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गंभीर अपराधों पर मंत्रियों को जेल : राजनीतिक सुचिता बनाम पुलिस स्टेट

हाल ही में लोकसभा में गृह मंत्री अमित शाह द्वारा पेश किया गया संविधान (एक सौ तीसवां संशोधन) विधेयक 2025 भारतीय लोकतंत्र में विचार और बहस की बड़ी जमीन तैयार करता है। इस बिल के अनुसार यदि कोई केंद्रीय या राज्य मंत्री, यहाँ तक कि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री भी, भ्रष्टाचार या गंभीर अपराध के मामले में कम से कम 30 दिन लगातार हिरासत में रहे तो उसे मंत्री पद से हटाने का प्रावधान होगा। यह संशोधन संविधान के अनुच्छेद 75, 164 और 239AA से जुड़ा है, जो क्रमशः केंद्र, राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के मंत्रिपरिषद से संबंध रखते हैं। विधेयक में यह स्पष्ट किया गया है कि हिरासत की अवधि पूरी होने पर मंत्री को स्वतः पद से हटाया जाएगा और यदि वह व्यक्ति आगे चलकर रिहा हो जाता है तो पुनः मंत्री बनने की संभावना बनी रहेगी।  

पहली नजर में यह प्रावधान भ्रष्टाचार और राजनीति के घालमेल को कम करने की दिशा में साहसिक और आवश्यक कदम प्रतीत होता है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह बार-बार एक आलोचना रही है कि हमारी राजनीति में आपराधिक तत्वों की संख्या बढ़ती जा रही है। पिछले दो दशकों में आए राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की रिपोर्ट्स लगातार दिखाती रही हैं कि संसद और राज्य विधानसभाओं में कई निर्वाचित प्रतिनिधियों पर गंभीर आरोप लंबित रहते हैं। ऐसे में यदि वही लोग मंत्री पद पर बने रहें तो यह प्रशासनिक शुचिता पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाला है। इस संदर्भ में यह बिल सुधारवादी प्रतीत होता है जो जनता को यह भरोसा दिलाने की कोशिश करता है कि भारतीय राजनीति भ्रष्टाचारियों का आश्रय स्थल नहीं है।  

लेकिन ज्यों-ज्यों इस प्रस्ताव को विस्तार से देखा जाए, कई गंभीर चिंताएँ भी सामने आती हैं। अब तक की संवैधानिक व्यवस्था में निर्वाचित प्रतिनिधि तभी अयोग्य ठहराए जाते हैं जब वे किसी अपराध में अदालत से दोषसिद्ध (convicted) हों और उन्हें कम से कम दो साल की सजा सुनाई गई हो। यही सिद्धांत 1951 के जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8 में भी निहित है। यहाँ तक कि उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सजा पर रोक (stay) लगा देने पर भी उस दोषसिद्धि का प्रभाव भंग हो जाता है। इसका कारण सुस्पष्ट है — भारतीय संविधान यह मानकर चलता है कि जब तक किसी पर आरोप सिद्ध न हो जाए, वह निर्दोष है। दंड प्रक्रिया संहिता भी इसी धारणा पर आधारित है कि अभियुक्त को निष्पक्ष सुनवाई से पहले दोषी नहीं माना जा सकता।  

नये बिल में दोषसिद्धि नहीं बल्कि गिरफ्तारी और सतत हिरासत को आधार बनाया गया है। यदि किसी मंत्री को 30 दिनों से अधिक हिरासत में रखा जाता है, तो वह पद से हटा दिया जाएगा। यहाँ सबसे बड़ा खतरा यही है कि हिरासत और दोषसिद्धि में बुनियादी अंतर है। हिरासत महज प्रक्रिया की शुरुआती अवस्था का हिस्सा है। आरोपपत्र (chargesheet) दाखिल होने, आरोप तय होने और मुकदमा शुरू होने में लंबा समय लगता है। कई बार पुलिस और जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली को लेकर पक्षपात और राजनीतिक दुरुपयोग के आरोप लगते रहे हैं। ऐसे में किसी मंत्री को मात्र हिरासत के आधार पर पद से हटा देना जांच एजेंसियों को असामान्य और असंवैधानिक शक्ति प्रदान कर सकता है।  

यही बिंदु ‘राजनीतिक सुचिता बनाम पुलिस स्टेट’ के द्वंद्व को जन्म देता है। लोकतंत्र में राजनीतिक शुचिता निस्संदेह अनिवार्य है लेकिन क्या उसे सुनिश्चित करने के लिए पुलिस और जांच एजेंसियों को इतना नियंत्रण देना उचित होगा? हाल के वर्षों में ईडी, सीबीआई और आयकर विभाग जैसी संस्थाओं की कार्रवाइयों को लेकर यह आरोप बार-बार लगाया गया है कि उनका इस्तेमाल सत्तारूढ़ दल अपने प्रतिद्वंद्वियों को कमजोर करने के लिए करता है। यदि इस संशोधन को स्वीकार कर लिया गया तो कागजी रूप से निर्दोष राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी को 30 दिन तक हिरासत में रखकर सत्ता से बेदखल करना बहुत आसान हो जाएगा। इस तरह यह कानून राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का लोकतांत्रिक मैदान और अधिक असमान कर सकता है।  

ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो भारतीय न्याय व्यवस्था ने विधि-न्याय और जनादेश — दोनों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की है। 2014 के मनोज़ नारूला बनाम भारत सरकार मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि आपराधिक मामलों का सामना कर रहे व्यक्तियों को मंत्री नियुक्त करने पर कोई कानूनी रोक नहीं है, लेकिन प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को राजनीतिक नैतिकता का पालन करते हुए ऐसे व्यक्तियों को पद न देने का विवेकपूर्ण निर्णय लेना चाहिए। इसी तरह 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया था कि विधायकों को अयोग्य ठहराने का अधिकार केवल संसद को है, न्यायालय नए आधार तय नहीं कर सकता। इसके बावजूद न्यायालय ने यह भी कहा कि संसद को कानून बनाकर गंभीर आरोपियों को चुनावी दौड़ से बाहर करने पर विचार करना चाहिए।  

वास्तविक जीवन में भी हालिया मामलों ने इस बहस को और गहन बनाया है। तमिलनाडु के मंत्री वि. सेंथिल बालाजी 14 महीने तक हिरासत में रहे, लेकिन जमानत मिलने के बाद फिर से मंत्री बने और अंततः सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया। दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी धन शोधन के आरोप में गिरफ्तार कर हिरासत में रखा गया और जमानत मिलने के बाद उन्होंने पद से इस्तीफा दिया। इन दोनों मामलों में कानूनी और नैतिक दबावों के बीच एक संतुलन की तलाश लगातार दिखाई देती है।  

इस प्रस्तावित संशोधन के सकारात्मक पहलुओं की बात करें तो यह निर्विवाद है कि यह राजनीतिक सुचिता की दिशा में कदम है। जनता को यह संदेश जाएगा कि कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है और यदि वह गंभीर अपराध में उलझता है तो उसका पद सुरक्षित नहीं रहेगा। इससे मंत्री पद को निजी कवच या ढाल की तरह इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगेगा। साथ ही, न्यायिक प्रक्रिया की लंबी देरी के बीच कम से कम प्रशासनिक स्तर पर तत्परतापूर्वक कार्रवाई के संकेत मिलेंगे। यह संदेह से परे है कि राजनीतिक व्यवस्था में सुचिताऔर जवाबदेही की मांग को अब अनदेखा नहीं किया जा सकता।  

लेकिन वहीं दूसरी ओर इसके खतरे और विरोधाभास भी उतने ही गंभीर हैं। किसी भी व्यक्ति को केवल गिरफ्तारी और हिरासत पर हटाना निर्दोषता की संवैधानिक गारंटी पर सीधा प्रहार है। यह राजनीतिक एजेंसियों के दुरुपयोग को वैधानिक मान्यता देने जैसा होगा। यदि कल को कोई सरकार सत्ता में अपने विरोधियों को हाशिए पर करने के लिए उन्हें लंबी हिरासत में रखवाना शुरू कर दे तो यह लोकतंत्र की आत्मा के विपरीत होगा। इसके अतिरिक्त, मंत्री का हटना केवल एक व्यक्ति का अधिकार छिनना नहीं है, यह उस जनता के मताधिकार का भी अनादर है जिसने उसे चुना है। लोकतंत्र जनादेश की पवित्रता से संचालित होता है, और यदि जनादेश को प्रशासनिक प्रक्रियाओं से अपदस्थ किया जाने लगे तो लोकतांत्रिक ढांचा अस्थिर हो सकता है।  

इस परिस्थिति में आगे क्या किया जाए? आवश्यकता इस बात की है कि सुधार और सुरक्षा के बीच संतुलन बनाया जाए। राजनीतिक दलों पर पहले से ही दबाव डाला जाना चाहिए कि वे गंभीर आपराधिक मामलों में घिरे लोगों को उम्मीदवार न बनाएं और यदि वे मंत्री पद पर हैं तो स्वेच्छा से इस्तीफा दें। संसद को ऐसा कानून बनाने पर विचार करना चाहिए कि जिस व्यक्ति पर अदालत ने औपचारिक रूप से आरोप तय कर दिए हों, उसे ही अयोग्य ठहराया जा सके, क्योंकि आरोप तय होना एक न्यायिक प्रक्रिया है और इसमें अदालत की संतुष्टि शामिल होती है। यह 1999 और 2014 की विधि आयोग की रिपोर्टों की सिफारिशों से भी मेल खाता है। वहीं राजनीतिक नैतिकता और दलगत पारदर्शिता का दबाव भी मजबूत किया जाए ताकि मंत्री पद को पदलोलुप संस्कृति का हिस्सा न बनाया जा सके।  

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि यह संशोधन एक तरफ भ्रष्टाचार और अपराध से राजनीति को मुक्त करने की दिशा में एक आवश्यक प्रयास है, लेकिन दूसरी ओर यह पुलिस स्टेट की ओर झुकाव प्रतीत होता है। लोकतंत्र का मूल तत्व सत्ता के बँटवारे और संस्थाओं के संतुलन में निहित है। यदि किसी एक संस्था, खासकर कार्यपालिका के अधीन जांच एजेंसियों को इतनी भारी शक्ति दे दी जाए कि वे राजनीतिक पदच्युत करने की कगार पर आ जाएँ, तो यह संतुलन टूट सकता है। राजनीतिक शुचिता अनिवार्य है, लेकिन उसका रास्ता न्यायिक प्रक्रिया और राजनीतिक नैतिकता से होकर गुजरना चाहिए, न कि केवल हिरासत के आधार पर ली गई प्रशासनिक कार्रवाई से। इसीलिए असली चुनौती यह है कि हम ऐसा रास्ता तलाशें जो अपराधियों से राजनीति को मुक्त तो करे, पर लोकतंत्र को पुलिस स्टेट बनने से भी बचाए।  


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