पृथ्वी पर दो महान व्यक्तित्व बुद्ध और कार्ल मार्क्स ने अलग-अलग तरीकों से अपने आदर्शों का प्रसार किया। बुद्ध, जिनका जन्म 563 ईसा पूर्व में हुआ, धर्म के संस्थापक माने जाते हैं। वहीं कार्ल मार्क्स, जिनका जन्म 1818 ईसा में हुआ, राजनीति और अर्थशास्त्र से जुड़े अपने दार्शनिक विचारों के लिए प्रसिद्ध हैं।
एक अन्य प्रमुख व्यक्तित्व डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भी इन दोनों महापुरुषों के विचारों की तुलना की है। उनकी पुस्तक ‘Buddha or Karl Marx’ (1957) इसी विषय पर केंद्रित थी। इससे पहले 20 नवंबर 1956 को अंबेडकर ने नेपाल के काठमांडू में वर्ल्ड बुद्धिस्ट कॉन्फ्रेंस में इसी विषय पर भाषण भी दिया था।
अंबेडकर का दृष्टिकोण
अंबेडकर ने कहा, ‘बुद्ध और मार्क्स के बीच तुलना को मजाक माना जा सकता है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।’
उन्होंने तर्क दिया कि बुद्ध के उपदेश और शिक्षाएँ भेदभाव को समाप्त करने के लिए थीं, जबकि मार्क्स का सिद्धांत वर्ग संघर्ष और क्रांति पर आधारित था।
बुद्ध का दर्शन अहिंसा, करुणा और असंग्रह पर आधारित था। उन्होंने कहा ‘जीवन और मृत्यु की समस्या को समझे बिना धर्म का अध्ययन अधूरा है। ईश्वर और स्वर्ग-नरक पर अटकलें व्यर्थ हैं। सब कुछ नश्वर है, यही शाश्वत सत्य है।’
दूसरी ओर, अंबेडकर के अनुसार, मार्क्स का मानना था कि समाजवाद विज्ञान है। वह पूँजीपतियों के विरुद्ध संघर्ष को समाज का वास्तविक स्वरूप मानते थे।
अंबेडकर के अनुसार, ‘मार्क्सवाद एक व्यापक दर्शन है जिसे कार्ल मार्क्स ने उन्नीसवीं सदी के दूसरे भाग में विकसित किया। इसमें सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक सिद्धांत शामिल हैं। मार्क्स ने भविष्यवाणी की थी कि पूँजीवाद का अंत अवश्यंभावी है और अंततः समाजवाद स्थापित होगा।’
बुद्ध और मार्क्स में समानताएँ व भिन्नताएँ
- अंबेडकर ने कहा कि दोनों का लक्ष्य समान है:
- एक न्यायपूर्ण और खुशहाल समाज
- शोषण का अंत
- लेकिन उनके साधन अलग-अलग थे।
- मार्क्स का जोर हिंसा और क्रांति पर था जबकि बुद्ध ने न्याय और समानता की स्थापना के लिए अहिंसा पर बल दिया।
बुद्ध ने जीवनभर लोकतांत्रिक मूल्यों और समान अधिकारों पर जोर दिया। उन्होंने भिक्षु संघों में समानता का आदर्श प्रस्तुत किया।
मार्क्स ने वर्ग संघर्ष और सर्वहारा की तानाशाही (dictatorship of the proletariat) का समर्थन किया। उन्होंने निजी संपत्ति को समाप्त करने और पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की बात कही।
अंबेडकर का निष्कर्ष
अंबेडकर जातिगत भेदभाव और अस्पृश्यता से बहुत आहत थे। उन्होंने भारतीय समाज में न्याय और समानता की स्थापना के लिए बुद्ध के आदर्शों और मार्क्सवादी संघर्ष दोनों को महत्वपूर्ण माना।
उन्होंने कहा कि ‘नए समाज की स्थापना तभी संभव है जब बुद्ध और मार्क्स दोनों के आदर्शों का मेल हो। बुद्ध करुणा और अहिंसा का मार्ग दिखाते हैं, जबकि मार्क्स सामाजिक-आर्थिक शोषण को समाप्त करने का औजार प्रस्तुत करते हैं।’
बुद्ध और मार्क्स की तुलना
पहलू | बुद्ध | मार्क्स |
साधन (Means) | अहिंसा, करुणा, नैतिकता | हिंसक क्रांति, वर्ग संघर्ष |
लक्ष्य (Goal) | नैतिक और सामाजिक समानता | आर्थिक समानता, वर्गहीन समाज |
दृष्टिकोण | आध्यात्मिक + नैतिक | भौतिकवादी (materialist) |
संपत्ति पर विचार | त्याग और असंग्रह | निजी संपत्ति का उन्मूलन |
राजनीति | लोकतांत्रिक मूल्य (Sangha system) | सर्वहारा की तानाशाही (Dictatorship of Proletariat) |
राज्य के लिये धर्म का महत्त्व एवं साम्यवाद
- आंबेडकर के अनुसार, साम्यवादी इसका दावा करते हैं कि राज्य का अस्तित्त्व अंततः समाप्त हो जाएगा किंतु उनके पास इस बात का जवाब नहीं है कि ऐसा कब संभव होगा और राज्य की जगह कौन लेगा?
