in , ,

इंटरसेक्शनैलिटी (Intersectionality)

इंटरसेक्शनैलिटी (Intersectionality)- किम्बर्ले क्रैशॉ

इंटरसेक्शनैलिटी (Intersectionality) एक महत्वपूर्ण सामाजिक अवधारणा है जिसे वर्ष 1989 में अमेरिकी कानून विशेषज्ञ और नारीवादी विद्वान किम्बर्ले क्रैशॉ (Kimberlé Crenshaw) ने प्रस्तुत किया था।

क्या है इंटरसेक्शनैलिटी?

इंटरसेक्शनैलिटी का शाब्दिक अर्थ है ‘अंत:क्रियात्मकता’ या ‘अन्तरविभागीयता’। यह सामाजिक सिद्धांत का एक ऐसा विचार है जो यह समझाता है कि विभिन्न प्रकार के भेदभाव (जैसे जाति, लिंग, वर्ग, यौनिकता आदि) एक-दूसरे से मिलकर व्यक्तियों के दैनिक जीवन को किस प्रकार प्रभावित करते हैं। यह विशेष रूप से उन लोगों के लिए प्रासंगिक है जो एक से अधिक सामाजिक वंचनाओं का सामना करते हैं; जैसे कि रंगभेदी और पितृसत्तात्मक भेदभाव से ग्रस्त महिलाएँ, विशेषकर रंगभेदित महिलाएँ।

परंपरागत रूप से, सामाजिक न्याय की चर्चाएं अक्सर एक-आयामी (single-axis) रही हैं,जैसे केवल स्त्रियों की बात करना या केवल जातीय समूहों की।
लेकिन किम्बर्ले क्रैशॉ ने कहा कि यह पर्याप्त नहीं है, क्योंकि:

  • बहुत से लोग एक से अधिक उत्पीड़नात्मक ढाँचों का एक साथ सामना करते हैं।
  • उनकी समस्याएं केवल ‘लैंगिक’ या ‘नस्लीय’ नहीं होतीं, बल्कि इनका मेल होता है।

उद्गम और विकास (Origin and Development)

इंटरसेक्शनैलिटी (Intersectionality) शब्द को सबसे पहले किम्बर्ले क्रैशॉ (Kimberlé Crenshaw) ने 1989 में गढ़ा। यह एक प्रमुख अमेरिकी नागरिक अधिकार कार्यकर्ता और क्रिटिकल रेस थ्योरी (Critical Race Theory) की प्रमुख विद्वान हैं।

उन्होंने इसे अपनी प्रसिद्ध लेख में प्रस्तुत किया: ‘Demarginalizing the Intersection of Race and Sex: A Black Feminist Critique of Antidiscrimination Doctrine, Feminist Theory, and Antiracist Politics’ (1989)

इस लेख में क्रैशॉ ने बताया कि कुछ सामाजिक अनुभव खासकर अश्वेत महिलाओं के ऐसे हैं जो सिर्फ जातीय या लिंग आधारित भेदभाव से समझाए नहीं जा सकते, बल्कि ये दोनों प्रकार की वंचनाओं का सम्मिलन होते हैं।

1991 में ‘Mapping the Margins: Intersectionality, Identity Politics, and Violence Against Women of Color’ (1991) में उन्होंने रंगभेदी-लैंगिक हिंसा की विशिष्टता को रेखांकित किया, जो मुख्यधारा की नारीवादी और नस्ल-विरोधी राजनीति में अक्सर अदृश्य रह जाती है।

क्रैशॉ का यह कार्य 1980 के दशक के नारीवादी और नस्ल-विरोधी आंदोलनों की सीमाओं के प्रति प्रतिक्रिया था।

  • उन्होंने तर्क दिया कि अश्वेत महिलाओं का अनुभव केवल ‘महिला’ या ‘अश्वेत’ के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता। उनके साथ होने वाला उत्पीड़न इन दोनों कारकों के संयोग से उपजता है।
  • उन्होंने यह भी कहा कि हमारा कानूनी और सामाजिक ढाँचा इन समस्याओं को अलग-अलग रूपों में देखता है और इसीलिए समाधान भी अधूरा रहता है।

पूर्ववर्ती विचारक

W.E.B. Du Bois (डब्ल्यू. . बी. ड्यू बोइस)

W.E.B. Du Bois (डब्ल्यू. ई. बी. ड्यू बोइस) एक प्रमुख अफ्रीकी-अमेरिकी समाजशास्त्री थे।

  • उन्होंने यह बताया कि जाति, वर्ग और संस्कृति एक-दूसरे को समर्थन देकर समाज में भेदभाव और असमानता को बनाए रखते हैं।
  • हालांकि उन्होंने लैंगिक पहलू को सीधे शामिल नहीं किया, उनका कार्य इंटरसेक्शनल सोच की पूर्व-पीठिका के रूप में महत्वपूर्ण है।

Combahee River Collective (1970s)

