➢ भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है। यहाँ 1950 में संविधान लागू हुआ और उसी के साथ यह तय किया गया कि नागरिकों के अधिकारों की रक्षा कौन करेगा, सरकार पर निगरानी कौन रखेगा, और संविधान की सही व्याख्या कौन करेगा। यह जिम्मेदारी सर्वोच्च न्यायालय को सौंपी गई।
➢ भारतीय संविधान दुनिया का सबसे लम्बा संविधान है। इसमें 444अनुच्छेद और 12 अनुसूचियाँ हैं। संविधान बार-बार संशोधित हुआ है, इसलिए इसकी व्याख्या और पालन बहुत कठिन काम है। यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय को बहुत बड़ी भूमिका मिली और धीरे-धीरे उसकी शक्ति इतनी बढ़ गई कि उसे न्यायिक संप्रभुता कहा जाने लगा।
➢ प्रताप भानु मेहता का कहना है कि भारत का सर्वोच्च न्यायालय आज दुनिया के सबसे शक्तिशाली न्यायालयों में गिना जाता है। लेकिन इसकी शक्ति केवल लोकतंत्र को मज़बूत करने में ही नहीं, बल्कि कई बार विवाद और विडंबना (irony) भी पैदा करती है।
न्यायालय की मुख्य भूमिकाएँ
सर्वोच्च न्यायालय की जिम्मेदारी केवल मामलों का निपटारा करना नहीं है। इसके पास संविधान से मिली कई बड़ी शक्तियाँ हैं –
➢ संविधान की व्याख्या करना– संविधान में जो बातें अस्पष्ट हैं, उन पर अंतिम निर्णय सर्वोच्च न्यायालय ही करता है।
➢ मौलिक अधिकारों की रक्षा – अगर सरकार नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन करती है तो व्यक्ति सीधे न्यायालय जा सकता है।
➢ न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review) – संसद या सरकार का कोई भी निर्णय या कानून अगर संविधान के खिलाफ है, तो न्यायालय उसे रद्द कर सकता है।
➢ संघीय ढाँचे की रक्षा – केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति संतुलन बनाए रखने में अदालत की भूमिका अहम है।
आपातकाल और न्यायालय की विफलता
➢ 1975 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया। उस समय सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार का साथ दिया और यह मान लिया कि नागरिकों को हैबियस कॉर्पस (न्यायालय में बंदी बनाए गए व्यक्ति की पेशी) का अधिकार भी स्थगित किया जा सकता है। यह फैसला भारतीय न्यायपालिका के इतिहास की सबसे बड़ी गलती मानी जाती है। इससे यह सवाल उठा कि अगर न्यायपालिका ही सरकार की गलतियों को नहीं रोक पाएगी, तो लोकतंत्र की रक्षा कैसे होगी?
न्यायालय की उपलब्धियाँ
➢ इसके बावजूद सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार लोकतंत्र को मज़बूत किया –
➢ अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग रोकना – पहले केंद्र सरकार मनमाने ढंग से राज्य सरकारों को बर्खास्त कर देती थी। अदालत ने तय किया कि ऐसा केवल गंभीर कारणों पर ही हो सकता है।
➢ मौलिक अधिकारों का विस्तार– शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास जैसे अधिकारों को भी अदालत ने मौलिक अधिकारों से जोड़ा।
➢ जनहित याचिका (PIL) – यह न्यायालय की सबसे बड़ी नवाचार प्रक्रिया रही। इसके ज़रिए कोई भी नागरिक अदालत में जाकर किसी सामाजिक अन्याय या भ्रष्टाचार के खिलाफ याचिका दायर कर सकता है। इससे गरीब और वंचित वर्गों को भी न्यायालय तक पहुँचने का अवसर मिला।
न्यायालय की विडंबनाएँ
प्रताप भानु मेहता कहते हैं कि न्यायालय की भूमिका में तीन बड़ी विडंबनाएँ (ironies) हैं –
➢ मामलों का ढेर – करोड़ों मामले अदालतों में लंबित हैं। कभी-कभी न्याय मिलने में 10–15 साल लग जाते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि भारत में सज़ा प्रक्रिया के बाद नहीं मिलती, बल्कि प्रक्रिया ही सज़ा बन जाती है।
➢ सिद्धांतों की अस्पष्टता– कभी अदालत बहुत सक्रिय होकर हस्तक्षेप करती है, कभी बहुत चुप रहती है। इसकी कार्यवाही हमेशा साफ और स्थिर नहीं होती।
➢ अत्यधिक शक्ति ग्रहण करना– न्यायालय ने कई बार कार्यपालिका और विधायिका के काम अपने हाथ में ले लिए। इससे सवाल उठता है कि इसकी वैधता कहाँ तक है।
न्यायालय और संविधान का मूल ढाँचा
➢ सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन संविधान की “मूल संरचना (Basic Structure)” को नहीं बदल सकती। इस सिद्धांत ने संसद की शक्ति पर सीमा लगा दी और न्यायालय ने खुद को संविधान का संरक्षक घोषित कर लिया।
न्यायालय और नियुक्तियाँ
➢ 1993 में “तीसरे न्यायाधीश प्रकरण” (Third Judges Case) में अदालत ने तय किया कि न्यायाधीशों की नियुक्ति का मुख्य अधिकार खुद न्यायपालिका के पास होगा। इससे न्यायालय स्वतंत्र तो हुआ, लेकिन पारदर्शिता पर सवाल उठे।
राजनीति और न्यायालय का संघर्ष
➢ भारतीय राजनीति में बार-बार संसद और न्यायालय के बीच संघर्ष हुआ। संसद कोई कानून बनाती, न्यायालय उसे असंवैधानिक बताता। फिर संसद संविधान संशोधन करके उसे लागू करती। इसे प्रताप भानु मेहता “लगातार चलने वाला खेल” कहते हैं।
निष्कर्ष
➢ प्रताप भानु मेहता कहते हैं कि न्यायालय ने लोकतंत्र की रक्षा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, लेकिन साथ ही यह भी सच है कि न्यायालय हर समस्या का समाधान नहीं हो सकता। अगर समाज में “संयम और संतुलन” की भावना खत्म हो जाए, तो कोई भी न्यायालय लोकतंत्र को बचा नहीं सकता।
➢ लोकतंत्र केवल कानून या न्यायालय से नहीं चलता, बल्कि नागरिकों की सक्रियता, राजनीतिक संस्थाओं की मजबूती और सामाजिक न्याय पर भी निर्भर करता है।
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