प्रारंभिक शिक्षा पश्चिम बंगाल में हुई, और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में उनका शोध यह दर्शाता है कि उन्होंने अकादमिक जीवन की शुरुआत एक पश्चिमी दृष्टिकोण से की थी। उनकी पहली पुस्तक — Arms, Alliances and Stability (1975) — शीत युद्ध की वैश्विक राजनीति के ढाँचे का विश्लेषण करती है। लेकिन वह इस विषय से संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने महसूस किया कि भारत जैसे समाज की जटिलताएँ जाति, धर्म, उपनिवेश, परंपरा और राष्ट्रवाद — पश्चिमी मॉडल से नहीं समझी जा सकतीं। इसलिए उनका बौद्धिक झुकाव राजनीतिक सिद्धांत, भारतीय राष्ट्रवाद, और ग्राम्शी-प्रेरित मार्क्सवाद की ओर हुआ।
मुख्य विचार
सबाल्टर्न दृष्टिकोण:
• चटर्जी का सबाल्टर्न स्टडीज ग्रुप से जुड़ना उनकी बौद्धिक दिशा को निर्णायक रूप से बदल देता है। रणजीत गुहा के नेतृत्व में बने इस समूह ने कहा कि इतिहास को ‘राजा-महाराजाओं’ या अभिजनों से नहीं, ‘हाशिए के समूहों’ (दलित, आदिवासी, किसान, औरतें) के नजरिए से पढ़ना चाहिए।
• चटर्जी के लिए यह सिर्फ इतिहास की नई शैली नहीं थी, बल्कि यह एक राजनीतिक हस्तक्षेप था।
• उनका लेखन अब भारत के “राज्य बनाम समाज” के संबंधों, और “असंगठित, बिखरे, मगर जीवंत” जनांदोलनों की शक्ति को समझने की कोशिश बन गया।
राष्ट्रवाद
• Nationalist Thought and the Colonial World (1986)यह उनकी सबसे प्रभावशाली पुस्तक मानी जाती है, जो उपनिवेश और राष्ट्रवाद पर स्थापित पश्चिमी सिद्धांतों को एक वैचारिक चुनौती देती है।यूरोपीय सिद्धांत यह मानते हैं कि तीसरी दुनिया का राष्ट्रवाद सिर्फ यूरोपीय राष्ट्रवाद की एक नकल है।
• चटर्जी ने कहा कि भारतीय राष्ट्रवाद स्वतंत्र सांस्कृतिक जमीनपर खड़ा है।
यह “निष्क्रिय क्रांति” (Passive Revolution) जैसा है, जिसमें जनसंख्या का बड़ा हिस्सा बिना सत्ता हथियाए भी राजनीतिक हो जाता है।
• यह विचार ग्राम्शी से प्रेरित है, लेकिन चटर्जी इसका भारतीयकरण करते हैं — यह उनका सैद्धांतिक कौशल है।
दोहरे राष्ट्रवाद की अवधारणा
• पुस्तक: The Nation and Its Fragments (1993) इस किताब में पार्थ चटर्जी ने भारतीय राष्ट्रवाद की उस संरचना का विश्लेषण किया है जिसे आंतरिक और बाह्य डोमेन (Inner and Outer Domain) के रूप में समझा जा सकता है। यह विचार उन्होंने बेनडिक्ट एंडरसन की ‘Imagined Communities’ को एक उत्तर-औपनिवेशिक परिप्रेक्ष्य में आलोचनात्मक रूप से पढ़ते हुए विकसित किया।
• आंतरिक डोमेन: उस क्षेत्र को कहते हैं जो भारतीय समाज कीसंस्कृति, परंपरा, धर्म, भाषा और पारिवारिक मूल्यों से जुड़ा होता है। यह डोमेन औपनिवेशिक प्रभावों से भारतीय आत्मा की रक्षा करने के लिए राष्ट्रवादियों द्वारा सुरक्षित रखा गया। यहाँ राष्ट्रवादी नेताओं ने पश्चिमी आधुनिकता को खारिज करते हुए भारतीय अस्मिता और सांस्कृतिक गौरव को बनाए रखने का प्रयास किया।
• बाह्य डोमेन: वह क्षेत्र है जिसमें भारतीय राष्ट्रवादियों ने पश्चिमी औपनिवेशिक प्रशासन, कानून, आधुनिक राज्य संस्थाओं, लोकतंत्र और विज्ञान को राजनीतिक बदलाव के उपकरण के रूप में अपनाया। यह डोमेन राजनीतिक आधुनिकता की ज़रूरत को स्वीकार करता है ताकि औपनिवेशिक शासन से मुकाबला किया जा सके।
राजनीतिक समाज (Political Society) क्या है?
