को बढ़ावासंसाधनों का न्यायसंगत और पारदर्शी वितरण, विशेषतः जीएसटी के सन्दर्भ में।
सातवीं अनुसूची की पुनः समीक्षास्थानीय शासन के लिए एक अलग सूची बनाने का सुझाव जिससे विकेंद्रीकरण को बढ़ावा मिले।
राज्यों में नवाचार को बढ़ावाराज्यों को नीति-निर्माण और प्रशासन में नवाचार हेतु प्रेरित करना।
शक्ति-साझेदारी (Power Sharing)केंद्र और राज्य के बीच शक्ति के संतुलन पर ज़ोर देना जिससे किसी एक इकाई में सत्ता केंद्रित न हो।

 

निष्कर्ष (Conclusion)

भारत का संविधान एक संघात्मक ढांचे पर आधारित है, जिसमें संविधान की सर्वोच्चता और सहकारी संघवाद (Cooperative Federalism) दोनों का समन्वय है। संसद द्वारा पारित कोई भी कानून, यदि वह संविधान के अनुरूप है, तो उसे भारत के सभी राज्यों में लागू करना बाध्यकारी होता है। राज्यों को उस कानून की वैधता को चुनौती देने का अधिकार है, लेकिन वे उसे एकतरफा रूप से लागू करने से मना नहीं कर सकते। हालाँकि, व्यवहारिक रूप से राज्यों द्वारा राजनीतिक विरोध, प्रतीकात्मक असहमति, और कानूनी चुनौती जैसे रास्ते अपनाए जाते हैं, किंतु वे संवैधानिक रूप से वैध कानून को निष्प्रभावी नहीं बना सकते। यह केवल न्यायपालिका के दायरे में आता है कि वह किसी कानून की वैधता तय करे, न कि राज्य कार्यपालिका के विवेक में। इसके साथ ही, समय-समय पर उठते विवाद यह स्पष्ट करते हैं कि भारत के संघीय ढांचे को और अधिक पारदर्शी, सहभागी और समरस बनाना आवश्यक है। Sarkaria, Punchhi और NCRWC जैसे आयोगों की अनुशंसाएं इस दिशा में महत्वपूर्ण हैं। राज्यों की भूमिका केवल अधीनस्थ नहीं बल्कि सहभागी होनी चाहिए, ताकि राष्ट्र हित में केंद्र और राज्य दोनों मिलकर कार्य कर सकें।

अतः न तो राज्य सरकारें संसद के वैध कानून को लागू करने से इनकार कर सकती हैं, और न ही केंद्र को राज्यों की भूमिका को नजरअंदाज करना चाहिए। दोनों के बीच संवाद, समन्वय और सम्मानपूर्ण संतुलन ही भारत के लोकतांत्रिक संघवाद की असली पहचान है।

 

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