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ग्रैनविल ऑस्टिन

ग्रेनविल ऑस्टिन (1927-2014) एक ऐसे विद्वान थे जिन्होंने भारतीय संविधान की निर्माण-प्रक्रिया, उसकी बुनियादी सोच और लोकतांत्रिक असर को गहराई से समझाया।
ऑस्टिन की खास बात यह थी कि उन्होंने बहुत गहराई से काम किया और एक खास स्तर की गुणवत्ता बनाई। वे इतिहास, राजनीति और संविधान पर एक साथ लिखते थे, जिससे उनकी किताबें बहुत खास बन जाती थीं।
भारतीय संविधान और संवैधानिक चर्चाओं के अमेरिकी विद्वान् थे। भारतीय संविधान के बारे में उनके लेखन और योगदान के लिए उन्हें वर्ष 2011 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था।

दो महत्वपूर्ण पुस्तक

The Indian Constitution: Cornerstone of a Nation
Working a Democratic Constitution
ऑस्टिन ने यह दो ही बड़ी किताबें लिखीं, लेकिन वे इतनी प्रभावशाली थीं कि उन्हें लगभग “क्लासिक” का दर्जा मिल गया।
उनकी किताबे आज भी बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी कई बार अपने फैसलों में ऑस्टिन के विचारों का ज़िक्र करता है।

सविंधान: ग्रेनविल ऑस्टिन के मुख्य विचार  

ग्रेनविल ऑस्टिन ने कहा कि भारत के संविधान के तीन मुख्य लक्ष्य थे:

भारत को एकजुट और अखंड बनाए रखना।
लोकतंत्र को मजबूत करना।
समाज में बदलाव लाने की ज़मीन तैयार करना।
संविधान की सफलता के सन्दर्भ में बताते है कि,भारत में लोकतंत्र अच्छी तरह से चल रहा है, और यह संविधान की सफलता है।भारतीय संविधान को एक “सामूहिक आकांक्षा” (समाज की साझा उम्मीदों) का नतीजा माना। उन्होंने कहा कि यह केवल किसी का नकल किया हुआ संविधान नहीं है, बल्कि भारत की ज़रूरतों के अनुसार बनाया गया है।
कुछ लोग मानते थे कि भारतीय संविधान विदेशी विचारों से लिया गया है, लेकिन ऑस्टिन ने इसे नकारते हुए इसे पूरी तरह भारतीय सोच का हिस्सा माना।
उनके विचार केवल तथ्यों तक सीमित नही है इसके साथ यह भी बताते है, कि संविधान सभा के अलग-अलग लोग अलग-अलग मुद्दों पर क्या सोचते थे।
ऑस्टिन ने संविधान को सिर्फ ब्रिटिश कानून का परिणाम नहीं माना, बल्कि इसे भारत के समाज, राजनीति और बहसों की उपज माना।
कुछ विचारकों का मानना था कि संविधान सभा के सभी फैसले कुछ खास नेताओं के छोटे समूह ने लिए, और कई प्रावधानों पर चर्चा या बहस नहीं हुई। लेकिन ऑस्टिन इससे सहमत नहीं थे। उन्होंने बताया कि संविधान सभा में गहरी सोच, बहस और समाज की जरूरतों को ध्यान में रखकर फैसले लिए गए थे।
संविधान को एक “जीवंत दस्तावेज़” (living document) की तरह दिखाया, जिसमें समय के अनुसार बदलाव की संभावना रहती है।
ऑस्टिन ने कहा कि भारत का राजनीतिक ढांचा एक “सहकारी संघवाद” (Cooperative Federalism) पर आधारित है, जहां केंद्र और राज्य मिलकर काम करते हैं।
भारत की जटिलता को देखकर ऑस्टिन ने कहा कि संविधान को केवल किताब की तरह न पढ़ा जाए, बल्कि उसे असल ज़िंदगी में किस तरह काम करता है – इस रूप में समझा जाना चाहिए।
जब देश में आपातकाल लगा था, तब चुनाव नहीं हुए, लोगों की आज़ादी छीनी गई और न्यायपालिका (कोर्ट) को कमजोर किया गया। फिर भी लोगों का संविधान पर भरोसा बना रहा।

Working a Democratic Constitution

डॉ. पामर नाम के एक और विद्वान ने ऑस्टिन की किताब की समीक्षा करते हुए कहा कि यह किताब संविधान के लोकतांत्रिक पक्ष को बेहतर तरीके से समझने का रास्ता दिखाती है
वर्किंग अ डेमोक्रेटिक कॉन्स्टिट्यूशन” (1999 में छपी)। इसमें उन्होंने बताया कि आज़ादी के बाद भारत में संविधान कैसे काम करता रहा।
यह किताब दिखाती है कि संविधान ने भारत में लोकतंत्र को कैसे बचाया।
किताब आज़ादी के बाद की घटनाएं दिखाती है, जैसे इंदिरा गांधी की हत्या तक की बातें।

पहली किताब की तारीफ और कुछ आलोचना

कुछ विद्वानों ने उनकी पहली किताब की तारीफ की उन्होंने कहा कि यह बहुत अच्छी राजनीतिक कहानी है। लेकिन कुछ लोगों ने कहा कि ऑस्टिन ने संविधान बनाने वालों के कुछ खास लोगों की भूमिका पर ध्यान नहीं दिया।
कुछ विदेशी लोग सोचते थे कि भारत में संविधान और कानून अच्छे से नहीं चल पाएंगे। लेकिन ऑस्टिन ने कहा कि भारत का संविधान बहुत समझदारी से बना है और यह अच्छा काम कर रहा है।
ऑस्टिन ने बताया कि भारत के लोग संविधान को बहुत मानते हैं — जैसे कुछ लोग धार्मिक किताबों को मानते हैं
एक विद्वान बिपिन चंद्र ने कहा कि ऑस्टिन ने आपातकाल के समय भारत की सच्चाई को ठीक से नहीं दिखाया। उन्हें लगा कि ऑस्टिन भारत की राजनीति से दूर हो गए थे। 2010 में एक लेख में ऑस्टिन ने माना कि भारत का संविधान और राजनीतिक सफर बहुत सराहनीय है। उन्होंने लिखा कि भारत की लोकतांत्रिक सफलता को नकारा नहीं जा सकता।


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