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  Hindudom Beyond Hindu (हिंदूडम हिंदू से परे)

  Hindudom क्या है?

हिंदुत्व: हू इज़ ए हिंदू?” में विनायक दामोदर सावरकर ने हिंदू राष्ट्र की एक व्यापक परिभाषा दी, जो केवल धर्म तक सीमित नहीं थी, बल्कि एक विशिष्ट सभ्यता, संस्कृति और जातीयता पर आधारित थी। सावरकर ने ‘हिंदुत्व’ और ‘हिंदू धर्म’ के बीच एक महत्वपूर्ण भेद स्थापित किया। उनके अनुसार, हिंदुत्व केवल धार्मिक आस्था नहीं बल्कि एक जीवन पद्धति और राष्ट्रीय पहचान का प्रतीक था। उन्होंने हिंदू समाज को एक राजनीतिक और सांस्कृतिक इकाई के रूप में देखने का प्रयास किया। उनका तर्क था कि जो भी व्यक्ति भारत को अपनी “पितृभूमि” (पैतृक भूमि) और “पुण्यभूमि” (आध्यात्मिक भूमि) मानता है, वही हिंदू कहलाने के योग्य है।

हिंदुत्व क्या है ?

  • सावरकर का हिंदुत्व भारत की सांस्कृतिक परंपराओं, इतिहास और भाषा पर आधारित था। उन्होंने हिंदुत्व को एक ऐसी जीवनशैली बताया, जो हिंदू सभ्यता के मूल्यों से प्रेरित है।
  • उन्होंने कहा कि हिंदू केवल वे नहीं हैं जो हिंदू धर्म का पालन करते हैं, बल्कि वे भी हैं जो भारतीय संस्कृति और सभ्यता के अंग हैं। त्योहार, रीति-रिवाज, भाषाएँ, इतिहास और साहित्य हिंदुत्व की पहचान का हिस्सा हैं।
  • सावरकर के अनुसार, हिंदू संस्कृति का हिस्सा होना जरूरी था, न कि केवल धार्मिक हिंदू होना।
  • उन्होंने कहा कि भारतीय मुसलमान और ईसाई यदि खुद को भारत की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा मानते हैं, तो वे भी इस पहचान में शामिल हो सकते हैं।
  • सावरकर ने हिंदू समाज को जातिगत पहचान से ऊपर उठाने का प्रयास किया और इसे एक साझा विरासत और नस्लीय पहचान से जोड़ा।

Hindudom क्या है?

सावरकर ने ‘हिंदुत्व’ को Hindudom का आधार माना। ‘Hindudom’ का तात्पर्य एक ऐसे समाज या राष्ट्र से है जहाँ हिंदू संस्कृति, परंपराएँ और जीवनशैली प्रमुख भूमिका निभाते हैं। यह केवल धर्म तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक राष्ट्रीय और सभ्यतागत पहचान का प्रतीक है। लेकिन यह केवल व्यक्तिगत धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि संपूर्ण हिंदू समाज और उसकी राजनीतिक सत्ता को दर्शाता है। उन्होंने इसे इस्लामिक दुनिया (Islamdom) और क्रिश्चेंडम (Christendom) की तर्ज पर विकसित किया, जहाँ किसी धर्म विशेष से जुड़े समाज या देशों को एक इकाई के रूप में देखा जाता है।

Hindudom का ऐतिहासिक संदर्भ

  • सावरकर ने 1857 के विद्रोह को ‘भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम’ कहा और इसे हिंदू-मुस्लिम एकता के बजाय एक हिंदू नेतृत्व वाला संघर्ष बताया।
  • उन्होंने मराठा साम्राज्य और शिवाजी को ‘Hindudom’ का आदर्श उदाहरण माना, जहाँ हिंदू शक्ति संगठित होकर शासन करती थी।
  • उनके अनुसार, ‘Hindudom’ का मुख्य उद्देश्य हिंदू समाज को एक राजनीतिक और सैन्य शक्ति के रूप में स्थापित करना था।

Hindudom बनाम हिंदुत्व

हालाँकि ‘Hindudom’ और ‘Hindutva’ एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, लेकिन इनमें कुछ प्रमुख अंतर हैं:

Hindutva Hindudom
यह एक वैचारिक और सांस्कृतिक अवधारणा है। यह एक राजनीतिक और सामाजिक संरचना है।
इसका संबंध हिंदू पहचान और जीवनशैली से है। इसका संबंध हिंदू समाज की शक्ति और संगठन से है।
यह व्यक्तिगत स्तर पर हिंदू होने की भावना को व्यक्त करता है। यह एक समूह (community) के रूप में हिंदुओं की सामूहिक पहचान को दर्शाता है।

Hindudom की आलोचना

  • कुछ विचारकों का मानना है कि ‘Hindudom’ की अवधारणा बहुसांस्कृतिक भारत की समावेशी परंपरा के खिलाफ जाती है।
  • इसके आलोचकों का कहना है कि यह विचारधारा हिंदू और गैर-हिंदू समुदायों के बीच विभाजन को बढ़ावा देती है।
  • महात्मा गांधी और नेहरू जैसे नेताओं ने भारत की राष्ट्रीय पहचान को बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक बताया, जो ‘Hindudom’ के विचार से भिन्न था।

