गोविंद सदाशिव घुर्ये (G. S. Ghurye)
भारत के प्रमुख समाजशास्त्रियों में माने जाते हैं। उन्हें भारतीय समाजशास्त्र का “जनक” भी कहा जाता है। उन्होंने भारतीय समाज की विविधताओं—विशेषकर जाति, संस्कृति और परंपराओं पर गहन शोध किया।
• प्रकाशन: Caste and Race in India पहली बार वर्ष 1932 में प्रकाशित हुई थी। बाद के दशकों में इसके कई संशोधित और विस्तारित संस्करण आए, जिनमें नई शोध सामग्री और उदाहरण जोड़े गए। इस कारण यह पुस्तक लगातार प्रासंगिक बनी रही।
• विषय: इस ग्रंथ का मुख्य उद्देश्य भारत में जाति (Caste) और नस्ल (Race) की अवधारणाओं को समझाना है। इसमें जाति की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, उसकी सामाजिक और धार्मिक संरचना, उसके विकास की प्रक्रिया, तथा राजनीति और समाज पर उसके प्रभाव का विश्लेषण किया गया है। साथ ही यह भी बताया गया है कि जाति और नस्ल के बीच किस हद तक संबंध हैं और किस तरह दोनों की धारणाएँ समय के साथ बदलती रही हैं।
मुख्य तर्क / विचार
नीचे किताब के कुछ प्रमुख तर्क और विचार सरल हिन्दी में:
जाति क्या है?
• घुर्ये बताते हैं कि जाति सिर्फ जन्म-आधारित सामाजिक विभाजन नहीं है, बल्कि उसमें निम्न-लिखित तत्व शामिल हैं
• बाँट-विभाजन (segmental division): समाज छोटे-छोटे समूहों (जातियों) में बँटा हुआ है।
• उत्तराधिकार (heredity): व्यक्ति अपनी जाति जन्म से पाता है, यह चुनाव नहीं है।
• विवाह संबंधी नियम (endogamy / exogamy): व्यक्ति अपनी जाति के अंदर विवाह करता है (endogamy), लेकिन कभी-कभी बाहरी जाति से नहीं। साथ ही विवाहों में कुछ नियमों (gotra, साम्पृति-sapinda आदि) होते हैं।
• आजीविका-गति प्रतिबंध (occupational restrictions): प्रत्येक जाति से जुड़े व्यावसायिक या आर्थिक कार्यों की परंपराएँ होती हैं, जिन्हें समय-समय पर बदला गया है, लेकिन इनका प्रभाव मजबूत होता है।
• सामाजिक व धार्मिक विशेषाधिकार एवं मर्यादाएँ (privileges & restrictions): कुछ जातियों को पूजापाठ, सामाजिक संपर्क, आचरण आदि में विशेषाधिकार मिलते हैं अन्य जातियों को विशेष प्रकार की सामाजिक व धार्मिक सीमाएँ झेलनी पड़ती हैं।
जाति और नस्ल (Race) संबंध
• घुर्ये जाति और नस्ल को पूरी तरह से समान नहीं मानते। जाति ज़्यादातर सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक ढाँचों से बनती है, जबकि नस्ल एक जैव-भौतिक (physical / anthropological) विचार है।
• कुछ लोग जाति की उत्पत्ति को नस्लीय (racial) आधारों से जोड़ते हैं
इतिहास और विकास
• जाति तंत्र भारत में पुराना है, विभिन्न ऐतिहासिक कालों में अलग-अलग विधियों से विकसित हुआ है।
• विभिन्न बाह्य प्रावधानों ने जाति संरचनाओं को प्रभावित किया है जैसे कि जब आर्य लोग भारत आए तो उन्होंने कुछ सामाजिक विभाजन स्थापित किया ब्रिटिश शासन की नीतियाँ (जैसे जनगणना, कानूनी अधिनियम, भूमि व्यवस्था आदि) जाति को और ठोस (rigid) बनाने में सहायक रहीं।
उप-जाति और कुटुंब/रिश्तेदारी
