मुद्दा क्या है?
संविधान के अनुच्छेद 75 में प्रधानमंत्री और उनकी मंत्रिमंडल के गठन के बारे में प्रावधान किया गया है। अब नए संशोधन के मुताबिक, अगर कोई मंत्री लगातार 30 दिन तक गंभीर अपराध (5 वर्ष या उससे अधिक की सजा वाले अपराध) के आरोप में जेल में है तो राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री की सलाह पर उसे पद से हटा देंगे। यदि प्रधानमंत्री सलाह नहीं देते तो 31वें दिन के बाद वह मंत्री अपने आप पद से हटा हुआ मान लिया जाएगा। अगर प्रधानमंत्री खुद कार्यकाल के दौरान 30 दिन लगातार ऐसे आरोप में जेल में रहे हैं, तो उन्हें 31वें दिन तक इस्तीफा देना होगा। यदि इस्तीफा नहीं दिया, तो उनका पद खुद ही समाप्त मान लिया जाएगा।
इस 130वां संशोधन विधेयक, 2025 को लोकसभा में पेश किया गया और बाद में विपक्ष के तीव्र विरोध के बाद इसे संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) को भेज दिया गया।
विधेयक में केंद्रीय मंत्रिपरिषद, राज्य मंत्रिपरिषद और दिल्ली के लिए विशेष प्रावधानों से संबंधित अनुच्छेद 75, 164 और 239एए में संशोधन करने का प्रावधान है।
सुनने में यह अच्छा लगता है, क्योंकि इससे राजनीति से अपराधियों को दूर रखने में मदद मिलेगी।
लेकिन असली सवाल है कि क्या यह भारत के संघीय ढांचे (Federalism) के खिलाफ है?
130वें संशोधन विधेयक में क्या प्रस्ताव है?
- विधेयक में गंभीर अपराधों के लिए जेल में बंद मंत्रियों को हटाने के लिए एक तंत्र प्रस्तुत किया गया है:
- यदि किसी मंत्री को पांच वर्ष या उससे अधिक कारावास की सजा वाले अपराध के लिए गिरफ्तार कर लिया जाता है और लगातार 30 दिनों तक हिरासत में रखा जाता है, तो वह अपना पद खो देगा।
- राष्ट्रपति को मुख्यमंत्री की सलाह पर कार्य करते हुए , हिरासत के 31वें दिन तक मंत्री को हटाना होगा।
- यदि कोई सलाह नहीं दी जाती है तो मंत्री स्वतः ही अपने पद से हट जाता है।
- हालाँकि, विधेयक में मंत्री के हिरासत से रिहा होने के बाद पुनः नियुक्ति की अनुमति दी गई है ।
- यह आशंका है कि गंभीर आपराधिक मामलों में आरोपी मंत्री संवैधानिक नैतिकता, सुशासन और जनता के विश्वास से समझौता कर सकते हैं ।
अनुच्छेद 368 यह बताता है कि भारतीय संविधान में संशोधन (Amendment) कैसे किया जाएगा।
भारत में संविधान संशोधन की प्रक्रिया
भारत के संविधान में संशोधन की प्रक्रिया अनुच्छेद 368 में निर्धारित की गई है। इसमें निम्नलिखित चरण शामिल हैं:
- संशोधन विधेयक केवल संसद में ही पेश किया जा सकता है, राज्य विधानसभाओं में नहीं। इसे लोकसभा या राज्यसभा में किसी मंत्री या सदस्य द्वारा पेश किया जा सकता है।
- विधेयक को संसद के प्रत्येक सदन – लोकसभा और राज्यसभा – द्वारा विशेष बहुमत से पारित किया जाना चाहिए। इसका मतलब है कि इसे प्रत्येक सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले कम से कम दो-तिहाई सदस्यों द्वारा समर्थित होना चाहिए।
- विधेयक को कम से कम आधे राज्य विधानसभाओं द्वारा साधारण बहुमत से अनुमोदित किया जाना चाहिए। यह संविधान के संघीय ढांचे को बदलने के लिए संशोधन के मामले में है।
- संशोधन विधेयक को राष्ट्रपति के पास स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किया जाता है। राष्ट्रपति स्वीकृति को रोक नहीं सकते। उन्हें विधेयक पर हस्ताक्षर करना होगा, जिससे यह संविधान संशोधन अधिनियम बन जाएगा।
- राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद संशोधन विधेयक संविधान संशोधन अधिनियम बन जाता है। इसके बाद यह संविधान में औपचारिक संशोधन करता है।
संवैधानिक संशोधनों के तीन प्रकार
साधारण बहुमत द्वारा संशोधन
ये संशोधन संसद के दोनों सदनों में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के साधारण बहुमत से पारित किए जा सकते हैं। ऐसे संशोधनों के उदाहरणों में शामिल हैं:
