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रंजीत गुहा

रंजीत गुहा का जन्म मई 1923 में बाकरगंज (पूर्वी बंगाल) में हुआ था। उनके पिता राधिका रंजन गुहा ढाका हाईकोर्ट के न्यायाधीश थे।
गांव में प्रारंभिक शिक्षा के बाद उन्होंने कलकत्ता में पढ़ाई की और आगे प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाख़िला लिया। यहीं वे मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित हुए और कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गए। इतिहास में एमए करने के दौरान सुशोभन सरकार जैसे महान शिक्षकों से उनका संपर्क हुआ, जिनका उनके बौद्धिक विकास पर गहरा प्रभाव पड़ा।
स्वतंत्रता से पहले वे पार्टी के अखबारों – ‘स्वाधीनता’ और ‘पीपल्स वार’ – से जुड़े रहे।
1947 में वे पेरिस में एक युवा सम्मेलन में भाग लेने गए और इस दौरान उन्होंने पूर्वी यूरोप, पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका की यात्रा की
भारत लौटकर उन्होंने कुछ समय तक मजदूर आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी की और कलकत्ता के विभिन्न कॉलेजों में पढ़ाया। 1956 में हंगरी पर सोवियत आक्रमण के विरोध में उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ दी।

मुख्य विचार

सबाल्टर्न स्टडीज़

सन् 1982 में ‘सबाल्टर्न स्टडीज़’ नाम की एक किताब सीरीज़ की शुरुआत हुई, जिसका पहला खंड रंजीत गुहा ने संपादित किया। इस सीरीज़ का मकसद यह था कि इतिहास को राजा-महाराजाओं या नेताओं की जगह आम लोगों – जैसे किसान, मजदूर, औरतों और आदिवासियों – की नजर से लिखा जाए।
पहले खंड में रंजीत गुहा के साथ-साथ पार्थ चटर्जी, शाहिद अमीन, डेविड आर्नाल्ड, ज्ञानेंद्र पांडे और डेविड हार्डिमान के लेख शामिल थे। इन लेखों में बताया गया कि आज़ादी की लड़ाई और समाज में बदलाव लाने वाले कई ऐसे लोग थे, जिनकी बातें इतिहास की किताबों में कम दिखाई देती हैं।
बाद में इस ग्रुप से कई और जाने-माने विद्वान जुड़ गए, जैसे – गौतम भद्र, दीपेश चक्रवर्ती, सुमित सरकार, रामचंद्र गुहा, तनिका सरकार, वीणा दास और गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक। खासकर स्पिवाक ने यह सवाल उठाया कि – “क्या गरीब, दलित, आदिवासी और औरतें अपनी बात कह सकती हैं? और क्या समाज उनकी आवाज़ सुनता है?”
‘सबाल्टर्न स्टडीज़’ ने इतिहास को एक नया नजरिया दिया, जिसमें यह बताया गया कि आम लोग भी इतिहास बनाते हैं और उनके अनुभव भी उतने ही ज़रूरी हैं जितने किसी नेता या राजा के।

सबाल्टर्न’ शब्द का मतलब क्या है?

‘सबाल्टर्न’ शब्द का मतलब होता है हाशिये पर रखा गया या समाज में नीचे समझा जाने वाला वर्ग, जैसे – किसान, मजदूर, आदिवासी, दलित आदि। इतिहास में इन लोगों की आवाज़ अक्सर गायब रही है। सबाल्टर्न स्टडीज़ का मकसद था इन दबे-कुचले लोगों की कहानी को इतिहास में जगह देना।

बाल्टर्न स्टडीज़ का उद्देश्य क्या था?

दक्षिण एशिया के इतिहास को आम लोगों के नजरिये से देखना, न कि सिर्फ राजाओं, नेताओं या अंग्रेज़ों के नजरिये से।
इतिहास लेखन में जो अभिजात (elites) यानी ऊंचे तबकों का पक्ष लिया गया है, उसे तोड़ना और आम जनता की राजनीति, संघर्ष और सोच को सामने लाना।

पहले खंड में रंजीत गुहा ने 16 अहम बिंदु रखे, जिनमें उन्होंने कहा

भारत के राष्ट्रवादी इतिहास को ज़्यादातर ऊंचे वर्गों ने लिखा है।
इसमें यह नहीं बताया गया कि गांव के किसान या आम लोग इस राष्ट्रवाद में कैसे शामिल हुए थे।
इनकी सोच, भाषा और आंदोलन अलग थे, और ये अभिजात्य वर्ग के दबाव से आज़ाद थे।

‘A Rule of Property for Bengal ’ (1963) (पुस्तक)

इतिहास लेखन की शुरुआत 1963 में प्रकाशित उनकी से हुई। इस पुस्तक में उन्होंने स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement) की वैचारिक पृष्ठभूमि का गहराई से विश्लेषण किया। उन्होंने बताया कि यह व्यवस्था अचानक लागू नहीं हुई थी, बल्कि इसके पीछेफ्रांसीसी फिजियोक्रेट विचारकों के सिद्धांतों और ब्रिटिश अधिकारियों जैसे अलेक्ज़ेंडर डो, हेनरी पटुलो, फिलिप फ्रांसिस और टॉमस लॉ की भूमिका रही थी।
इस पुस्तक ने दिखाया कि किस प्रकार अंग्रेजों ने भूमि को एक निजी संपत्ति के रूप में परिभाषित किया, जिससे किसानों की पारंपरिक जीवन-व्यवस्था पर गहरा असर पड़ा।
Elementary Aspects of Peasant Insurgency in Colonial India’(पुस्तक)
भारतीय इतिहास लेखन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया। इस पुस्तक में उन्होंने 18वीं और 19वीं शताब्दी के किसान विद्रोहों का अध्ययन किया, जो अंग्रेजों के अन्यायपूर्ण शासन के खिलाफ हुआ करते थे।
रंजीत गुहा ने इन आंदोलनों को सिर्फ हिंसक विरोध नहीं माना, बल्कि उन्हें एक सुसंगत वैचारिक और मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के रूप में देखा। उन्होंने बताया कि ये प्रतिरोध ‘अनपढ़’ या ‘बिना दिशा’ के नहीं थे, बल्कि उनमें रोज़मर्रा की प्रतिरोधात्मक संस्कृति, सचेत विरोध, और सामाजिक चेतना स्पष्ट रूप से झलकती थी।

रंजीत गुहा के प्रमुख व्याख्यान और पुस्तकें

1. एन इंडियन हिस्टोरियोग्राफी ऑफ इंडिया’ (1987)
बंगाल में 19वीं सदी के इतिहास लेखन, खासकर बंकिमचंद्र पर आधारित।
2. ए डिसिप्लिनरी आसपेक्ट ऑफ इंडियन नेशनलिज़्म’
मेरिल कॉलेज, कैलिफोर्निया में दिए गए उनके व्याख्यान।
3. हिस्ट्री एट द लिमिट ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री’ (2000)
कोलंबिया यूनिवर्सिटी में उन्होंने यह व्याख्यान दिया, जिसमें बताया कि कैसे औपनिवेशिक शक्तियों ने इतिहास को अपने तरीके से गढ़ा
4. द स्मॉल वॉइस ऑफ हिस्ट्री’
उनके लेखों और भाषणों का संकलन, जिसे पार्थ चटर्जी ने संपादित किया।

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पार्थ चटर्जी

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