मनुष्य ने सभ्यता की शुरुआत से ही सुरक्षा की तलाश में हथियार विकसित किए, परंतु जैसे-जैसे विज्ञान और तकनीक आगे बढ़ी, हथियार उतने ही घातक, व्यापक और विनाशकारी होते गए। 20वीं सदी के दो विश्वयुद्धों ने यह स्पष्ट कर दिया कि हथियार केवल शक्ति का प्रतीक नहीं, बल्कि मानवता के अस्तित्व के लिए खतरा भी हैं। विशेषकर परमाणु हथियारों के आगमन ने युद्ध और शांति—दोनों की परिभाषा बदल दी। इसी पृष्ठभूमि में ‘निर्शस्त्रीकरण’ समूचे विश्व के लिए एक नैतिक, राजनीतिक और सुरक्षा-संबंधी आवश्यकता बनकर उभरा। आज जब भू-राजनीति, तकनीकी हथियारों की प्रतिस्पर्धा और महान शक्तियों के टकराव से विश्व अस्थिरता की ओर बढ़ रहा है, निर्शस्त्रीकरण एक वैश्विक अनिवार्यता के रूप में सामने आता है।
निर्शस्त्रीकरण का अर्थ एवं महत्व
निर्शस्त्रीकरण का मूल अर्थ है—राज्यों द्वारा स्वेच्छा या समझौते के माध्यम से हथियारों की संख्या, क्षमता या विविधता में कमी लाना। यह केवल युद्ध की संभावना कम करने भर की प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक व्यापक मानव सुरक्षा अवधारणा है, जिसमें विश्वास-निर्माण (confidence building), शांति स्थापना, संसाधनों के न्यायसंगत उपयोग और अंतरराष्ट्रीय सहयोग की भावना शामिल है।
इसका महत्व कई स्तरों पर देखा जा सकता है—
- युद्ध की संभावना में कमीः हथियार दौड़ अक्सर टकराव को अनिवार्य बनाती है। निर्शस्त्रीकरण अंतरराष्ट्रीय अविश्वास को घटाता है।
- आर्थिक लाभः हथियार निर्माण व रखरखाव पर खर्च किया गया धन शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास कार्यों में लगाया जा सकता है।
- मानव सुरक्षाः परमाणु, रासायनिक और जैविक हथियार समूची मानव सभ्यता को तत्काल समाप्त कर सकते हैं।
- वैश्विक स्थिरताः हथियारों का विस्तार अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को अस्थिर करता है।
- नैतिक पहलूः विनाशकारी हथियारों का होना मानवता के अस्तित्व के विपरीत है।
इतिहास में निर्शस्त्रीकरण के प्रयास
यद्यपि निर्शस्त्रीकरण का विचार प्राचीन दर्शन में भी मिलता है, परंतु इसके आधुनिक प्रयास प्रथम विश्वयुद्ध के बाद लीग ऑफ नेशन्स से प्रारंभ हुए। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र के गठन ने इसे एक सुदृढ़ ढांचा प्रदान किया।
- 1968 का NPT परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने का सबसे महत्वपूर्ण समझौता बना।
- 1972 का Biological Weapons Convention (BWC) और 1993 का Chemical Weapons Convention (CWC) व्यापक विनाशकारी हथियारों पर रोक के मील के पत्थर हैं।
- अमेरिका–सोवियत संघ के बीच START समझौते ने शीतयुद्धकालीन हथियार प्रतिस्पर्धा को काफी हद तक नियंत्रित किया।
- 1996 का Comprehensive Test Ban Treaty (CTBT) एक महत्वपूर्ण लेकिन अधूरा प्रयास रहा, क्योंकि कुछ प्रमुख शक्तियाँ इसे स्वीकार नहीं कर सकीं।
ये सभी प्रयास दिखाते हैं कि वैश्विक समुदाय निरंतर ऐसे तंत्र विकसित करने का प्रयास कर रहा है जिससे मानवता सुरक्षित रह सके।
वैश्विक भू-राजनीति एवं निर्शस्त्रीकरण की चुनौतियाँ
आज निर्शस्त्रीकरण की राह पहले से अधिक जटिल है क्योंकि—
- महान शक्तियों का अविश्वास—अमेरिका, रूस, चीन जैसे देशों में सामरिक प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है।
- तकनीकी हथियारों का उभार—हाइपरसोनिक मिसाइल, अंतरिक्ष-आधारित हथियार, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आधारित घातक स्वचलित हथियार (LAWS) आदि ने पुराने समझौतों को अप्रासंगिक बना दिया है।
- आतंकवाद और गैर-राज्यीय अभिनेता—ऐसी संस्थाएँ हथियार नियंत्रण से बाहर होती हैं।
