बीसवीं सदी के मध्य में जब अफ्रीका और एशिया के देशों ने यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियों से स्वतंत्रता प्राप्त की, तो यह मानव इतिहास में स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय की एक नई लहर मानी गई। परंतु घाना के पहले राष्ट्रपति और अफ्रीकी एकता के महान प्रवक्ता क्वामे नक्रूमा (Kwame Nkrumah) ने चेतावनी दी कि यह स्वतंत्रता केवल सतही है।
उनकी 1965 में प्रकाशित पुस्तक “Neo-Colonialism: The Last Stage of Imperialism” में उन्होंने तर्क दिया कि उपनिवेशवाद का अंत नहीं हुआ है उसने केवल अपना रूप बदल लिया है। नक्रूमा ने इस नए रूप को नाम दिया नव-औपनिवेशवाद” (Neo-Colonialism)।
1. नव-औपनिवेशवाद की परिभाषा और मूल विचार
नक्रूमा के अनुसार, नव-औपनिवेशवाद वह अवस्था है जिसमें कोई देश औपचारिक रूप से स्वतंत्र तो हो जाता है, परंतु उसकी राजनीतिक नीतियाँ, आर्थिक व्यवस्था और सांस्कृतिक जीवन विदेशी शक्तियों के प्रभाव में रहते हैं। वे लिखते हैं नव-औपनिवेशवाद में नियंत्रण बिना कब्ज़े के चलता है। देश स्वतंत्र दिखता है, परंतु उसकी आत्मा अब भी बँधी रहती है। इस दृष्टिकोण से, नक्रूमा का कहना था कि साम्राज्यवाद अब सैनिक शासन या प्रत्यक्ष प्रशासन के रूप में नहीं, बल्कि आर्थिक प्रभुत्व, विदेशी निवेश, और सांस्कृतिक प्रभाव के माध्यम से कायम है।
2. औपनिवेशिक शासन से नव-औपनिवेशवाद तक का परिवर्तन
औपनिवेशिक युग में यूरोपीय देश प्रत्यक्ष रूप से शासन करते थे, परंतु द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब औपनिवेशिक प्रणाली का विरोध बढ़ा, तो उन्होंने अपनी रणनीति बदल दी।
नक्रूमा ने बताया कि अब वही शक्तियाँ नए औजारों से अपने हित साध रही हैं —
इन माध्यमों से विकसित देश विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था को अपने हित में मोड़ लेते हैं।
3. आर्थिक नियंत्रण: नव-औपनिवेशवाद का सबसे बड़ा हथियार
नक्रूमा के विचार में, नव-औपनिवेशवाद की सबसे शक्तिशाली विधाआर्थिक नियंत्रण है।
वे कहते हैं कि विदेशी निवेश और सहायता के बहाने अमीर देश गरीब देशों की नीतियों पर नियंत्रण रखते हैं।
उदाहरणतः
इस प्रकार, स्वतंत्रता के बाद भी आर्थिक निर्भरता बनी रहती है यही नव-औपनिवेशिक जाल है।
4. राजनीतिक और सांस्कृतिक नियंत्रण
नक्रूमा का तर्क था कि नव-औपनिवेशवाद केवल आर्थिक नहीं बल्किराजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में भी गहराई से फैला हुआ है।
(क) राजनीतिक हस्तक्षेप
विदेशी शक्तियाँ अक्सर अपनी पसंद की सरकारों को समर्थन देती हैं या असहमत नेताओं को सत्ता से हटाने का प्रयास करती हैं। इससे स्थानीय राजनीति विदेशी हितों के अधीन हो जाती है।
(ख) सांस्कृतिक प्रभुत्व
पश्चिमी शिक्षा प्रणाली, मीडिया और उपभोक्तावादी संस्कृति विकासशील देशों में प्रवेश कर लोगों की सोच को प्रभावित करती है।लोग अपनी परंपराओं और मूल्यों से दूर होकर पश्चिमी जीवनशैली को आदर्श मानने लगते हैं। यह मानसिक दासता का रूप है जिसे नक्रूमा ने“मानसिक उपनिवेशवाद” कहा।
5. अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ और नव-औपनिवेशिक ढाँचा
नक्रूमा ने IMF, World Bank, और United Nations जैसी संस्थाओं की तीखी आलोचना की।
उनका कहना था कि ये संस्थाएँ वैश्विक न्याय के बजाय अमीर देशों के हित में काम करती हैं। वे गरीब देशों को “विकास” के नाम पर ऋण देती हैं, लेकिन उस पर कठोर शर्तें लगाकर उन्हें और गहरे आर्थिक नियंत्रण में बाँध देती हैं। इस प्रक्रिया में विकसित देशों की आर्थिक नीतियाँ ही वैश्विक मानक बन जाती हैं।
6. अफ्रीका और नव-औपनिवेशवाद
नक्रूमा के लिए यह विषय व्यक्तिगत और राजनीतिक दोनों था। वे स्वयं घाना के पहले प्रधानमंत्री थे और उन्होंने ब्रिटिश उपनिवेशवाद से स्वतंत्रता दिलाई थी।उन्होंने देखा कि स्वतंत्रता के कुछ वर्षों बाद ही घाना की अर्थव्यवस्था विदेशी निवेशकों और पश्चिमी शक्तियों के नियंत्रण में जा रही थी। उन्होंने कहा“अफ्रीका की मुक्ति अधूरी है जब तक कि उसकी अर्थव्यवस्था विदेशी शक्तियों के नियंत्रण से मुक्त नहीं होती।”
7. समाधान: अफ्रीकी एकता और आत्मनिर्भरता
नक्रूमा ने नव-औपनिवेशवाद से मुक्ति के लिए दो प्रमुख समाधान प्रस्तुत किए:
सभी अफ्रीकी देशों को मिलकर एकजुट होना चाहिए ताकि वे सामूहिक रूप से विदेशी दबावों का सामना कर सकें।
उन्होंने एक “संयुक्त अफ्रीकी राज्य” (United States of Africa) की कल्पना की थी।
अफ्रीकी देशों को अपने संसाधनों का उपयोग स्वयं करना चाहिए, और विदेशी सहायता या निवेश पर निर्भरता घटानी चाहिए।
शिक्षा, उद्योग और तकनीक में स्वदेशी विकास पर जोर देना चाहिए।
8. सांस्कृतिक पुनर्जागरण और मानसिक मुक्ति
नक्रूमा ने कहा कि आर्थिक या राजनीतिक स्वतंत्रता पर्याप्त नहीं हैमानसिक स्वतंत्रता भी आवश्यक है। जब तक लोग अपनी संस्कृति, इतिहास और पहचान पर गर्व नहीं करेंगे, वे विदेशी प्रभावों से मुक्त नहीं हो सकते। उन्होंने अफ्रीकी सांस्कृतिक पुनर्जागरण का आह्वान किया, ताकि लोग अपनी जड़ों से जुड़ सकें।
9. पुस्तक का आज के संदर्भ में महत्व
भले ही यह पुस्तक 1965 में लिखी गई हो, लेकिन इसके विचार आज भी अत्यंत प्रासंगिक हैं।
वैश्वीकरण, विदेशी निवेश, और अंतरराष्ट्रीय ऋण नीति के युग में, नक्रूमा की चेतावनियाँ और भी सटीक लगती हैं। विकासशील देशों की नीतियाँ अब भी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों द्वारा प्रभावित होती हैं। इस दृष्टि से, “Neo-Colonialism: The Last Stage of Imperialism” एक दूरदर्शी कृति है जो आधुनिक विश्व-व्यवस्था की असमानताओं को उजागर करती है।
निष्कर्ष
क्वामे नक्रूमा की पुस्तक केवल अफ्रीका के लिए नहीं, बल्कि पूरे वैश्विक दक्षिण (Global South) के लिए चेतावनी है। वे बताते हैं कि जब तक कोई देश आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं बनता और सांस्कृतिक रूप से आत्मविश्वासी नहीं होता, तब तक उसकी स्वतंत्रता अधूरी है। यह पुस्तक हमें यह सिखाती है कि औपनिवेशिकता कभी पूरी तरह समाप्त नहीं होती; वह केवल अपना रूप बदलती है।
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