- साम्यवादी स्वयं स्वीकार करते हैं कि एक स्थायी अधिनायकवाद के रूप में राज्य का उनका सिद्धांत उनके राजनीतिक दर्शन की एक कमजोरी है। हालाँकि, इस कमजोरी के संदर्भ में उनकी दलील है कि एक दिन राज्य अंततः समाप्त हो जाएगा।
- साम्यवादी विचार में यह स्पष्ट नहीं है कि राज्य की जगह कौन लेगा और यदि ऐसी स्थिति में अराजकता फ़ैल जाती है, तो यह एक निरर्थक प्रयास साबित होगा। साथ ही, बल के बिना राज्य का स्थायित्व संभव नहीं है और ऐसी स्थिति में कम्युनिस्ट राज्य का क्या होगा?
- बल के बिना धर्म ही एकमात्र चीज़ जो इसे कायम रख सकती है। धर्म के प्रति साम्यवादियों की प्रबल घृणा उन धर्मों के बीच भी अंतर नहीं कर पाती है जो उनके लिये सहायक हैं।
अन्य धर्मों के प्रति दृष्टिकोण
हिंदू धर्म
- उनके जीवन में सबसे बड़ी बाधा हिंदू समाज द्वारा अपनाई गई जाति व्यवस्था थी क्योंकि वे जिस परिवार में पैदा हुए थे उसे ‘अछूत’ माना जाता था। इसलिये उन्होंने जाति व्यवस्था का विरोध किया।
- वर्ष 1935 में उन्होंने सार्वजनिक रूप से घोषणा की ‘मैं एक हिंदू के रूप में पैदा हुआ क्योंकि मेरा इस पर कोई नियंत्रण नहीं था, लेकिन मैं एक हिंदू रहकर नहीं मरूंगा’।
मुस्लिम धर्म
- आंबेडकर के अनुसार, भारत में मुस्लिम समाज उन्हीं सामाजिक बुराइयों से पीड़ित है, जिनसे हिंदू समाज से पीड़ित हैं।
- उन्होंने कहा कि मुस्लिम महिलाओं के लिये पर्दे की अनिवार्य व्यवस्था उनको मानसिक और नैतिक पोषण से वंचित करता है।
ईसाई धर्म
- डॉ. आंबेडकर के अनुसार यह दावा किया जाता है कि ईसाइयत द्वारा इस दुनिया में गरीबी एवं पीड़ा को महिमामंडित करने और लोगों को भविष्य का सपना दिखाने का कार्य किया जाता है। इसके विपरीत बौद्ध धर्म खुश रहने एवं नूनी तरीकों से धनार्जन की बात करता है।
- बुद्ध ने बिना तानाशाही के संघ की दृष्टि से साम्यवाद की स्थापना करने की कोशिश की है। बंधुत्व या स्वतंत्रता के बिना समानता का कोई मूल्य नहीं होगा। तीनों का सह-अस्तित्व बुद्ध के मार्ग अक अनुसरण करने में है।
बुद्ध और मार्क्स का उद्देश्य
- दोनों ने शोषण, असमानता और अन्याय-मुक्त समाज की कल्पना की।
- लक्ष्य समानता, न्याय और मानव-मुक्ति था लेकिन साधन अलग–अलग थे
बुद्ध: नैतिकता, करुणा, अहिंसा और अष्टांगिक मार्ग।
मार्क्स: वर्ग संघर्ष, हिंसक क्रांति, पूँजीवाद का अंत और सर्वहारा की तानाशाही।
- आंबेडकर ने माना कि बुद्ध का मार्ग अधिक टिकाऊ और मानवीय है क्योंकि यह अहिंसा और नैतिक आधार पर खड़ा है।
- मार्क्सवाद शोषण समाप्त करने का दावा करता है, लेकिन हिंसा और क्रांति से स्थायी समाधान नहीं निकलता।
