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आत्म-सम्मान आंदोलन: तर्क, समानता और सामाजिक न्याय

ई. वी. रामास्वामी नाइकर (पेरियार)

आत्म-सम्मान आंदोलन एक प्रगतिशील सामाजिक अभियान था, जिसका मकसद उस समय की हिंदू सामाजिक संरचना को बदलकर ऐसा नया समाज बनाना था, जिसमें जाति, धर्म और ईश्वर-आस्था का दबाव न हो, बल्कि तर्क, समानता और समावेशिता हो। इसे ई. वी. रामास्वामी नाइकर (पेरियार) ने 1925 में तमिलनाडु में शुरू किया।

आत्मसम्मान आंदोलन के बारे में

  • यह आंदोलन समतावादी था, जिसने ब्राह्मणवादी प्रभुत्व को चुनौती दी और समाप्त करने का प्रयास किया।
  • इसका फोकस पिछड़े वर्गों और महिलाओं को बराबरी का हक दिलाने के साथ-साथ तमिल, तेलुगू, कन्नड़ और मलयालम जैसी द्रविड़ भाषाओं को पुनर्जीवित करने और उनका सम्मान बढ़ाने पर था।
  • आत्म-सम्मान आंदोलन एक प्रमुख सामाजिक सुधार आंदोलन था, जिसकी शुरुआत 1925 में ई. वी. रामास्वामी नायकर (पेरियार) ने तमिलनाडु में की।
  • इस आंदोलन ने हिंदू पौराणिक कथाओं और उन धार्मिक मान्यताओं का खंडन किया, जिनके आधार पर ऊँच-नीच और जातिगत भेदभाव को उचित ठहराया जाता था।
  • आंदोलन का मानना था कि ब्राह्मणवाद ने निर्दोष लोगों का शोषण किया है और तमिलनाडु में ब्राह्मणों को सामाजिक और धार्मिक नेता मानने की परंपरा ने असमानता को बढ़ावा दिया है।
  • आंदोलन के प्रचार के लिए 1924 में शुरू किया गया तमिल साप्ताहिक कुडी अरासु इसका मुख्य मुखपत्र बना, जबकि बाद में पेरियार ने विदुथलाई (स्वतंत्रता) और पक्कुथारिउ (सामान्य ज्ञान) जैसे दैनिक भी शुरू किए।
  • 1920 के दशक के अंत तक कुडी अरासु आत्म-सम्मान आंदोलन के संदेश और विचारों को जनता तक पहुँचाने का सबसे प्रभावी माध्यम बना रहा।

आत्मसम्मान आंदोलन के उद्देश्य

आत्म-सम्मान आंदोलन का मुख्य उद्देश्य जाति व्यवस्था का उन्मूलन, तर्कसंगत विचारों को बढ़ावा देना और ब्राह्मणवादी परंपराओं के आधिपत्य को चुनौती देना था। आत्म-सम्मान आंदोलन के दो पर्चे हैं: नामथु कुरिक्कोल और तिरवितक कलका लतीयम , जो इसके उद्देश्यों को रेखांकित करते हैं:

  • जाति व्यवस्था का अंत: जन्म और जाति के आधार पर बने भेदभाव और ऊँच-नीच को खत्म करना।
  • लैंगिक समानता: पुरुष और महिला, दोनों को जीवन और कानून में समान अधिकार व सम्मान देना।
  • समान अवसर: हर व्यक्ति को शिक्षा, रोजगार और प्रगति के समान मौके उपलब्ध कराना।
  • भाईचारा: अछूत प्रथा मिटाकर समाज में आपसी मित्रता और एकता स्थापित करना।
  • अनाथ विधवाओं की सहायता: उनके लिए आश्रय गृह और शिक्षा संस्थान बनाना।
  • धार्मिक संस्थानों पर रोक: नए मंदिर, मठ या वैदिक स्कूल न बनाना, और नाम से जातिसूचक शब्द हटाना।
  • शिक्षा रोजगार पर जोर: सरकारी धन का उपयोग बेरोजगारों की शिक्षा और रोजगार सृजन में करना।

निष्कर्ष

आत्म-सम्मान आंदोलन ने दक्षिण भारत, विशेषकर तमिलनाडु में सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक सुधारों की एक नई लहर पैदा की। इसने जातिवाद, ब्राह्मणवादी प्रभुत्व, अंधविश्वास और सामाजिक भेदभाव को चुनौती दी तथा समानता, तर्कवाद और आत्मनिर्भरता के मूल्यों को आगे बढ़ाया।
हालाँकि, यह आंदोलन महिलाओं और निम्न जातियों को पूर्ण समान अधिकार दिलाने, तथा गरीब और वंचित वर्गों की आर्थिक स्थिति सुधारने में सीमित सफलता ही पा सका और इसका प्रभाव मुख्यतः तमिलनाडु तक ही रहा।
आज भी जातिवाद, लैंगिक असमानता और सामाजिक अन्याय जैसी चुनौतियाँ मौजूद हैं। ऐसे में शिक्षित और जागरूक युवाओं की ज़िम्मेदारी है कि वे आत्म-सम्मान आंदोलन के आदर्शों को आगे बढ़ाएँ और एक न्यायसंगत, समान और तर्कसंगत समाज के निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाएँ।

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