भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में राज्यपाल की विधेयकों पर स्वीकृति संबंधी भूमिका का प्रश्न केवल कानूनी जटिलता नहीं, बल्कि संघीय शासन और लोकतांत्रिक मूल्य की बुनियाद का गंभीर मसला है।पिछले कुछ वर्षों में राज्यपालों की विधेयक स्वीकृति में देरी, और असहमति या पुनर्विचार की प्रकिया इन बहस का केंद्रीय विषय बने हैं।इस पर सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा अप्रैल माह में राष्ट्रपति और राज्यपाल के इन निर्णयों को एक समय सीमा में बांध दिया गया था, जिसके बाद सर्वोच्च न्यायालय में राष्ट्रपति द्वारा संदर्भ भेजा गया है।उच्चतम न्यायालय ने विधेयकों को मंजूरी देने में राष्ट्रपति और राज्यपालों की शक्तियों के संबंध में संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत राष्ट्रपति संदर्भ पर अपनी राय सुरक्षित रखी है।इस समसामयिक मामले का विश्लेषण करते हुए सबसे पहले यह समझना आवश्यक है कि राज्यपाल को संविधान के अनुसार दिए गए अधिकार अपने आप में कितने सीमित और विवेकाधीन हैं, तथा वे शासन की कार्यप्रणाली पर कितना गहरा असर डालते हैं।
संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक पर चार विकल्प रख सकते हैं—स्वीकृति, अस्वीकार, पुनर्विचार हेतु वापसी, या राष्ट्रपति के लिए आरक्षण। यही विवेकाधिकार नियोजन या अतिक्रमण का कारण बनता है। विधायी प्रक्रिया में राज्यपाल का कार्य वस्तुतः मंत्रिमंडल की सलाह पर आधारित है, परंतु कुछ प्रावधानों में गवर्नर को स्वतंत्र रूप से विवेक प्रयोग करने की छूट है—विशेषकर यदि विधेयक संघीय कानून से असंगत है, संविधान का उल्लंघन करता है, या अन्य राष्ट्रीय/सार्वजनिक हित के मुद्दे से जुड़ा है। हालांकि, ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो मंत्रिपरिषद की सलाह का अनुसरण अकसर अनिवार्य माना गया है ताकि निर्वाचित सरकार की जनभावना का सम्मान और लोकतंत्र की आत्मा बचे रहे। लेकिन अधिकांश हालिया विवादों में यही तर्क जुनून का कारण बना कि क्या राज्यपाल का पोस्ट ‘‘रबर स्टैम्प’’ है या उनके पास प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष राजनीतिक दबाव या विवेकाधिकार की परिधि है।
पिछले वर्ष तमिलनाडु, पंजाब, पश्चिम बंगाल और केरल जैसे राज्यों में विधेयकों की स्वीकृति में गवर्नर द्वारा की गई देरी ने पूरे देश में संवैधानिक बहस जन्म दी। इन राज्यों में राज्यपाल ने विधेयकों को महीनों तक लंबित रखा, कभी-कभी राष्ट्रपति के लिए आरक्षित किया, और कभी-कभी कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दी। इस असमंजस की स्थिति में राज्यों ने कार्यपालिका के हस्तक्षेप को संघीय अधिकारों का अतिक्रमण कहा और सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। कोर्ट ने राज्यपाल की निष्क्रियता को असंवैधानिक ठहराया और ‘पॉकेट वीटो’ की संकल्पना को भारत के संविधान में असंगत करार दिया। यह नैतिक रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि अगर राज्यपाल अनिश्चितकाल तक स्वीकृति रोके रखते हैं तो वह निर्वाचित विधायिका और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के मर्म को कमजोर करता है।
इस बहस के केंद्र में अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 की व्याख्या है। अनुच्छेद 201 राष्ट्रपति को वह अंतिम अधिकार देता है कि वे राज्यपाल द्वारा उनके पास भेजे गए विधेयक को स्वीकृत या अस्वीकार कर सकते हैं। परंतु राष्ट्रपति की स्वीकृति में समयसीमा नहीं है, जिससे विधेयक अनिश्चितकाल तक लंबित रह सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने हालिया फैसले में राज्यपाल और राष्ट्रपति—दोनों के लिए समयसीमा तय की है, ताकि विधायी प्रक्रियाओं में बेसब्री, असमंजस और कार्यपालिका के हस्तक्षेप को रोका जा सके। गवर्नर के लिए एक माह और राष्ट्रपति के लिए तीन माह की समयसीमा निर्धारित की गई है। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया है कि राज्यपाल यदि मंत्रिपरिषद की सलाह की अनदेखी कर विधेयक रोकते हैं या पुनर्विचार के बाद भी विधेयक को स्वीकृति नहीं देते, तो उनको न्यायिक समीक्षा के दायरे में लाया जा सकता है। यह संघीय शासन और लोकतांत्रिक संवेदनशीलता के हित में एक सकारात्मक पहल है, जहां कार्यपालिका की शक्तियों पर निगरानी और विधायिका केंद्रित शासन को तरजीह दी गई है।
