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साम्प्रदायिकता : भारतीय समाज की चुनौती और समाधान

परिचय

भारत विश्व का सर्वाधिक विविधतापूर्ण देश है — यहाँ अनेक धर्म, जातियाँ, भाषाएँ और संस्कृतियाँ सह-अस्तित्व में हैं। यही विविधता भारत की शक्ति भी है और उसकी परीक्षा भी। जब यह विविधता सौहार्द में रूपांतरित होती है, तब “भारत” एक सांस्कृतिक महासंगम बनता है; परंतु जब यही विविधता साम्प्रदायिक विभाजन में बदल जाती है, तो सामाजिक सौहार्द खतरे में पड़ जाता है।

साम्प्रदायिकता केवल धार्मिक असहिष्णुता नहीं, बल्कि धर्म की राजनीति है — जब धर्म का उपयोग सत्ता, प्रभाव या आर्थिक लाभ प्राप्त करने के लिए किया जाता है। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए आंतरिक विघटन का सबसे गम्भीर कारण बन चुका है।

साम्प्रदायिकता का अर्थ और प्रकृति

साम्प्रदायिकता (Communalism) एक ऐसी विचारधारा है जो समाज को धार्मिक रेखाओं पर विभाजित करती है। इसके अनुसार, एक धार्मिक समूह के हित दूसरे समूह के हितों से विरोधाभासी माने जाते हैं।

समाजशास्त्रीय दृष्टि से, साम्प्रदायिकता को ‘समूह चेतना का विकृत रूप’ कहा जा सकता है — जब धार्मिक पहचान नागरिक पहचान पर हावी हो जाती है।

इसके तीन प्रमुख रूप हैं –

  1. सांस्कृतिक साम्प्रदायिकता: जिसमें अपने धर्म की संस्कृति को सर्वोच्च मानकर अन्य को तुच्छ ठहराया जाता है।
  2. राजनीतिक साम्प्रदायिकता: जब राजनीतिक संगठन धर्म का उपयोग वोट बैंक बनाने के लिए करते हैं।
  3. आर्थिक साम्प्रदायिकता: जब संसाधनों के असमान वितरण का दोष किसी धार्मिक समुदाय पर थोप दिया जाता है।

भारत में साम्प्रदायिकता की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

भारत में साम्प्रदायिकता की जड़ें औपनिवेशिक काल में गहरी हुईं। ब्रिटिश शासकों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत अलग निर्वाचन प्रणाली (Separate Electorate) का प्रावधान किया। इससे धार्मिक समुदायों की राजनीतिक पहचानें सुदृढ़ हुईं।

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गांधीजी, नेहरू, मौलाना आज़ाद और अन्य नेताओं ने साम्प्रदायिकता के विरुद्ध राष्ट्रीय एकता और धर्मनिरपेक्षता का संदेश दिया, किंतु 1947 का विभाजन साम्प्रदायिक मानसिकता की चरम परिणति थी।

स्वतंत्रता के बाद भी, साम्प्रदायिकता भारतीय राजनीति से समाप्त नहीं हुई। 1960 के दशक से लेकर आज तक अनेक दंगे (जैसे अहमदाबाद 1969, मुरादाबाद 1980, दिल्ली 1984, अयोध्या 1992, गुजरात 2002, और हाल के वर्षों में सोशल मीडिया आधारित ध्रुवीकरण) इस समस्या की गहराई को दर्शाते हैं।

साम्प्रदायिकता के मूल कारण – एक विश्लेषणात्मक दृष्टि

  1. औपनिवेशिक विरासत: ब्रिटिश शासन ने भारतीय समाज को हिन्दू-मुस्लिम, उच्च-निम्न और क्षेत्रीय आधार पर बाँट दिया। स्वतंत्र भारत ने राजनीतिक रूप से तो आज़ादी पा ली, पर मानसिक रूप से यह विभाजन अब भी जीवित है।
  2. राजनीतिक उपयोगिता: आधुनिक भारत में साम्प्रदायिकता एक ‘राजनीतिक पूँजी’ बन चुकी है। चुनावी राजनीति में ‘धर्म आधारित ध्रुवीकरण’ (Polarisation) का उपयोग सत्ता प्राप्ति के हथियार के रूप में किया जाता है।
  3. सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा: बेरोज़गारी, गरीबी और अवसरों की कमी से पीड़ित वर्ग साम्प्रदायिक नेताओं के बहकावे में आसानी से आता है।
  4. शिक्षा प्रणाली की विफलता: शिक्षा में वैज्ञानिक सोच और संविधान आधारित नागरिकता मूल्यों का अभाव युवाओं को साम्प्रदायिक सोच से मुक्त नहीं कर पाता।
  5. मीडिया और सोशल मीडिया की भूमिका: आज फेक न्यूज़ और नफ़रत फैलाने वाले संदेशों ने साम्प्रदायिकता को डिजिटल रूप दे दिया है। यह ‘साइबर साम्प्रदायिकता’ पहले से कहीं अधिक ख़तरनाक है।
  6. वैश्विक परिप्रेक्ष्य: पश्चिम एशिया, अफगानिस्तान या पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरता की घटनाओं का प्रभाव भारत के धार्मिक समूहों पर भी परोक्ष रूप से पड़ता है।