- बुद्ध ने लोकतांत्रिक मूल्यों (संघ व्यवस्था) और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर बल दिया।
- मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष को लोकतंत्र से ऊपर रखा और ‘Dictatorship of the Proletariat’ का समर्थन किया।
संक्षिप्त में डॉ. बी. आर. आंबेडकर के बारे मे
- डॉ. आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को मध्य प्रदेश में हिंदू महार जाति में हुआ था। उन्हें समाज में गंभीर भेदभाव का सामना करना पड़ा था।
- वर्ष 1923 में उन्होंने ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ (आउटकास्ट वेलफेयर एसोसिएशन) की स्थापना की, जो दलितों के बीच शिक्षा और संस्कृति का प्रसार करने, आर्थिक स्थिति में सुधार करने और उनकी समस्याओं से संबंधित मामलों को उचित मंचों पर उठाने व उन पर ध्यान केंद्रित करने के लिये समर्पित थी।
- उन्होंने मार्च 1927 में हिंदुओं के प्रतिगामी रीति-रिवाजों को चुनौती देने के लिये महाड़ सत्याग्रह का नेतृत्व किया। 24 सितंबर, 1932 को डॉ. आंबेडकर और गांधीजी के बीच एक समझौता हुआ, जिसे प्रसिद्ध पूना समझौते के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के अनुसार, कुछ परिस्थितियों में अछूतों के लिये आरक्षण प्रदान किया गया था। डॉ. आंबेडकर ने लंदन में तीनों गोलमेज सम्मेलनों में भाग लिया।
- डॉ आंबेडकर ने बौद्ध धर्म में परिवर्तित होने के दो महीने से भी कम समय बाद 6 दिसंबर, 1956 को अंतिम सांस ली।
निष्कर्ष
बुद्ध और मार्क्स दोनों ही समाज को अन्याय, शोषण और असमानता से मुक्त करना चाहते थे। यद्यपि उनके लक्ष्य समान थे, परंतु उनके साधन एकदम भिन्न थे। बुद्ध ने करुणा, अहिंसा, नैतिकता और अष्टांगिक मार्ग पर आधारित एक शांतिपूर्ण व मानवीय उपाय सुझाया, जबकि मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष, क्रांति और पूँजीवादी व्यवस्था के उन्मूलन का मार्ग बताया। डॉ. आंबेडकर ने दोनों की विचारधाराओं का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए निष्कर्ष निकाला कि समाज परिवर्तन के लिए केवल आर्थिक क्रांति पर्याप्त नहीं है, बल्कि नैतिक और मानवीय मूल्यों की भी आवश्यकता है। उनके अनुसार, बुद्ध का मार्ग स्थायी और मानवीय है, जबकि मार्क्स का आर्थिक विश्लेषण आधुनिक पूँजीवादी शोषण को समझने के लिए अनिवार्य है। इस प्रकार, न्यायपूर्ण और समान समाज की स्थापना के लिए बुद्ध की करुणा और अहिंसा तथा मार्क्स के आर्थिक चिंतन दोनों का समन्वय आवश्यक है।
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