भारत जैसे विविधतापूर्ण लोकतंत्र में राजनीतिक दल लंबे समय से शासन और जनप्रतिनिधित्व का आधार रहे हैं। परंतु हाल के दशकों में राजनीति में बढ़ते भ्रष्टाचार, अपराधीकरण, जातिवाद, वंशवाद और अवसरवाद के चलते यह बहस तेज़ हो गई है कि क्या एक दल विहीन लोकतंत्र (Partyless Democracy) लोकतंत्र को अधिक नैतिक, उत्तरदायी और जनकेंद्रित बना सकता है?
- दल विहीन लोकतंत्र की संकल्पना लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा 1970 के दशक में दी गई थी। उनका विश्वास था कि राजनीतिक दल जनता से अधिक सत्ता और पद के प्रति उत्तरदायी होते जा रहे हैं। उनका मत था कि जनता को सीधे सत्ता का स्रोत बनाना ही लोकतंत्र का आदर्श स्वरूप है।
- दल विहीन लोकतंत्र एक आदर्श स्थिति है, पर इसे लागू करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति, जागरूक नागरिकता और संस्थागत सुधारों की आवश्यकता है।
दल आधारित व्यवस्था की समस्याएँ
- भ्रष्टाचार और घोटाले – सत्ता पाने और बनाए रखने के लिए अनैतिक साधनों का उपयोग।
- जातिवादी राजनीति – वोट बैंक के लिए समाज को बाँटना।
- अपराधीकरण – दागी और आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों की बढ़ती भागीदारी।
- वंशवाद और परिवारवाद – लोकतंत्र में वंश के आधार पर नेतृत्व का चलन।
- नीति से अधिक सत्ता की भूख – जनहित से हटकर दलगत हितों की प्राथमिकता।
दल विहीन लोकतंत्र क्या है?
- दल विहीन लोकतंत्र में चुनावी प्रतिस्पर्धा राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों के बजाय स्वतंत्र व्यक्तियों के बीच होती है। ऐसे उम्मीदवार सीधे जनता के प्रति जवाबदेह होते हैं, न कि किसी पार्टी नेतृत्व या संगठन के। इससे व्यक्तिगत योग्यता, ईमानदारी और जनसेवा की भावना को बढ़ावा मिलता है।
- इस प्रणाली में ग्राम पंचायत, मोहल्ला समिति, नगर निगम आदि जैसी स्थानीय संस्थाओं को प्रमुख भूमिका मिलती है। यह नीचे से ऊपर की लोकतांत्रिक संरचना को मज़बूत करता है और प्रशासन को जन के अधिक निकट और उत्तरदायी बनाता है।
- राजनीतिक दलों की अनुपस्थिति में जनता और जनप्रतिनिधियों के बीच सीधा संपर्क होता है। इससे प्रतिनिधियों पर लोकमत का सीधा दबाव बनता है, जिससे वे जनहित में कार्य करने को बाध्य होते हैं। जनता की भागीदारी केवल मतदान तक सीमित नहीं रहती, बल्कि नीतियों के निर्माण और निगरानी तक विस्तृत हो जाती है।
- दलीय राजनीति में अक्सर नीतियाँ पार्टी लाइन, विचारधारा या सत्ता समीकरणों पर आधारित होती हैं। परंतु दल विहीन लोकतंत्र में प्राथमिकता जनहित, स्थानीय ज़रूरतों और व्यवहारिक समस्याओं के समाधान पर होती है। इससे विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे मुद्दों पर ठोस काम संभव होता है।
- राजनीतिक दल आमतौर पर सत्ता को केंद्र में समेटते हैं, पर दल विहीन प्रणाली में शक्ति का वितरण होता है। हर स्तर की जनता को अपनी शासन-प्रणाली में भागीदारी मिलती है, जिससे लोकतंत्र अधिक व्यापक, समावेशी और सशक्त होता है।
- जब राजनीतिक दलों के एजेंडे, चंदा, टिकट वितरण और सत्ता की सौदेबाज़ी नहीं होगी, तो भ्रष्ट आचरण और लालच में कमी आएगी। निर्दलीय उम्मीदवार व्यक्तिगत छवि और भरोसे पर चुनाव लड़ते हैं, जिससे जवाबदेही बढ़ती है।
- दलीय राजनीति में अक्सर विपक्ष बनाम पक्ष की टकरावपूर्ण राजनीति हावी रहती है। जबकि दल विहीन लोकतंत्र समन्वय, विचार-विनिमय और सहमति आधारित निर्णय प्रणाली को बढ़ावा देता है, जिससे निर्णय अधिक सामूहिक और टिकाऊ होते हैं।