साम्प्रदायिकता के प्रभाव – समाज और राजनीति पर परिणाम

  1. राष्ट्रीय एकता का ह्रास: साम्प्रदायिक हिंसा राष्ट्र की एकता और अखंडता को कमजोर करती है।
  2. लोकतंत्र का अवमूल्यन: जब नागरिक धार्मिक पहचान के आधार पर मतदान करते हैं, तो लोकतंत्र की आत्मा नष्ट होती है।
  3. आर्थिक अस्थिरता: दंगों से उद्योग, व्यापार और निवेश पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
  4. सामाजिक अविश्वास: विभिन्न समुदायों के बीच विश्वास की कमी से सामाजिक संरचना विखंडित होती है।
  5. अंतरराष्ट्रीय छवि पर दुष्प्रभाव: भारत की धर्मनिरपेक्ष पहचान पर प्रश्नचिह्न लग जाता है।

साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता का अंतर्संबंध

साम्प्रदायिकता का समाधान केवल धर्मनिरपेक्षता (Secularism) में निहित है, परन्तु धर्मनिरपेक्षता का अर्थ ‘धर्म विरोध’ नहीं, बल्कि ‘सर्व धर्म समभाव’ है।

भारतीय संविधान अनुच्छेद 25 से 28 तक धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है, पर साथ ही राज्य को धर्म से निरपेक्ष रहने का आदेश देता है।

जब धर्मनिरपेक्षता व्यवहार में उतरती है, तभी साम्प्रदायिकता का प्रभाव समाप्त हो सकता है।

उपाय – साम्प्रदायिकता से मुक्ति की राह

  1. शिक्षा में नैतिकता और नागरिकता का समावेश: युवाओं को संविधान, मानवाधिकार और बहुलतावाद की शिक्षा दी जानी चाहिए।
  2. राजनीतिक सुधार: चुनाव आयोग को साम्प्रदायिक बयानबाज़ी पर कड़ा रुख अपनाना चाहिए।
  3. मीडिया की जवाबदेही: ‘टीआरपी आधारित सनसनीखेज़ी’ की जगह ‘शांति पत्रकारिता’ को प्रोत्साहन देना चाहिए।
  4. आर्थिक समावेशन: सभी समुदायों को समान अवसर देकर असमानता और असंतोष को दूर करना होगा।
  5. सांस्कृतिक संवाद: साझा त्योहारों, सांस्कृतिक आयोजनों और इंटर-फेथ संवादों के माध्यम से सामाजिक एकता को सुदृढ़ किया जा सकता है।
  6. नागरिक समाज की भूमिका: एनजीओ, धार्मिक संगठन और शैक्षिक संस्थान सामाजिक सौहार्द के वाहक बन सकते हैं।

समकालीन संदर्भ में साम्प्रदायिकता की नई चुनौतियाँ

21वीं सदी की साम्प्रदायिकता पारंपरिक रूप से भिन्न है। अब यह सोशल मीडिया, आर्थिक असुरक्षा, और पहचान की राजनीति के नए रूपों में सामने आती है।

‘मेजरिटेरियनिज़्म’ (बहुसंख्यवाद) और ‘माइनॉरिटी इनसिक्योरिटी’ (अल्पसंख्यक असुरक्षा) का द्वंद्व भारत की लोकतांत्रिक आत्मा को चुनौती दे रहा है।

इसलिए आज आवश्यकता है ‘संवैधानिक राष्ट्रवाद’ (Constitutional Nationalism) की — जो धर्म, भाषा और जाति से ऊपर उठकर नागरिकता को ही एकमात्र पहचान माने।

निष्कर्ष

साम्प्रदायिकता किसी समाज की आत्मा को खोखला कर देती है। यह आधुनिक लोकतंत्र की वह बीमारी है जो बाहर से नहीं, भीतर से राष्ट्र को नष्ट करती है।

भारत का भविष्य इस पर निर्भर करेगा कि वह अपनी विविधता को संघर्ष नहीं, बल्कि सहयोग का स्रोत बना सके।

जैसा कि गांधीजी ने कहा था —

“सच्चा धर्म वह है जो हमें एक-दूसरे के निकट लाए, न कि दूर करे।”

अतः आवश्यक है कि हम धर्मनिरपेक्ष मूल्यों, वैज्ञानिक सोच, और मानवीय सहिष्णुता के माध्यम से साम्प्रदायिकता की जड़ों को समाप्त करें और एक ऐसे भारत का निर्माण करें जहाँ “अनेकता में एकता” केवल नारा नहीं, बल्कि जीवन का आधार बने।


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