भारतीय संविधान की प्रस्तावना पर संविधान सभा की बहस में कई प्रमुख सदस्यों ने अपने-अपने दृष्टिकोण प्रकट किए, जिनका उल्लेख करना जरूरी है ताकि यह स्पष्ट हो सके कि किसने क्या कहा। 17 अक्टूबर 1949 को हुई इस बहस में प्रस्तावना को अंतिम रूप देने के लिए सदस्य विभिन्न सुझाव और आपत्तियां लेकर आए। संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने सहमति बनाते हुए सदस्यों की बातों को संयमित रखने की कोशिश की।
जवाहरलाल नेहरू ने प्रस्तावित किया था कि प्रस्तावना में ‘हम, भारत के लोग, भारत को एक संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए संकल्पित हैं’ जैसा भाव होना चाहिए। उन्होंने स्वतंत्रता, न्याय, समानता और बंधुत्व पर आधारित लोकतांत्रिक भारत के निर्माण पर जोर दिया। डॉ. भीमराव अंबेडकर, जो संविधान सभा के प्रमुख सदस्य थे, ने भी प्रस्तावना के इन मूलभूत सिद्धांतों का समर्थन किया और इसे संविधान की आत्मा बताया।
बहस का एक विवादास्पद मुद्दा था ‘ईश्वर’ शब्द को प्रस्तावना में शामिल करने का प्रस्ताव। शिब्बन लाल सक्सेना ने प्रस्तावना में ‘सर्वशक्तिमान ईश्वर के नाम पर’ शब्द जोड़ने का सुझाव दिया और साथ ही महात्मा गांधी का नाम प्रस्तावना में शामिल करने की भी बात कही। उनका यह मानना था कि गांधीजी ने भारत को अहिंसा और सत्य के मार्ग पर अग्रसर किया है, इसलिए उनका नाम प्रस्तावना में होना चाहिए। इसके विपरीत, ब्रजेश्वर प्रसाद ने गांधी के नाम को संविधान में शामिल करने का विरोध किया, यह तर्क देते हुए कि संविधान का आधार 1935 के भारत सरकार अधिनियम और अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय हैं, न कि गांधीवादी सिद्धांत। डॉ. अंबेडकर ने भी संविधान को धर्मनिरपेक्ष बनाए रखने के पक्ष में थे और ‘ईश्वर’ शब्द को प्रस्तावना से निकालने के पक्ष में तर्क प्रस्तुत किया।
मौलाना हसरत मोहानी ने ‘स्वतंत्र संप्रभु गणराज्य’ के पक्ष में आवाज उठाई और संविधान के सामाजिक उद्देश्य पर बल दिया। वहीं, एच.वी. कामथ ने ‘हम, भारत के लोग’ से पहले ‘ईश्वर के नाम पर’ जोड़ने का सुझाव दिया जो अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद द्वारा तुरंत अस्वीकार कर दिया गया क्योंकि उस समय यह विषय मत-विभाजन के लिए उपयुक्त नहीं समझा गया।
गोविंद बल्लभ पंत और गोविंद मालवीय जैसे सदस्यों ने ‘ईश्वर’ शब्द को शामिल करने का समर्थन किया और इसके पक्ष में मत-विभाजन का प्रस्ताव रखा। इसके बावजूद, यह प्रस्ताव पारित नहीं हुआ, क्योंकि बहुमत सदस्यों ने संविधान को धर्मनिरपेक्ष बनाए रखने पर जोर दिया। एटी पिल्लई ने कहा कि ‘ईश्वर’ शब्द को शामिल करना धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन कर सकता है।
अंततः बहुमत के दबाव में शिब्बन लाल सक्सेना ने गांधी के नाम को शामिल करने का अपना प्रस्ताव वापस ले लिया, यह कहते हुए कि यदि आवश्यक हुआ तो भविष्य में इसे संशोधित किया जा सकता है। बहस में यह भी देखा गया कि संविधान सभा के सदस्य चाहते थे कि प्रस्तावना का पाठ इतना सर्वज्ञेय हो कि वह पूरी भारत की विविध धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को समाहित कर सके, इसलिए ‘ईश्वर’ और ‘गांधी’ शब्द को प्रस्तावना से हटाए रखना आवश्यक माना गया। इस बहस से पता चलता है कि संविधान निर्माताओं ने एक समावेशी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र की स्थापना के लिए कितना विचार-विमर्श किया।
यद्यपि आज के युग में भारत के सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों में परिवर्तन हुआ है, भारतीय संविधान की प्रस्तावना में निहित न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मूल सिद्धांत आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। संविधान सभा की यह बहस हमें याद दिलाती है कि भारत ने एक ऐसी संविधान की रचना की, जो सभी के लिए समान अवसर और सम्मान की गारंटी देती है, और यह सिद्धांत हमारे लोकतंत्र की बुनियाद है। इस बहस के माध्यम से यह भी स्पष्ट होता है कि संविधान केवल एक कानूनी दस्तावेज नहीं बल्कि एक जीवंत अभिव्यक्ति है, जो अपने समय की सोच और आदर्शों को समाहित करती है और आने वाली पीढ़ियों को मार्गदर्शन देती है।
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