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एंटी-ग्लोबलाइजेशन की बढ़ती प्रवृत्ति

इक्कीसवीं सदी के आरंभिक दशकों में वैश्वीकरण ने विश्व राजनीति, अर्थव्यवस्था और सामाजिक ढांचे को जिस तीव्रता से प्रभावित किया, उसे नकारा नहीं जा सकता। देशों के बीच आर्थिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान की प्रक्रिया ने वैश्विक समृद्धि में वृद्धि की, नई-नई तकनीकों, विचारों और संसाधनों का आदान-प्रदान किया। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इस वैश्वीकरण की धारणा पर गंभीर प्रश्न उठने लगे हैं। वैश्वीकरण के खिलाफ बढ़ते प्रतिरोध, संरक्षणवाद, राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक पहचान पर जोर देना इस ट्रेंड की विशेषता बन गया है। यह प्रवृत्ति केवल आर्थिक दृष्टिकोण तक सीमित नहीं है, बल्कि सामाजिक, राजनैतिक और जियोपॉलिटिकल आयामों को भी गहराई से प्रभावित करती है।

वैश्विक आर्थिक व्यवस्था की नींव खोलकर देखें तो पाएंगे कि यह प्रणाली हमेशा से अधिकतम लाभ के लिए मुक्त बाजार की अवधारणा पर आधारित रही है। लेकिन मुक्त बाजार के इस मॉडल ने गरीब और गरीबतर के बीच की खाई को और गहरा कर दिया है। विकसित देशों में औद्योगिक और तकनीकी क्षेत्रों में हुई तीव्र प्रगति के बावजूद, इन देशों के मजदूर वर्ग को ठोस आर्थिक सुरक्षा नहीं मिली। अमेरिका के ‘रस्ट बेल्ट’ क्षेत्र में फैले औद्योगिक पतन तथा ब्रिटेन में ब्रेक्जिट के पीछे यही आर्थिक असुरक्षा और सामाजिक असंतोष प्रमुख कारक थे। इन क्षेत्रों के लोगों ने महसूस किया कि वैश्वीकरण की खुली नीतियाँ उनकी आजीविका को नुकसान पहुंचा रही हैं तथा उनकी सांस्कृतिक पहचान खतरे में है। इस असंतोष ने राष्ट्रवादी और लोकलुभावन पार्टियों को बढ़ावा दिया, जो संरक्षणवाद और सीमाओं की कड़ाई की बात कर रही थीं।

यह विरोध केवल पश्चिमी देशों में ही सीमित नहीं है। वैश्वीकरण के इस पुनर्मूल्यांकन का प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था और राजनीति पर भी देखा जा सकता है। भारत ने जहां एक ओर विश्व बाजार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाई है, वहीं ‘आत्मनिर्भर भारत’ जैसी नीतियाँ अपनाकर घरेलू उत्पादन और रोजगार को प्रोत्साहित किया है। इसके माध्यम से भारत ने वैश्वीकरण की चुनौतियों से निपटने के लिए ‘संतुलित स्वतंत्रता’ का एक नया मॉडल पेश किया है। अर्थशास्त्री डेनियल रोद्रिक के ‘पोलिटिकल ट्राइलेमा’ के अनुसार, एक राष्ट्र तीनों – लोकतंत्र, संप्रभुता और वैश्वीकरण – का पूरा संतुलन नहीं बना सकता, बल्कि दो विकल्पों को चुनना पड़ता है। भारत का आत्मनिर्भरता अभियान इसी सिद्धांत का एक जीवंत उदाहरण है, जहाँ आर्थिक स्वतंत्रता के साथ-साथ राजनीतिक नियंत्रण भी मजबूत किया जा रहा है।

