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भिखु पारेख: Rethinking Multiculturalism/बहु-सांस्कृतिकता

Rethinking Multiculturalism/बहु-सांस्कृतिकता क्या है?

भिखु पारेख (Bhikhu Parekh) की पुस्तक Rethinking Multiculturalism बहु-सांस्कृतिकता (Multiculturalism) को नए ढंग से समझने का प्रयास है। यह किताब केवल एक सैद्धांतिक बहस नहीं करती, बल्कि आज की राजनीति, राज्य और समाज में विविधता के सवालों को व्यावहारिक स्तर पर भी रखती है।

  • उदारवादी सिद्धांत (liberalism) अक्सर बहु-सांस्कृतिकता को स्वीकार तो करता है, लेकिन उसकी अपनी सीमाएँ हैं।
  • पारेख इस ढांचे को चुनौती देते हैं और कहते हैं कि संस्कृति कोई स्थिर और बंद इकाई नहीं है, बल्कि यह लगातार बदलती, मिश्रित (hybrid) और संवाद (dialogic) से बनने वाली प्रक्रिया है।
  • इस कारण राज्य और राजनीतिक सिद्धांत को भी संस्कृति और पहचान की नई जटिलताओं को ध्यान में रखना होगा।

पारेख के मुख्य तर्क

  1. उदारवाद की आलोचना
  • जॉन रॉल्स (Rawls), जोसेफ रज़ (Raz), विल किमलिका (Kymlicka) जैसे उदारवादी विचारक विविधता को मान्यता देते हैं।
  • परंतु, उनकी सोच “व्यक्ति की स्वतंत्रता” और “सार्वभौमिक अधिकारों” के मानक पर टिकी है।
  • पारेख कहते हैं कि यह दृष्टिकोण अक्सर विविध संस्कृतियों की आत्म-परिभाषा को सीमित कर देता है।
  • यानी, विविधता को उतनी ही जगह मिलती है जितनी उदार ढांचा उसे अनुमति देता है।
  1. संस्कृति की अवधारणा
  • पारेख संस्कृति को “अर्थ और महत्व (meaning and significance)” का जाल मानते हैं।
  • यह केवल कला या परंपरा नहीं, बल्कि जीवन के हर पहलू—भाषा, सोच, आदत, मूल्य—को गढ़ती है।
  • संस्कृति स्थिर नहीं होती, बल्कि बदलती है। इसमें मिश्रण (hybridity) और निरंतर संवाद (dialogue) शामिल रहते हैं।
  • यह रेमंड विलियम्स की उस परिभाषा से मेल खाती है जहाँ संस्कृति को “एक पूरे जीवन का तरीका” कहा गया है।
  1. राज्य और बहु-सांस्कृतिक ढांचा
  • आधुनिक राष्ट्र-राज्य अक्सर “एक भाषा, एक संस्कृति, एक पहचान” पर आधारित होते हैं।
  • पारेख इस अवधारणा को चुनौती देते हैं और कहते हैं कि राज्य को अपनी संरचना बदलनी होगी।
  • राज्य को यह मानना होगा कि नागरिकों की कई परतदार पहचानें होती हैं—धर्म, जातीयता, भाषा, लिंग आदि।
  • अतः राज्य को “समानता” (equality) का अर्थ पुनःपरिभाषित करना चाहिए: यह केवल कानूनी समानता नहीं, बल्कि सांस्कृतिक मान्यता और न्याय भी होना चाहिए।
  1. विविधता और न्याय
  • पारेख मानते हैं कि विविधता को केवल सांस्कृतिक प्रदर्शन या “डिफरेंस सेलिब्रेशन” (celebrating differences) तक सीमित नहीं करना चाहिए।
  • असली सवाल है: क्या विभिन्न संस्कृतियों को न्याय (justice), राजनीतिक अवसर और आर्थिक संसाधनों में समानता मिल रही है?
  • ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहे समुदायों के लिए “समान अवसर” नीतियाँ जरूरी हैं।
  1. संघर्ष और चुनौतियाँ
  • पारेख यह मानते हैं कि बहु-सांस्कृतिक समाजों में संघर्ष अवश्य होगा।
    • जैसे रश्दी विवाद (Rushdie Affair), जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक भावनाओं का टकराव हुआ।
    • या फिर हिजाब और पगड़ी पर कानूनी विवाद।
  • इसीलिए वे कहते हैं कि संवाद (dialogue) जरूरी है।
  • लेकिन आलोचकों का तर्क है कि संवाद हमेशा संतुलित नहीं हो सकता क्योंकि सत्ता असमान रूप से बँटी होती है—बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक, पश्चिमी मानदंड बनाम स्थानीय परंपराएँ।

किताब का योगदान

  • पारेख का काम बहु-सांस्कृतिकता को सिर्फ “नीति” (policy) का प्रश्न नहीं, बल्कि एक व्यापक राजनीतिक सिद्धांत के रूप में प्रस्तुत करता है।
  • यह हमें सोचने पर मजबूर करता है कि “न्याय”, “लोकतंत्र” और “राज्य” की हमारी पारंपरिक धारणाएँ विविध समाजों के लिए पर्याप्त हैं या नहीं।
  • किताब का महत्व खासकर उन देशों में है जहाँ प्रवास (migration), उपनिवेशोत्तर (postcolonial) समाज और वैश्वीकरण (globalization) से गहरी विविधता आई है।

परीक्षा के दृष्टिकोण से मुख्य बिंदु

  1. Multiculturalism की परिभाषा – केवल सांस्कृतिक उत्सव नहीं, बल्कि राजनीतिक-आर्थिक न्याय।
  2. Liberalism और Multiculturalism – उदारवाद की सीमाएँ, पारेख की आलोचना।
  3. Culture as Hybrid – संस्कृति स्थिर नहीं, लगातार बदलने वाली प्रक्रिया।
  4. State and Equality – राज्य को कानूनी समानता से आगे बढ़कर सांस्कृतिक मान्यता भी देनी चाहिए।
  5. Conflicts – Rushdie Affair, Hijab, Free Speech बनाम Religious Sensitivity।
  6. Justice – Equalizing Measures, Affirmative Action।
  7. Practical Relevance – प्रवास, वैश्वीकरण, उपनिवेशोत्तर समाज।

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