भारत और चीन, दोनों एशिया की प्राचीनतम सभ्यताएँ हैं और आज की दुनिया में सबसे बड़ी आबादी और सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं वाले राष्ट्र भी। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध से लेकर इक्कीसवीं सदी तक आते-आते इन दोनों देशों के बीच सहयोग और प्रतिस्पर्धा का एक जटिल मिश्रण देखने को मिलता है। प्रश्न यह है कि क्या ये दो ‘बाघ’; भारत और चीन- एक ही ‘पर्वत’ यानी एशियाई और वैश्विक परिदृश्य को साझा कर सकते हैं?
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत और 1949 में कम्युनिस्ट क्रांति के बाद स्थापित चीन, दोनों ने प्रारंभिक दौर में साम्राज्यवाद-विरोध और तीसरी दुनिया के नेतृत्व की आकांक्षाओं में साम्य पाया। ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा इसी दौर में लोकप्रिय हुआ। परंतु, यह आदर्श स्थिति अधिक समय तक नहीं टिक पाई।
- तिब्बत का मुद्दा: चीन ने 1950 में तिब्बत पर कब्ज़ा किया। भारत ने तिब्बतियों को शरण दी और दलाई लामा को 1959 में भारत आने की अनुमति दी। यह चीन को भारत-विरोधी कदम लगा।
- सीमा विवाद: वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) की अस्पष्टता और अक्साई चिन व अरुणाचल प्रदेश (तब नेफा) को लेकर मतभेदों ने दोनों देशों के बीच तनाव पैदा किया।
- 1962 का युद्ध: इन मतभेदों का परिणाम भारत-चीन युद्ध था, जिसमें भारत को भारी पराजय झेलनी पड़ी। यह दोनों देशों के रिश्तों पर गहरी चोट थी।
इस युद्ध के बाद लगभग दो दशक तक आपसी विश्वास का अभाव रहा। धीरे-धीरे 1976 में राजनयिक संबंध बहाल हुए और 1988 में राजीव गांधी की चीन यात्रा ने नए दौर की शुरुआत की।
रणनीतिक और सुरक्षा दृष्टिकोण
भारत और चीन, दोनों आज परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र हैं और वैश्विक राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन कई मोर्चों पर उनके हित टकराते हैं।
- सीमा विवाद: अब भी लगभग 3,500 किलोमीटर लंबी सीमा पर विवाद है।
- डोकलाम (2017) और गलवान (2020) जैसे घटनाक्रम बताते हैं कि यह तनाव अभी भी जीवित है।
- पाकिस्तान–चीन निकटता: चीन पाकिस्तान का ‘सर्वकालिक मित्र’ कहलाता है।
- चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) भारत की सुरक्षा चिंताओं को गहरा करता है, क्योंकि इसका हिस्सा विवादित कश्मीर क्षेत्र से होकर गुजरता है।
- हिंद महासागर और एशियाई प्रभुत्व: चीन की ‘String of Pearls’ नीति जहाँ वह हिंद महासागर क्षेत्र में बंदरगाह विकसित कर रहा है, भारत के लिए रणनीतिक चुनौती है।
- भारत ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ और ‘क्वाड’ जैसे मंचों के माध्यम से एशिया-प्रशांत क्षेत्र में चीन के प्रभाव को संतुलित करना चाहता है।
आर्थिक सहयोग और प्रतिस्पर्धा
रणनीतिक मतभेदों के बावजूद आर्थिक क्षेत्र में दोनों देशों ने उल्लेखनीय प्रगति की है।
- व्यापार: भारत-चीन व्यापार 2000 के दशक में तेज़ी से बढ़ा।
- चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार बना, हालाँकि भारत का व्यापार घाटा चीन के पक्ष में अत्यधिक है।
- निवेश: चीन ने भारत के तकनीकी और स्टार्टअप क्षेत्रों में निवेश किया।
- लेकिन सुरक्षा कारणों से हाल के वर्षों में भारत ने चीनी निवेश पर नियंत्रण कड़े किए हैं।
- वैश्विक मंचों पर सहयोग: WTO, BRICS और जलवायु परिवर्तन वार्ताओं में दोनों कई बार साझेदारी करते हैं।
- विकासशील देशों के हितों की रक्षा में भारत और चीन की आवाज़ एक जैसी होती है।
सांस्कृतिक और सामाजिक दूरी
दिलचस्प बात यह है कि व्यापार और कूटनीति के बावजूद दोनों समाजों के बीच सीधा संपर्क कमज़ोर है।
- लोगों का आवागमन सीमित है।
- भाषाई और सांस्कृतिक बाधाएँ आपसी समझ को प्रभावित करती हैं।
- मीडिया में एक–दूसरे की नकारात्मक छवि अधिक दिखाई जाती है।
इस कारण आम जनता के स्तर पर विश्वास और सहयोग की कमी बनी रहती है।
अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य
भारत और चीन के संबंध केवल द्विपक्षीय नहीं हैं, बल्कि बड़े वैश्विक समीकरण से जुड़े हैं।
- अमेरिका की भूमिका: अमेरिका भारत को चीन के संतुलन के रूप में देखता है।
- भारत भी अमेरिका के साथ रणनीतिक साझेदारी बढ़ा रहा है, जिससे चीन चिंतित है।
- रूस और यूरोप: रूस ऐतिहासिक रूप से भारत का मित्र रहा है, पर आज चीन के साथ उसकी निकटता बढ़ी है।
- यूरोप भी चीन के साथ आर्थिक रूप से जुड़ा है, जबकि भारत को लोकतांत्रिक मूल्य आकर्षित करते हैं।
इस त्रिकोणीय और बहुपक्षीय समीकरण में भारत-चीन संबंध और अधिक जटिल हो जाते हैं।
भविष्य की संभावनाएँ
डेविड मेलन के अनुसार, भारत और चीन न तो पूरी तरह सहयोगी बन सकते हैं और न ही पूरी तरह शत्रु। दोनों की रणनीति ‘प्रतिस्पर्धात्मक सहयोग’ की है, जहाँ आर्थिक लाभ के लिए साथ आते हैं और सुरक्षा के मुद्दों पर प्रतिस्पर्धा करते हैं।
- युद्ध की संभावना: दोनों परमाणु शक्ति सम्पन्न हैं और आर्थिक विकास में व्यस्त हैं, इसलिए बड़े पैमाने पर युद्ध की संभावना कम है।
- तनाव की स्थिरता: सीमा और पाकिस्तान से जुड़े मुद्दे लंबे समय तक तनाव का कारण बने रहेंगे।
- सहयोग की मजबूरी: वैश्विक अर्थव्यवस्था, जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद और महामारी जैसे मुद्दों पर सहयोग अपरिहार्य है।
निष्कर्ष
भारत और चीन का रिश्ता जटिल, बहुआयामी और उतार-चढ़ाव भरा है। वे ‘दो बाघ’ हैं, जिनके बीच प्रतिस्पर्धा स्वाभाविक है। परंतु यह प्रतिस्पर्धा युद्ध की ओर नहीं बल्कि ‘संयमित प्रतिद्वंद्विता’ की ओर ले जाती है। यदि दोनों देश आपसी अविश्वास को कम कर संवाद और सहयोग की दिशा में कदम बढ़ाएँ, तो वे एशिया ही नहीं, पूरी दुनिया की शक्ति-संतुलन व्यवस्था को नया आकार दे सकते हैं।