- लोकसभा और राज्यसभा में सीटों की संख्या में परिवर्तन करने के लिए संशोधन, और
- किसी राज्य का नाम बदलने के लिए संशोधन।
विशेष बहुमत द्वारा संशोधन
इन संशोधनों के लिए संसद के दोनों सदनों में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है। ऐसे संशोधनों के उदाहरणों में शामिल हैं:
- मौलिक अधिकारों में परिवर्तन हेतु संशोधन,
- राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों में परिवर्तन करने के लिए संशोधन, और
- संशोधन से सरकार की संरचना में परिवर्तन आएगा।
आधे राज्यों के अनुसमर्थन के साथ विशेष बहुमत द्वारा संशोधन
इन संशोधनों के लिए संसद के दोनों सदनों में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है। इसके लिए आधे राज्य विधानमंडलों के अनुमोदन की भी आवश्यकता होती है। ऐसे संशोधनों के उदाहरणों में शामिल हैं:
- संविधान के मूल ढांचे में परिवर्तन करने के लिए संशोधन, और
- राज्यों की शक्तियों में परिवर्तन करने के लिए संशोधन।
भारतीय संविधान की अनुपालना का दायरा
भारतीय संविधान में संशोधन की संभावनाएँ बहुत व्यापक हैं। संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति पर कुछ प्रतिबंध हैं।
संसद संविधान के मूल ढांचे में संशोधन नहीं कर सकती। संविधान के मूल ढांचे में निम्नलिखित विशेषताएं शामिल हैं:
- लोगों की संप्रभुता
- कानून का शासन
- शक्तियों का पृथक्करण
- न्यायिक समीक्षा
- संघवाद
- गणतंत्रवाद
- धर्मनिरपेक्षता
- समानता
- स्वतंत्रता
- न्याय
संविधान के मूल ढांचे में बदलाव लाने वाला कोई भी संशोधन अमान्य है। इसके अलावा, संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति पर कुछ अन्य प्रतिबंध भी हैं।
- संसद अपने कार्यकाल को बढ़ाने या घटाने के लिए संविधान में संशोधन नहीं कर सकती।
- संसद राष्ट्रपति या सर्वोच्च न्यायालय के पद को समाप्त करने के लिए संविधान में संशोधन भी नहीं कर सकती।
संसद की संशोधन शक्ति की सीमाएँ क्या हैं?
- अनुच्छेद 368 में संशोधन सही हैं, बशर्ते वे संविधान के मूल ढांचे में कोई बदलाव न करें। इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय ने भी अनुच्छेद 368 को मूल ढांचा कहा है।
- संसद की संशोधन शक्ति पर प्रतिबंधों के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण निर्णय इस प्रकार हैं:
- मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980): सर्वोच्च न्यायालय ने 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 के उन खंडों को असंवैधानिक घोषित कर दिया, जिनमें कहा गया था कि संसद की यह संवैधानिक शक्ति अनुच्छेद 368 के तहत बिना किसी सीमा के प्रयोग की जाएगी। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि संसद ‘न्यायिक समीक्षा’ की शक्ति को हटाने में असमर्थ है क्योंकि यह ‘मूल संरचना’ का एक घटक है।
- एल. चंद्र कुमार बनाम भारत संघ (1997): सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि न्यायाधिकरण (अनुच्छेद 323ए और 323बी) न्यायिक समीक्षा का विकल्प नहीं हैं, जो संविधान ने उच्च न्यायालयों को प्रदान की है।
- आई.आर. कोएलो बनाम तमिलनाडु राज्य (2007): सर्वोच्च न्यायालय में यह तर्क दिया गया कि अनुच्छेद 368 में संशोधन के माध्यम से संसद संशोधन करने की शक्ति को बढ़ा नहीं सकती और संविधान के स्तंभों को ध्वस्त या विकृत नहीं कर सकती।
- संविधान (99वां संशोधन) अधिनियम, 2014 केतहत राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) की स्थापना की गई थी, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक घोषित कर दिया था, क्योंकि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता का उल्लंघन था, जो मूल ढांचे में शामिल है।
130वां संशोधन क्यों विवादित है?