संघीय ढांचे की दृष्टि से यह प्रश्न और गहन हो जाता है। भारत का संविधान राष्ट्रपति और राज्यपाल दोनों को ‘‘संवैधानिक प्रमुख’’ मानता है; परंतु कार्यपालक शक्तियों का संतुलन बरकरार रखने के लिए यह आवश्यक है कि राज्य-सरकारों का अधिकार और स्वतंत्रता किसी तरह कम न हो। राज्यपाल केंद्र के प्रतिनिधि होते हुए भी संविधान के प्रति उत्तरदायी होते हैं, उन्हें मंत्रिपरिषद की सलाह का पालन करना होता है। कुछ संवैधानिक विशेषज्ञ और केंद्र सरकार यह तर्क देते हैं कि राज्यपाल को विवेकाधिकार शक्तियां हैं, जो संघ के हित और राष्ट्रीय कानून-विरोधी विधेयकों की स्थिति में प्रयोग की जा सकती हैं। राज्यों की राय में यह तर्क संघवाद की आत्मा के विरुद्ध है, क्योंकि निर्वाचित विधानमंडल की इच्छाओं को राज्यपाल के विवेकाधिकार के नाम पर कमजोर नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने भी मान्यता दी कि राज्यपाल केवल ‘‘डाकिया’’ या ‘‘रबर स्टैम्प’’ नहीं हैं, लेकिन उनकी शक्तियां सीमित और प्रशासनिक जिम्मेदारी आधारित होनी चाहिए। कोर्ट ने इस बात पर बल दिया कि संविधान में समयसीमा न सही, पर ‘‘यथाशीघ्र’’ का अभिप्राय जिम्मेदारी और तात्कालिकता से है—न कि असीमित देर से।
राजनैतिक दृष्टि से देखें तो राज्यपाल की भूमिका का प्रश्न कई बार पार्टी राजनीति और सत्ता संतुलन का उपकरण भी बनता है। केंद्र सरकारें विपक्ष-शासित राज्यों में हस्तक्षेप के लिए राज्यपाल के कार्यालय का दुरुपयोग करती नजर आती हैं। उदाहरणस्वरूप पंजाब, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में हालिया विवाद में कई विधेयकों को राज्यपाल ने आठ-दस महीने तक लंबित रखा। इन राज्यों ने दलगत राजनीति और संघीय अधिकारों के अतिक्रमण का आरोप लगाया। कोर्ट से निराकरण की मांग की गई कि राज्यपाल की शक्तियां टालने की नहीं, संवैधानिक मर्यादा-मान्यता की हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने इस टकराव के समाधान के लिए संवाद, पारदर्शिता और न्यायिक सतर्कता का महत्व दर्शाया है।
विधानों में अगला आयाम राष्ट्रपति संदर्भ का है। संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत राष्ट्रपति संसद या किसी राज्य-विधानमंडल द्वारा पारित किसी विधेयक संबंधी संवैधानिक प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय से राय मांग सकते हैं। वर्तमान संदर्भ में राष्ट्रपति ने न्यायालय से पूछा है कि राज्यपाल जिन विधेयकों को स्वीकृति नहीं दे रहे या टाल रहे हैं, उन पर संविधान क्या मार्गदर्शन देता है—क्या स्वीकृति की अंतिम समयसीमा होनी चाहिए, क्या न्यायालय इस व्यवस्था पर नियंत्रण या निरीक्षण कर सकता है, और क्या इसे न्यायिक समीक्षा के दायरे में लाना संभव है। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि संविधान ने विधेयकों पर ‘‘यथाशीघ्र’’ शब्द रखा है, जो व्याख्या की मांग करता है। न्यायिक समीक्षा तभी उचित है जब कार्यपालिका अथवा राज्यपाल संविधान के मूल मर्म और संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करें।
एक अन्य आयाम Article 142 है। यह सर्वोच्च न्यायालय को पूर्ण न्याय (complete justice) करने की शक्ति देता है। हाल के मामलों में इसी शक्ति का प्रयोग करते हुए न्यायालय ने राज्यपाल और राष्ट्रपति को विधेयकों पर निर्णय लेने की समयसीमा देने का मार्ग प्रशस्त किया है। इससे ना केवल विधायी प्रक्रिया में पारदर्शिता आती है, बल्कि सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया में आकस्मिकता को दूर किया जा सकता है।