- हथियार अर्थव्यवस्था—कई देशों की अर्थव्यवस्था हथियार उद्योग पर निर्भर होने लगी है।
- राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव—परमाणु संपन्न देश अपने हथियारों को “निवारक साधन” (deterrence) मानते हैं, इसलिए कमी को राष्ट्रीय सुरक्षा के विरुद्ध मानते हैं।
इन चुनौतियों के कारण निर्शस्त्रीकरण केवल तकनीकी या कानूनी विषय नहीं, बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति और नैतिक दृष्टिकोण का विषय बन गया है।
संयुक्त राष्ट्र की भूमिका
संयुक्त राष्ट्र ने निर्शस्त्रीकरण को अपने प्रमुख उद्देश्यों में शामिल किया है।
- UN Office for Disarmament Affairs (UNODA) नीति निर्माण और संवाद को सुगम बनाता है।
- Conference on Disarmament (CD) बहुपक्षीय वार्ताओं का मुख्य मंच है।
- UNGA हर वर्ष “Total Disarmament” पर विभिन्न प्रस्ताव पारित करता है।
यद्यपि UN की क्षमता सुरक्षा परिषद की राजनीतिक गतिशीलताओं पर निर्भर करती है, फिर भी यह वैश्विक संवाद को जीवित रखता है।
भारत का दृष्टिकोण और भूमिका
भारत का रुख शांतिपूर्ण, संतुलित और वैश्विक न्याय पर आधारित रहा है।
- Global, Non-discriminatory Nuclear Disarmament—भारत हमेशा “सार्वभौमिक और अपरिवर्तनीय” परमाणु निर्शस्त्रीकरण का समर्थक रहा है।
- No First Use (NFU) नीति—भारत की परमाणु सिद्धांत विश्व में सबसे जिम्मेदार मानी जाती है।
- राजनीतिक संयम—1998 के बाद भारत ने कोई परमाणु परीक्षण नहीं किया, भले ही CTBT का सदस्य नहीं है।
- रासायनिक हथियारों का समापन—भारत ने CWC के तहत अपने सभी रासायनिक हथियार नष्ट किए।
- अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर सक्रिय भूमिका—भारत अंतरिक्ष और साइबर क्षेत्र में हथियारों के नियंत्रण की आवश्यकता पर लगातार जोर देता है।
भारत की नीति राष्ट्रीय सुरक्षा और वैश्विक शांति के बीच संतुलन पर आधारित है।
दार्शनिक एवं नैतिक विमर्श
निर्शस्त्रीकरण केवल सुरक्षा नीति नहीं, बल्कि एक दार्शनिक विचार है—
- गांधी का अहिंसा का सिद्धांत हथियारों के विरुद्ध नैतिक प्रतिरोध का मार्ग प्रस्तुत करता है।
- बुद्ध का मध्यम मार्ग और संघर्ष का शांति से समाधान वैश्विक समाज के लिए आज भी प्रासंगिक है।
- आज के समय में मानवता की रक्षा के लिए हथियारों की सीमितता नहीं, बल्कि मानव मूल्यों का विस्तार आवश्यक है।
इस प्रकार, निर्शस्त्रीकरण मानव जीवन की गरिमा और वैश्विक नैतिकता के साथ जुड़ा विषय है।
वर्तमान संदर्भ
यूक्रेन–रूस युद्ध, पश्चिम एशिया में संघर्ष, एशिया–प्रशांत में शक्ति-प्रतिस्पर्धा और तकनीकी हथियारों की नई दौड़—ये सभी निर्शस्त्रीकरण के लिए गंभीर खतरा हैं। विश्व एक बार फिर शीतयुद्ध जैसी स्थिति की ओर बढ़ रहा है। ऐसे में बहुपक्षीयता, राजनयिक संवाद और भरोसा-निर्माण उपायों (CBMs) की भूमिका और बढ़ जाती है।
निष्कर्ष
निर्शस्त्रीकरण कोई आदर्शवादी स्वप्न नहीं, बल्कि मानवता के अस्तित्व के लिए आवश्यक यथार्थ है। हथियारों की बढ़ती संख्या से कोई भी राष्ट्र सुरक्षित नहीं बनता; बल्कि वैश्विक अस्थिरता और जोखिम बढ़ते हैं।
विश्व तभी सुरक्षित होगा जब राष्ट्र शक्ति-प्रतिस्पर्धा से ऊपर उठकर शांति, सहयोग और मानव हित को प्राथमिकता देंगे।
अतः, निर्शस्त्रीकरण वैश्विक विकास, सामूहिक सुरक्षा और मानव गरिमा का अपरिहार्य मार्ग है—और भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक सुरक्षित विश्व का निर्माण इसी विचार पर आधारित होगा।
Discover more from Politics by RK: Ultimate Polity Guide for UPSC and Civil Services
Subscribe to get the latest posts sent to your email.