- प्रस्तावित संशोधन अनुच्छेद 164 में नई शर्त जोड़ना चाहता है ‘अगर कोई मंत्री 30 दिन से ज़्यादा जेल में है और अपराध 5 साल या अधिक की सज़ा वाला है, तो उसका पद अपने-आप ख़त्म हो जाएगा।’
- समस्या यह है कि मंत्री राज्य की विधान सभा द्वारा चुनी गई सरकार का हिस्सा होता है। यदि संसद (केंद्र) ऐसा नियम बना दे, तो वह राज्यों की स्वायत्तता में दखल होगा। और क्योंकि यह राज्यों के मंत्रियों के कार्यकाल से जुड़ा है, इसे बदलने के लिए केवल संसद ही नहीं बल्कि आधे राज्यों की विधानसभाओं की मंजूरी ज़रूरी है (अनुच्छेद 368 का नियम)।
संबंधित चिंताएँ और चुनौतियाँ
- निर्दोषता की धारणा को कमजोर किया गया: विधेयक में दोषसिद्धि के आधार पर नहीं, बल्कि नजरबंदी के आधार पर निष्कासन की अनुमति दी गई है , जो ‘दोषी सिद्ध होने तक निर्दोष’ के सिद्धांत के विपरीत है।
- यह तर्क दिया गया है कि यह विधेयक अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन कर सकता है ।
- राजनीतिक दुरुपयोग की गुंजाइश: विपक्ष का तर्क है कि इस प्रावधान को केंद्र सरकार सीबीआई और ईडी जैसी जांच एजेंसियों के माध्यम से हथियार बना सकती है।
- संघवाद के लिए खतरा: यह विधेयक सत्ता का केंद्रीकरण करता है और राज्य सरकारों की स्वायत्तता को कमजोर करता है।
- न्यायिक चुनौतियों की संभावना: विधेयक को मूल संरचना सिद्धांत के तहत जांच का सामना करना पड़ सकता है , विशेष रूप से कार्यपालिका की स्वतंत्रता और शक्तियों के पृथक्करण के संबंध में।
- नैतिक शासन बनाम लोकतांत्रिक सुरक्षा उपाय: कुछ लोगों का तर्क है कि यह विधेयक ईमानदारी को बढ़ावा देता है और लिली थॉमस और मनोज नरूला जैसे मामलों में सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियों के अनुरूप है, साथ ही न्यायिक फैसले के बिना कार्यपालिका को हटाने की अनुमति देकर लोकतांत्रिक मानदंडों को कमजोर करता है।
निष्कर्ष
अनुच्छेद 368 बताता है कि संविधान में संशोधन कैसे किया जाएगा। कुछ प्रावधान ‘संघीय ढांचे’ (federal structure) से जुड़े हैं जिन्हें बदलने के लिए न सिर्फ संसद में बहुमत बल्कि आधे राज्यों की सहमति भी ज़रूरी है। यह संशोधन सीधे-सीधे राज्यों की सरकारों और उनके मंत्रियों पर असर डालेगा। संविधान निर्माताओं ने केंद्र और राज्यों के बीच एक ‘संविधानिक कॉम्पैक्ट’ (constitutional compact) बनाया था। अगर केंद्र अकेले ही राज्यों के मंत्रियों को हटाने का कानून बना सकता है, तो यह संतुलन बिगड़ जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट ने कई बार कहा है कि ‘federalism संविधान का बेसिक स्ट्रक्चर है’, इसे बदला नहीं जा सकता। अदालत असंवैधानिक कानून को तो रद्द कर सकती है, लेकिन संघीय ढांचे का असली समाधान राजनीतिक सहमति और बातचीत से ही होगा, सिर्फ अदालतों से नहीं।
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