  • एक ब्लैक लेस्बियन सोशलिस्ट फेमिनिस्ट समूह जिसने 1970 के दशक में “interlocking oppressions” (एक-दूसरे से जुड़ी वंचनाएं) की बात की।
  • उन्होंने नस्लवाद, लिंगभेद और विषमलैंगिकता (heteronormativity) को एक साथ विश्लेषण करने की आवश्यकता पर बल दिया।
  • इनके विचारों ने भी इंटरसेक्शनल थ्योरी के विकास में आधार प्रदान किया।

समकालीन विस्तार

इंटरसेक्शनैलिटी अब केवल जाति और लिंग तक सीमित नहीं रही। इसमें अब निम्नलिखित को भी शामिल किया जाता हैं:

  • सामाजिक-आर्थिक वर्ग (socioeconomic class)
  • यौनिक रुझान (sexual orientation)
  • आयु (age)
  • शारीरिक/बौद्धिक अक्षमता (disabilities)
  • धार्मिक पहचान, आदि।

यह विचार इस बात पर ज़ोर देता है कि एक व्यक्ति की पहचान के ये सभी पहलू अलग-अलग नहीं रहते, बल्कि आपस में जुड़े होते हैं और मिलकर उसके सामाजिक अनुभव चाहे विशेषाधिकार हो या उत्पीड़न को आकार देते हैं।

कैसे कार्य करता है इंटरसेक्शनैलिटी?

इंटरसेक्शनैलिटी एक विश्लेषणात्मक उपकरण की तरह काम करता है:

  1. सामाजिक ढाँचों (जैसे जाति, पितृसत्ता, पूंजीवाद) को समझने में मदद करता है कि वे कैसे आपस में मिलकर किसी व्यक्ति या समूह पर प्रभाव डालते हैं।
  2. नीतियों और सामाजिक आंदोलनों में समावेशन (inclusion) को बेहतर बनाता है, ताकि केवल बहुसंख्यक स्त्रियों या किसी एक वर्ग की बजाय वंचित समुदायों की विविध पहचान भी शामिल हों।
  3. यह दिखाता है कि एक ही समस्या (जैसे घरेलू हिंसा) सभी के लिए समान नहीं होती, जैसे एक अमीर महिला और एक दलित महिला के अनुभव एक जैसे नहीं होंगे।

इंटरसेक्शनैलिटी की आलोचना

  • आलोचकों का मानना है कि इंटरसेक्शनैलिटी का दृष्टिकोण समाज की समस्याओं को हल करने के बजाय विभाजनकारी रेखाओं को प्राथमिकता देता है।
  • यह विभिन्न उत्पीड़ित समूहों के बीच समानताओं की बजाय अंतर पर ज़्यादा ज़ोर देता है।

जब हर समूह केवल अपनी विशिष्ट पीड़ा की बात करता है, तो यह समग्र सामाजिक एकता और साझा उद्देश्य को बाधित करता है।

  • इंटरसेक्शनैलिटी को अक्सर पहचान आधारित राजनीति (identity politics) से जोड़ा जाता है।
  • आलोचक कहते हैं कि यह दृष्टिकोण व्यक्ति को सिर्फ उसकी पहचानों (जैसे जाति, लिंग, वर्ग, यौनिकता) तक सीमित कर देता है, और उसे व्यापक मानव अनुभवों से अलग कर देता है।
  • इंटरसेक्शनैलिटी की आलोचना यह भी की जाती है कि यह संगठित और समन्वित संघर्षों को कमजोर करती है।
  • जब हर समूह केवल अपनी विशिष्ट वंचनाओं को उजागर करता है, तो वृहद सामाजिक समस्याओं पर साझा कार्यवाही मुश्किल हो जाती है।

‘संयुक्त प्रतिरोध’ की जगह ‘टुकड़े-टुकड़े आंदोलनों’ की वृद्धि होती है, जिससे सामाजिक परिवर्तन की ताकत कमजोर पड़ती है।

इंटरसेक्शनैलिटी के समर्थकों का तर्क है कि:

  • विविध अनुभवों को पहचानना विभाजन नहीं, गहन समझ और न्यायपूर्ण नीति की ओर ले जाता है।
  • यह दृष्टिकोण सामाजिक आंदोलनों को सिर्फ बहुसंख्यक अनुभवों तक सीमित होने से बचाता है।
  • यह दृष्टिकोण सभी आवाज़ों को शामिल कर समावेशी एकता बनाता है, न कि केवल समानता पर आधारित एकरूपता।

निष्कर्ष

इंटरसेक्शनैलिटी पर आलोचना एक ज़रूरी बहस को जन्म देती है कि सामाजिक न्याय के लिए क्या केवल समानताएँ पर्याप्त हैं, या हमें भिन्नताओं को भी स्वीकार और संबोधित करना चाहिए?

यह विचारधारा अब भी न केवल समाजशास्त्र में, बल्कि नीतिगत, राजनीतिक और शैक्षणिक क्षेत्रों में भी विकासशील और गतिशील रूप में सामने आ रही है।

What do you think?

नागरिकता: Jus Soli और Jus Sanguinis का सिद्धांत

मंदिरों के माध्यम से सामाजिक न्याय