• पार्थ चटर्जी के अनुसार, भारत जैसे उत्तर-औपनिवेशिक लोकतंत्र में एक ऐसा सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र मौजूद है जो”सिविल सोसाइटी” (civil society) की औपचारिक परिभाषाओं से बाहर है, परन्तु राजनीति का असली केंद्र वहीं पर स्थित है। इसी क्षेत्र को वह “Political Society” कहते हैं।
• चटर्जी का कहना है कि भारत जैसे देश में, राज्य और गरीब नागरिकों के बीच का रिश्ता कानूनी अधिकारों पर आधारित नहीं होता, बल्कि यह राजनीतिक लेन-देन और सामयिक व्यवस्थाओं पर आधारित होता है।
राजनीतिक समाज की तीन प्रमुख विशेषताएँ
• हाशिए के समूहों की पहचान: Political Society उस”बहुसंख्यक भारत” का प्रतिनिधित्व करता है जो न तो औपचारिक संस्थाओं में शामिल है, न ही अभिजात्य सिविल सोसाइटी का हिस्सा है। इसमें वे लोग शामिल हैं जो गाँवों, झुग्गियों, श्रमिक कॉलोनियों में रहते हैं।
• स्थानीय शासन और बातचीत की राजनीति: राज्य और राजनीतिक समाज के बीच रिश्ता हमेशा “स्थायी और संस्थागत” नहीं होता। यह एक तात्कालिक और व्यावहारिक राजनीतिक सौदा होता है — जैसे, वोट के बदले सुविधा।
• राजनीतिक व्यवहार का नया दृष्टिकोण: यह दृष्टिकोण लोकतंत्र को केवल चुनाव, संसद और अधिकार से नहीं जोड़ता, बल्कि यह दिखाता है कि लोकतंत्र रोज़मर्रा की ज़िंदगी में कैसे घटित होता है।
उदाहरण:
• झोपड़पट्टी में रहने वाले लोग बिना वैध अधिकारों के रहते हैं। वेराज्य से बिजली, पानी, राशन, रोजगार की माँग करते हैं।
• राज्य भी उन्हें कानूनी रूप से मान्यता नहीं देता, पर स्थानीय नेताओं या अफसरों के माध्यम से उन्हें सुविधाएँ देता है।
• यह संबंध “संवैधानिक अधिकार” नहीं, बल्कि “राजनीतिक प्रबंधन” से चलता है।
राजनीतिक समाज क्यों महत्वपूर्ण है?
• चटर्जी ने “Political Society” का सिद्धांत जो यह बताया किभारत में राजनीति सिर्फ औपचारिक संस्थाओं में नहीं होती, बल्कि गरीब जनता और राज्य के बीच जटिल संवाद के ज़रिये चलती है।
• यह विचार बताता है कि भारतीय लोकतंत्र में कानून की सीमाओं से बाहर भी लोकतंत्र जीवित रहता है।
• Political Society वह ज़मीन है जहाँ लोकतंत्र साँस लेता है, भले ही वह संविधान की किताबों में दर्ज न हो।
महत्वपूर्ण पुस्तक
1. 1975 – Arms, Alliances and Stability: The Development of the Structure of International Politics
(अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आधारित, पीएच.डी. शोध)
2. 1978 – State of Political Theory: Some Marxist Essays(सह-लेखक: सुदीप्त कविराज आदि)
(राजनीतिक सिद्धांत और मार्क्सवाद)
3. 1986 – Nationalist Thought and the Colonial World: A Derivative Discourse?
(भारतीय राष्ट्रवाद और उपनिवेशवाद पर आलोचनात्मक दृष्टि)
4. 1993 – The Nation and Its Fragments: Colonial and Postcolonial Histories
(राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक अस्मिता और आधुनिकता)
5. 1997 – A Princely Impostor? The Strange and Universal History of the Kumar of Bhawal
(इतिहास और पहचान की उपनिवेशकालीन कथा)
6. 1999 – A Possible India: Essays in Political Criticism
(भारतीय लोकतंत्र, संस्कृति और आलोचना)
7. 2004 – The Politics of the Governed: Reflections on Popular Politics in Most of the World
(Political Society का सिद्धांत और रोज़मर्रा की राजनीति)
8. 2008 – Politics of the Poor: Negotiating Democracy in Contemporary India
(गरीब तबकों की लोकतांत्रिक भागीदारी)
9. 2011 – Lineages of Political Society: Studies in Postcolonial Democracy
(राजनीतिक समाज की ऐतिहासिक व्याख्या)
10. 2012 – The Black Hole of Empire: History of a Global Practice of Power
(स्मृति, उपनिवेश और शक्ति की वैश्विक कहानी)
11. 2020 – I Am the People: Reflections on Popular Sovereignty Today
(जनता की संप्रभुता और लोकतांत्रिक विमर्श)
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