संविधान की भावना यही है कि राज्यपाल की भूमिका निर्वाचित सरकार का सहयोगी बने, न कि अड़ंगा डालने वाला अधिकारी। राज्यपाल के लिए प्रक्रियागत बाध्यता इसलिए है, क्योंकि तब जाती विधायिका की सर्वोच्चता और जनता का मताधिकार सुरक्षित होता है। न्यायालय ने यह स्वीकार किया कि राजनीतिक संवाद प्राथमिकता होनी चाहिए, परंतु जब संविधान का मर्म घायल होता दिखे, तब न्यायिक हस्तक्षेप भी आवश्यक है। कोर्ट ने यह भी दृष्टांत प्रस्तुत किया कि अदालत ‘‘हेडमास्टर’’ नहीं बन सकती; संविधान ने नीतिगत मामलों के लिए राजनीतिक प्रक्रिया का मार्ग दिया है।
हाल के फैसलों का महत्व यह भी है कि न्यायिक समीक्षा की प्रक्रिया कार्यपालिका को जवाबदेह बनाने का माध्यम बनती है। पंजाब, तमिलनाडु, बंगाल, केरल आदि राज्यों ने विधायी स्वतन्त्रता, संघीयता और जन-संप्रभुता के अहम मुद्दे को आगे रखा, जबकि केंद्र सरकार ने संविधान सभा की मूल भावना का हवाला देकर न्यायालय से समयसीमा निर्धारण के विरुद्ध तर्क रखा। अदालत ने इसका विवेकपूर्ण समाधान निकाला—संविधान की मूल भावना का पालन करते हुए कार्यान्वयन में पारदर्शिता, समयसीमा और न्यायिक नियंत्रण लागू किया गया।
गहन विश्लेषण करें तो राज्यपाल की भूमिका भारत के संघीय ढांचे के संतुलन का परिचायक है। यदि राज्यपाल की शक्तियों की अस्पष्टता या अतिक्रमण निर्वाचित विधानमंडल की इच्छा के विपरीत हो तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया कमजोर पड़ती है। राज्यपाल का कार्यालय केंद्र के लिए लोकतांत्रिक प्रकाशस्तंभ होना चाहिए, न कि राजनीतिक औजार। राज्यपाल के विवेकाधिकार का प्रयोग सीमित और उद्देश्यपूर्ण होना चाहिए, ताकि राज्य विधानमंडल की जनभावना और केंद्रीकृत नीतियों में टकराव न हो। राष्ट्रपति का संदर्भ और सुप्रीम कोर्ट की सुनवाईें इसलिए ऐतिहासिक हैं कि वे संघीय शासन, लोकतांत्रिक प्रक्रिया और न्यायिक विवेक का नया मॉडल स्थापित करती हैं।
सारांश में, राज्यपाल के विधेयकों पर स्वीकृति संबंधी विवाद संविधान की व्याख्या, राजनीतिक संवाद, न्यायिक सतर्कता और संघवाद के मर्म का उद्घाटन है। राष्ट्रपति का संदर्भ महज कानूनी राय नहीं, बल्कि लोकतंत्र की संप्रभुता, अधिकारों के संतुलन और प्रक्रिया की पारदर्शिता का बोध कराता है। सर्वोच्च न्यायालय का अंतिम निर्णय न केवल राज्यपाल की शक्तियों को स्पष्ट करेगा, बल्कि संघीय ढांचे को मजबूत बनाये रखने के लिए पारदर्शिता, जवाबदेही, और लोकतंत्र की आत्मा को नया अर्थ देगा। इन चर्चाओं और फैसलों का अंतिम ठिकाना संविधान का मर्म और लोकतंत्र का भविष्य है, जिसमें राज्यपाल संविधान के सेवक, जनता के प्रति जवाबदेह तथा विधायिका के असली विस्वास का प्रतीक बनेंगे—न कि कार्यपालिका का अतिक्रमी अधिकारी। इसी में भारतीय संघीयता की मजबूती, लोकतंत्र की सच्चाई, और न्यायिक विवेक की सफलता छुपी है।
विगत वर्षों के अनुभवों, राज्यों की राजनीति, सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक सक्रियता तथा राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए संदर्भ पर गहन विचार से यही निष्कर्ष निकलता है कि भारत के संघीय ढांचे और लोकतंत्र को सुरक्षित रखने के लिए राज्यपाल की भूमिका, उनके विवेकाधिकार, विधेयक स्वीकृति की प्रक्रिया का स्पष्टीकरण और न्यायिक समीक्षा की शक्ति अनिवार्य हैं। इसे केवल कानूनी टकराव या प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि संविधान के मूल मर्म और लोकतंत्र के संरक्षण का व्यावहारिक माध्यम मानना चाहिए। जब-जब राज्यपाल और राष्ट्रपति के आदेश निर्वाचित सरकारों के अधिकारों पर प्रश्नचिन्ह लगाएँगे, तब-तब यह बहस संविधान की व्याख्या, न्यायपालिका की सीमाएं, कार्यपालिका की जवाबदेही और संघवाद की आत्मा का पुनर्स्थापन करती रहेगी।