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लियो स्ट्रॉस (1899–1973)

जर्मनी में पैदा हुए एक बड़े विद्वान थे। उन्होंने वहीं पढ़ाई की और यूरोप केकई मशहूर विचारकों से सीखा। जब जर्मनी में नाज़ी शासन आया तो वेवहाँ से निकल गए। पहले पेरिस और इंग्लैंड में रहे, फिर 1937 मेंअमेरिका चले गए और वहीं बस गए। अमेरिका में उन्होंने कई जगहपढ़ाया।
सबसे ज़्यादा समय वे यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो में प्रोफ़ेसर रहे। इसकेअलावा उन्होंने न्यू स्कूल, क्लेरमॉन्ट कॉलेज और सेंट जॉन्स कॉलेज में भीकाम किया। स्ट्रॉस ने राजनीति और दर्शन पर गहरा काम किया। उन्होंनेप्लेटो, अरस्तू, लॉक, रूसो, नीत्शे और बहुत से पुराने और नए दार्शनिकोंकी किताबों को पढ़ा और उन पर लिखा। वे मानते थे कि इन दार्शनिकोंकी बातें सिर्फ़ उस समय के लिए नहीं थीं, बल्कि आज भी हमारीराजनीति और समाज को समझने में काम आती हैं।

उनके काम में कुछ बातें बारबार आती हैं:

तर्क (Reason) और धर्म/आस्था (Faith) के बीच टकराव।
दार्शनिक कई बार अपनी असली बात छुपाकर लिखते हैं, ताकि हर कोई समझसके।प्राचीन राजनीतिक सोच और आधुनिक राजनीतिक सोच में बड़ा अंतर है।
उन्होंने इतिहासवाद (Historicism), सापेक्षवाद (Relativism) और अस्तित्ववाद(Existentialism) जैसी धारणाओं की आलोचना की।

स्ट्रॉसियन दृष्टिकोण

मानव समाज के विकास में विचारों और दर्शन की बड़ी भूमिका रही है। हर युग मेंदार्शनिकों और विचारकों ने अपने समय की समस्याओं को समझने और समाधान देनेका प्रयास किया। लेकिन अक्सर यह देखा गया कि लेखक अपने वास्तविक विचारोंको सीधेसीधे प्रकट नहीं कर पाते। इसके पीछे उस समय की राजनीतिक, धार्मिकऔर सामाजिक परिस्थितियाँ ज़िम्मेदार होती हैं। इसी सन्दर्भ में अमेरिकी दार्शनिकलियो स्ट्रॉसियन ने यह बताया कि प्राचीन और मध्ययुगीन ग्रंथों की व्याख्या करतेसमय हमें एक विशेष दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। इसे ही स्ट्रॉसियन दृष्टिकोणकहा जाता है।

स्ट्रॉसियन का मुख्य विचार

स्ट्रॉसियन का मानना था कि प्राचीन दार्शनिक और लेखक अपने समय की रूढ़िवादीप्रवृत्तियों और राजनीतिक दबावों के कारण अपनी बात खुलकर नहीं लिख पाते थे।
यदि वे नए विचार सीधे प्रस्तुत करते, तो समाज में विरोध का सामना करना पड़ता।
कई बार यह विरोध इतना बड़ा होता कि उनके जीवन को भी ख़तरा हो जाता।
इसलिए लेखक अपने वास्तविक मन्तव्यों को छुपाकर लिखते थे। वे अपने विचारोंको प्रतीकात्मक भाषा या स्थापित शब्दावली के भीतर रखकर प्रस्तुत करते थे।इसका उद्देश्य यह था कि उनके नए विचार धीरेधीरे समाज तक पहुँच सकें औरकालान्तर में भविष्य के लोग उन्हें सही तरह से समझ सकें।

ग्रंथों को समझने का तरीका

स्ट्रॉसियन के अनुसार जब हम प्राचीन ग्रंथों को पढ़ें, तो हमें केवल सतही अर्थों तकसीमित नहीं रहना चाहिए।
हमें यह देखना चाहिए कि लेखक का असली उद्देश्य क्या था।
उन्होंने किन शब्दों या उदाहरणों के पीछे छिपकर अपनी बात कही है।
उनके विचारों के पीछे उनके समय की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियाँकैसे काम कर रही थीं।
इस प्रकार किसी भी ग्रंथ का अध्ययन सिर्फ क्या लिखा गया हैतक सीमित नहींहोना चाहिए, बल्कि यह देखना ज़रूरी है कि क्यों और किन परिस्थितियों में लिखागया है

व्याख्या का महत्व

जब हम इस दृष्टिकोण से ग्रंथों की व्याख्या करते हैं, तो हमें कई नए अर्थ और छिपेहुए विचार मिलते हैं।
इससे हम यह समझ पाते हैं कि लेखक केवल अपने समय के लिए नहीं, बल्कि आनेवाले समय के लिए भी सोच रहा था।
लेखक अपने विचारों को इस तरह प्रस्तुत करता था कि आगे चलकर लोग उन्हें औरव्यवस्थित तरीके से स्थापित कर सकें।
स्ट्रॉसियन मानते थे कि दर्शन का उद्देश्य केवल परंपरागत या सनातन विचारों कोदोहराना नहीं है, बल्कि उन पर प्रश्न उठाना और नए रास्ते सुझाना भी है।

निष्कर्ष

स्ट्रॉसियन दृष्टिकोण हमें यह सिखाता है कि ग्रंथों को केवल सतही रूप से पढ़नापर्याप्त नहीं है। उनके भीतर छिपे विचारों और सन्देशों को समझना ही असली कामहै। प्राचीन और मध्ययुगीन लेखक परिस्थितियों के कारण अपने विचारों को सीधेनहीं कह पाते थे, लेकिन उन्होंने ऐसे संकेत छोड़े जिन्हें समझकर हम उनके वास्तविकमन्तव्य तक पहुँच सकते हैं।
इस प्रकार यह दृष्टिकोण हमें दर्शन, राजनीति और समाज के इतिहास को गहराईसे समझने का मार्ग देता है।

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