• एक जाति के अंदर उप-जातियाँ होती हैं, जो विशेष भू-भाग, पेशा, रीति-रिवाज और परंपराओं में भिन्न-भिन्न होती हैं।
• रिश्तेदारी (kinship) के नियम जैसे gotra, मर्यादा-sapinda आदि, विवाह प्रणाली (marriage rules) जाति-संरचनाओं को बनाए रखने और सामाजिक नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
राजनीतिक और सामाजिक भूमिका
• जाति राजनीति में गहराई से जुड़ी है वोट बैंक राजनीति, प्रतिनिधित्व, प्रभावशाली जातियाँ सरकारी नौकरियों और सत्ता में कैसे पहुँचती हैं, आदि। घुर्ये तमिलनाडु के उदाहरण से यह दिखाते हैं कि कैसे जाति राजनीतिक शक्तियों के गठन और संघर्ष में महत्वपूर्ण है।
• संविधान और आधुनिक इंडिया की सोच में कुछ लोगों ने जाति-मुक्त (casteless) समाज की कल्पना की, लेकिन घुर्ये मानते हैं कि वास्तव में भारत एक बहु-समाज (plural society) बनेगा, न कि पूर्ण रूप से जाति-रहित।
महत्व
• यह पुस्तक भारतीय समाजशास्त्र-विचार में एक महत्वपूर्ण क्लासिक है, खासकर उन पाठकों के लिए जो जाति, संस्कृति, राजनीतिक समाज, सामाजिक संरचनाएँ समझना चाहते हैं।
• यह उन पहले लेखों में से एक है जिसने जाति और नस्ल के बीच तार्किक और ऐतिहासिक अन्तर स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया।
• किताब ने बाद की शोधों और बहसों को प्रेरित किया है जैसे कि जाति, पहचान, दलित विमर्श, सामाजिक न्याय आदि पर।
निष्कर्ष
घुर्ये की धारणा है कि:
• जाति एक पुरानी, जटिल और बहुआयामी सामाजिक संस्था है, जिसे पूरी तरह से खत्म करना नहीं बल्कि उसमें सुधार करना संभव है और जरूरी है।
• जाति तंत्र समय-के-समय पर बदलता है (dynamic institution)। इतिहास, कानून, राजनीति, आर्थिक बदलाव आदि से जाति के स्वरूप बदलते हैं।
• भारत का भविष्य एक बहु-समाज की ओर है, जहाँ विभिन्न जातियाँ, भाषाएँ, धर्म आदि मिलकर समाज की विविधता बनाएँगे। लेकिन यह समाज पूरी तरह से जाति-रहित नहीं होगा क्योंकि जाति की जड़ें गहरी हैं।
आलोचनाएँ और सीमाएँ
कोई भी सिद्धांत या पुस्तक पूर्ण नहीं होती; नीचे कुछ आलोचनाएँ और कमियाँ हैं जो घुर्ये की इस पुस्तक से जुड़ी मानी जाती हैं:
1. उच्च-जाति-के परिप्रेक्ष्य से: कुछ आलोचकों का मानना है कि घुर्ये ने जाति के कुछ oppressive पहलुओं (उत्पीड़न, असमानता, हिंसा आदि) को पर्याप्त तीव्रता से नहीं उठाया।
2. नस्लीय तर्कों से पूरी तरह दूरी न बनाना: जबकि घुर्ये नस्ल और जाति को अलग रखते हैं, कुछ लोग यह कहते हैं कि भारत में “नस्लीय” विचार तथा यूरोपीय नस्ल सिद्धांतों ने जाति-विचारों पर प्रभाव डाला है, जो घुर्ये पूरी तरह स्वीकार नहीं करते।
3. आर्थिक और सामाजिक निर्धारण (determinants) पर कम ध्यान: कुछ आलोचनाएँ कहती हैं कि जाति को समझने में अर्थव्यवस्था, श्रम विभाजन, गरीबी आदि को और अधिक गहरा विश्लेषण चाहिए था।
4. न्याय और सामाजिक परिवर्तन के उपायों का सीमित प्रस्ताव: घुर्ये सुधारों की बात करते हैं लेकिन अलग-अलग आंदोलन, सामाजिक चेतना, दलित आन्दोलन आदि की भूमिका पर उनका विश्लेषण अपेक्षाकृत कम है।