हिंदू पद पादशाही

  • सावरकर ने “हिंदू पद पादशाही” की संकल्पना प्रस्तुत की, जिसमें मराठा साम्राज्य के गौरव को पुनःस्थापित करने का प्रयास किया गया। उनके अनुसार, हिंदू शासकों ने भारतीय सभ्यता को आक्रमणकारियों से बचाने का कार्य किया था और इस संघर्ष को ऐतिहासिक रूप से मान्यता दी जानी चाहिए।
  • सावरकर जातिप्रथा के कट्टर विरोधी थे और उन्होंने समाज में समानता लाने का प्रयास किया। उन्होंने “सप्तबंधन” (Seven Shackles) का उल्लेख किया, जिसमें उन्होंने जातिगत भेदभाव, अस्पृश्यता और छुआछूत जैसी प्रथाओं को समाप्त करने का समर्थन किया।
  • सावरकर के लिए राष्ट्रवाद का आधार सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान थी। वे भारत को केवल एक भौगोलिक संरचना नहीं, बल्कि एक साझा परंपरा, संस्कृति और गौरवशाली इतिहास का प्रतीक मानते थे। उनका मानना था कि भारत का भविष्य तभी सुरक्षित रहेगा जब इसकी राष्ट्रीय पहचान को मजबूत किया जाएगा।

राष्ट्रीय पहचान (National Identity) और हिंदुत्व

  • सावरकर के हिंदुत्व में राष्ट्रीयता एक महत्वपूर्ण पहलू था। उन्होंने भारत को एक हिंदू राष्ट्र के रूप में स्थापित करने की बात कही, जहाँ हिंदू संस्कृति और परंपराएँ शासन प्रणाली का आधार बनें।
  • उन्होंने कहा कि हिंदू समाज को केवल धार्मिक आधार पर नहीं, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक एकता के आधार पर संगठित होना चाहिए।
  • उनके अनुसार, भारत एक राष्ट्र के रूप में तभी सुरक्षित रहेगा जब हिंदू समुदाय अपनी सांस्कृतिक और राजनीतिक पहचान को मजबूत करेगा।
  • हालांकि सावरकर ने धर्मनिरपेक्षता को पूरी तरह नकारा नहीं, लेकिन वे चाहते थे कि भारत की राष्ट्रीय पहचान हिंदू संस्कृति से प्रेरित हो।
  • उन्होंने यह भी कहा कि गैर-हिंदुओं को तभी भारतीय राष्ट्रीयता का हिस्सा माना जा सकता है, जब वे भारतीय संस्कृति और इतिहास को स्वीकार करें।

कौन थे वीर सावरकर

वीर सावरकर का जन्म 28 मई 1883, भगूर, नासिक, महाराष्ट्र में और मृत्यु 26 फरवरी 1966, मुंबई में हुई।

सावरकर का झुकाव बचपन से ही क्रांतिकारी गतिविधियों की ओर था। वे न केवल एक स्वतंत्रता सेनानी थे, बल्कि एक प्रभावशाली लेखक और सामाजिक सुधारक भी थे।

  • विनायक दामोदर सावरकर ने अभिनव भारत सोसाइटी (1904) की स्थापना की।
  • इंडिया हाउस (श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा 1905 में लंदन में स्थापित) से जुड़े।
  • फ्री इंडिया सोसाइटी (1906) की स्थापना लंदन में की।
  • 1937 से 1943 तक हिंदू महासभा के अध्यक्ष रहे।
  • 1857 के सिपाही विद्रोह को स्वतंत्रता संग्राम के रूप में प्रचारित किया।
  • भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास (1857 के विद्रोह और गुरिल्ला युद्ध पर) और हिंदुत्व: हिंदू कौन है? (1923) इनकी प्रमुख रचनाएँ रही

निष्कर्ष

Hindudom की अवधारणा के माध्यम से उन्होंने हिंदू समाज को केवल आध्यात्मिक या धार्मिक इकाई न मानकर, इसे राजनीतिक और सैन्य शक्ति के रूप में संगठित करने की बात कही। उन्होंने मराठा साम्राज्य और शिवाजी के शासन को इसका उदाहरण बताया और हिंदू पद पादशाही की संकल्पना को पुनर्जीवित करने की वकालत की।

हालाँकि, उनकी विचारधारा को लेकर आज भी बहस जारी है। उनके आलोचक मानते हैं कि Hindudom की अवधारणा भारत की बहुसांस्कृतिक और धर्मनिरपेक्ष परंपरा के विपरीत जाती है। महात्मा गांधी और नेहरू जैसे नेताओं ने भारत की राष्ट्रीय पहचान को बहुधार्मिक और समावेशी बताया, जो सावरकर के दृष्टिकोण से भिन्न था। फिर भी, यह स्पष्ट है कि सावरकर के विचारों ने भारतीय राजनीति, राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक पुनर्जागरण में गहरा प्रभाव डाला। उनके हिंदुत्व और Hindudom की अवधारणाएँ आज भी भारतीय राजनीति और समाज में महत्वपूर्ण विमर्श का विषय बनी हुई हैं।


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