सप्त क्रांति (सात क्रांतियाँ) और दल विहीन लोकतंत्र
दल विहीन लोकतंत्र केवल एक संरचना नहीं है, यह एक संस्कार है।
सप्त क्रांति इसके सिद्धांतों की आत्मा है, जो इसे जनकेंद्रित, न्यायसंगत और नैतिक लोकतंत्र बनाती है। जब दल नहीं होंगे, तब यही सात क्रांतियाँ मिलकर विकास, समरसता और जागरूकता का नया भारत गढ़ेंगी।
- राजनीतिक क्रांति – सत्ता की विकेन्द्रीकरण और जनता का सीधा नियंत्रण
- दल विहीन लोकतंत्र में सत्ता का केंद्रीकरण नहीं होगा।
- पंचायत से संसद तक जनता की सीधी भागीदारी होगी।
- चुनाव में व्यक्ति की योग्यता देखी जाएगी, पार्टी की निष्ठा नहीं।
- आर्थिक क्रांति – स्वावलंबन और शोषणमुक्त व्यवस्था
- स्थानीय स्तर पर ग्राम स्वराज और सहकारिता आधारित अर्थव्यवस्था को बढ़ावा।
- बेरोज़गारी, गरीबी और अमीरी-गरीबी की खाई को मिटाने के प्रयास होंगे।
- निर्णय दिल्ली में नहीं, गाँव में होंगे।
- शैक्षिक क्रांति – नैतिक और मूल्य आधारित शिक्षा
- शिक्षा केवल नौकरी के लिए नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण के लिए होगी।
- नागरिक चेतना को बढ़ाने वाली शिक्षा होगी ताकि जनता लोकतंत्र को संभाल सके।
- दल विहीन लोकतंत्र में राजनीतिक समझ की शिक्षा अनिवार्य होगी।
- सामाजिक क्रांति – जाति, वर्ग, लिंग भेद से मुक्ति
- समानता और बंधुत्व को आधार बनाकर समाज का पुनर्गठन होगा।
- दल विहीन व्यवस्था में वोट बैंक की राजनीति खत्म होगी।
- समाज में सामाजिक न्याय और समरसता लाई जाएगी।
- सांस्कृतिक क्रांति – भारतीयता और नैतिक मूल्यों का उत्थान
- दल आधारित राजनीति अक्सर पश्चिमी मॉडल की नकल करती है।
- दल विहीन व्यवस्था में भारतीय परंपराओं, लोक संस्कृति और नैतिकता को महत्व मिलेगा।
- आध्यात्मिक क्रांति – आत्मबल और सत्याग्रह का मार्ग
- सत्ता हथियाने की जगह सेवा और त्याग का मूल्य होगा।
- राजनीति धर्मनिरपेक्ष, लेकिन आध्यात्मिक दृष्टिकोण से प्रेरित होगी।
- गांधी और विनोबा भावे की तरह सत्य, अहिंसा और आत्मानुशासन पर बल होगा।
- नैतिक क्रांति – सार्वजनिक जीवन में चरित्र का पुनर्निर्माण
- नेताओं के चरित्र और नागरिकों के कर्तव्य पर जोर होगा।
- भ्रष्टाचार, लालच, सत्ता की भूख – इनसे मुक्ति पाना ही इस क्रांति का उद्देश्य है।
लोकनायक जयप्रकाश नारायण के बारे में
जेपी भारतीय राजनीति में नैतिकता, जनभागीदारी और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रतीक थे। उन्होंने न केवल सत्ता से दूरी बनाए रखी, बल्कि जनता को सत्ता का वास्तविक स्रोत मानते रहे।
- अक्टूबर 1902, सारण ज़िला (अब बिहार के छपरा ज़िले में) जन्म हुआ
- संपूर्ण क्रांति (Total Revolution) : यह केवल राजनीतिक क्रांति नहीं थी, बल्कि सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, नैतिक और सांस्कृतिक क्रांति का आह्वान था।
- अहिंसा और गांधीवाद: जेपी ने गांधी के सिद्धांतों को अपने जीवन और आंदोलन में अपनाया।
- दल विहीन लोकतंत्र: जेपी ने कहा, “राजनीतिक दलों ने लोकतंत्र को बंधक बना लिया है।”
- राजनीतिक और नैतिक शुद्धता: उन्होंने सत्ता को नहीं, सेवा को प्राथमिकता दी – यही कारण था कि उन्होंने कभी कोई पद स्वीकार नहीं किया।
प्रमुख रचनाएँ
- Why Socialism? (क्यों समाजवाद?)
- A Plea for Reconstruction of Indian Polity
- Toward Struggle
- Sampoorna Kranti (संपूर्ण क्रांति)
- Select Speeches and Writings of JP (संपादक: Bimal Prasad)