वहीं चीन ने वैश्वीकरण का एक नियंत्रित संस्करण अपनाया है, जिसमें विदेशी निवेश और व्यापार की अनुमति दी गई है, किंतु रणनीतिक क्षेत्रों पर सख्त नियंत्रण रखा गया है। चीन ने सरकारी उपक्रमों के माध्यम से अपने आर्थिक हितों की रक्षा की और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में अपनी महत्वपूर्ण स्थिति कायम रखी। चीन के इस मॉडल में ‘मेड इन चाइना’ जैसी पहलें उसके वैश्विक प्रभुत्व की भू-राजनीतिक रणनीति का हिस्सा हैं। यह स्पष्ट संकेत हैं कि वैश्वीकरण के इस नए दौर में राष्ट्रीय संप्रभुता को कमजोर किए बिना आर्थिक विस्तार संभव है, लेकिन इसके लिए ‘सोची-समझी’ रणनीति और नियंत्रण आवश्यक हैं।

वैश्वीकरण से दूर जाने की इस प्रवृत्ति का एक महत्वपूर्ण कारण तकनीकी और व्यापारिक वैश्वीकरण के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान का संकट भी है। प्रवास और शरणार्थी संकट के कारण यूरोपीय देशों में देशी आबादी को अपनी संस्कृति और भाषा के संरक्षण की चिंता सताने लगी है। इस संबंध में यूरोप में राष्ट्रवादी आंदोलनों का उभार, जैसे कि फ्रांस का ‘यलो वेस्ट’ आंदोलन, जर्मनी का ‘आल्टरनेटिव फॉर जर्मनी’ और ब्रिटेन का ब्रेक्जिट आंदोलन विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन आंदोलनों का मूल कारण वैश्वीकरण के चलते आई अप्रत्यक्ष बेरोजगारी, सामाजिक विभाजन और सांस्कृतिक विस्थापन की धारणा है।

दुनिया भर में व्यापार और निवेश को लेकर अब यह स्पष्ट नजर आ रहा है कि वे केवल आर्थिक हितों के लिए सीमित नहीं रह गए हैं, बल्कि वे राष्ट्रीय सुरक्षा के महत्वपूर्ण औजार भी बन गए हैं। इसके उदाहरण के रूप में हम देखते हैं कि अमेरिका और उसकी पश्चिमी सहयोगी शक्ति अब चीन के साथ व्यापार संबंधों में कठिन रुख अपनाने लगे हैं ताकि तकनीकी और सुरक्षा क्षेत्रों में अपनी प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त बनी रहे। इसी प्रकार, भारत ने भी चीन से आयातित वस्तुओं के खिलाफ विभिन्न प्रतिबंध लगाए हैं और घरेलू उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए ‘मेक इन इंडिया’ अभियान को उच्च प्राथमिकता दी है। यह कदम वैश्वीकरण के पारंपरिक स्वरूप से अलग एक नए स्वायत्त और संरक्षित आर्थिक ढांचे की स्थापना में सहायक है।

वैश्विक स्तर पर, कोविड-19 महामारी और रूस-यूक्रेन युद्ध जैसे घटनाक्रमों ने सप्लाई चेन के मुद्दे को गहराई से उजागर किया। इन संकटों ने संकेत दिया कि वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में अत्यधिक निर्भरता जोखिम भरी हो सकती है, जिसके कारण राष्ट्रों ने घरेलू स्तर पर आत्मनिर्भरता को प्राथमिकता देना शुरू कर दिया। यह बदलाव देशों के बीच सहयोग के नए विकल्पों के सृजन और आपसी राजनीतिक रिश्तों में नए समीकरणों के विकास को भी जन्म दे रहा है। बहुपक्षीय संस्थाएं जैसे कि विश्व व्यापार संगठन, संयुक्त राष्ट्र, और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थान अब संरक्षणवादी और राष्ट्रवादी प्रवृत्तियों के कारण अपनी प्रभावशीलता में कमी का सामना कर रहे हैं।

साथ ही, इस वैश्वीकरण से दूर जाने के रुझान ने ‘नागरिक वैश्वीकरण’ यानी सांस्कृतिक, सामाजिक, और तकनीकी आदान-प्रदान के क्षेत्र में भी प्रभाव डाला है। राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर सांस्कृतिक संरक्षण और लोकलुभावन नीतियों को प्राथमिकता मिलने लगी है। इससे ना केवल आर्थिक नीतियों में कठिनाई आई है बल्कि वैश्विक सांस्कृतिक सामंजस्य भी चुनौतीपूर्ण हो गया है। देश अपनी लोकभाषा, परंपराओं और सांस्कृतिक विरासत की रक्षा के लिए कठोर कदम उठा रहे हैं, जिससे वैश्विक स्तर पर मानवता के साझा मूल्यों को संतुलित करने की जटिलताएं बढ़ रही हैं।

वैश्वीकरण के इस विरोध की दूसरी ओर, विकासशील देशों में यह चिंता भी है कि वैश्वीकरण ने वास्तव में उनकी पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्थाओं को उनका वांछित लाभ नहीं पहुंचाया। बहुत से विकासशील देश आज भी तकनीकी, वित्तीय और बाजार श्रेष्ठता के केन्द्रों के अधीन हैं। जलवायु परिवर्तन, वैश्विक आर्थिक असमानता, और खाद्य सुरक्षा जैसे मुद्दे वैश्वीकरण के तनाव को और बढ़ा रहे हैं। इन जटिलताओं के समाधान के लिए बहुपक्षीय सहयोग की आवश्यकता है, लेकिन आज का बहुपक्षीय परिदृश्य राष्ट्रीय हितों के कारण अत्यंत संवेदनशील और जटिल हो गया है।

आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक स्तर पर वैश्वीकरण से दूर इस प्रवृत्ति के बीच यह भी देखा जा सकता है कि ऐसे निर्णय केवल पूर्ण राष्ट्रवाद या पूर्ण वैश्वीकरण की स्थिति के बीच संतुलन स्थापित करने के प्रयास हैं। भारत, चीन, रूस जैसे देश इस संतुलन को अपने हितों के अनुसार नियंत्रित करते दिख रहे हैं, जो देश की अपनी अर्थव्यवस्था और जनता की भलाई को प्राथमिकता देते हैं, लेकिन साथ ही अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी अपनी सहायक भूमिका निभाते हैं। भारत की ‘I2U2’ पहल, ‘BRICS’ का विस्तार, और दक्षिण एशियाई सहयोग इस रणनीति के प्रमुख उदाहरण हैं।

अंत में, वैश्वीकरण से दूर जाने का ट्रेंड एक सामाजिक-राजनीतिक वास्तविकता है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह ट्रेंड हमें इस तथ्य की ओर इंगित करता है कि वैश्वीकरण कालीन नीति-निर्माण को अधिक न्यायसंगत, समावेशी और संतुलित बनाना होगा। वैश्विक सहयोग और राष्ट्रीय स्वायत्तता के बीच संतुलन से ही स्थिरता और समृद्धि संभव होगी। भविष्य की नीति में आर्थिक विकास के साथ साथ सामाजिक असमानता, रोजगार सुरक्षा और सांस्कृतिक पहचान की सुरक्षा पर भी पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए। तभी वैश्विक राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्थाएं मानवता के सर्वांगीण कल्याण की दिशा में आगे बढ़ पाएंगी।

इस प्रकार, वैश्वीकरण से दूर जाने के वर्तमान ट्रेंड को भारत और विश्व की जटिलताओं की समझ के साथ ही मूल्यांकन और रणनीति से नैकता-सम्पन्न किया जा सकता है। यह केवल वैश्विक व्यापार या आर्थिक नीति का मुद्दा नहीं, बल्कि लोकतंत्र, संप्रभुता और सामाजिक न्याय के बीच समायोजन का संग्राम है, जिसका प्रभाव आनेवाले दशकों में विश्व के राजनीतिक-आर्थिक नक्शे को पूरी तरह बदल सकता है।


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