यह लेख Benedict Anderson के प्रसिद्ध सिद्धांत “Imagined Communities” से अंतर्संबंधित है, जिसमें विशेष रूप से Partha Chatterjee की आलोचना को केंद्र में रखा गया है।
“राष्ट्र एक काल्पनिक समुदाय (Imagined Community) है। एक ऐसा समुदाय जो सामाजिक रूप से निर्मित है और जिसके सदस्य एक-दूसरे को नहीं जानने के बावजूद एक साझा राष्ट्रीय पहचान महसूस करते हैं।” – एंडरसन
“The nation is an imagined community. It is a socially constructed community, where members feel a shared national identity despite not knowing each other.” – Anderson
“Imagined Communities: Reflections on the Origin and Spread of Nationalism” (1983) में Benedict Anderson ने कल्पित समुदाय (Imagined Community) का विचार प्रस्तुत किया।
- Partha Chatterjee, Anderson के इस सिद्धांत की आलोचना करते हैं। एंडरसन के अनुसार, राष्ट्र एक काल्पनिक समुदाय है जिसकी रचना प्रिंट पूंजीवाद और यूरोपीय इतिहास की प्रक्रियाओं से हुई।
परंतु चटर्जी पूछते हैं: “क्या बाकी दुनिया की राष्ट्रवादी कल्पनाओं के पास कुछ भी मौलिक कल्पना करने को बचा है?”
परथा चटर्जी के मुख्य तर्क
- पश्चिमी मॉडल का अनुकरण, लेकिन असहमति भी
एंडरसन का मानना है कि गैर-पश्चिमी राष्ट्रों ने यूरोपीय “मॉड्यूलर” राष्ट्रवादी मॉडल अपनाया। चटर्जी असहमत हैं, उनका कहना है कि उपनिवेशवादी राष्ट्रवाद ने अपनी “आध्यात्मिक संप्रभुता” खुद गढ़ी, और यहीं से राष्ट्र की कल्पना शुरू हुई। - ‘आंतरिक‘ बनाम ‘बाहरी‘ क्षेत्र
- बाहरी क्षेत्र (राजनीति, विज्ञान, तकनीक): इसमें पश्चिम का अनुकरण आवश्यक माना गया।
- आंतरिक क्षेत्र (संस्कृति, धर्म, परिवार): इसमें पश्चिम से अलग पहचान बनाने की कोशिश की गई।
- भाषा और साहित्य
बंगाल में प्रिंट पूंजीवाद के कारण भाषा का विकास हुआ। लेकिन यह यूरोपीय मॉडल की सीधी नकल नहीं थी। बंगाली साहित्य में पश्चिमी साहित्यिक मानदंडों को अस्वीकार किया गया और अपनी सांस्कृतिक जड़ों (जैसे संस्कृत नाट्य परंपरा) को प्राथमिकता दी गई। - परिवार का क्षेत्र
सामाजिक सुधार की शुरुआत में ब्रिटिश हस्तक्षेप की माँग की गई थी, लेकिन बाद में राष्ट्रवादियों ने दावा किया कि केवल “राष्ट्र” को ही परिवार जैसे सांस्कृतिक क्षेत्र में हस्तक्षेप का अधिकार है, उपनिवेशी नहीं। - आधुनिकता की सीमा
राष्ट्रवादी आंदोलन आधुनिक संस्थाओं (जैसे चुनाव, राजनीतिक दल) अपनाते हैं, लेकिन राष्ट्रीय संस्कृति को ‘गैर-पश्चिमी आधुनिकता’ में ढालते हैं।
औपनिवेशिक बनाम उत्तर–औपनिवेशिक राज्य
चटर्जी का तर्क है कि:
- उपनिवेशकालीन राष्ट्रवाद ने “आध्यात्मिक” और “भौतिक” क्षेत्र की भिन्नता को बनाए रखा। लेकिन उत्तर–औपनिवेशिक राज्य अब “निजी” और “सार्वजनिक” के बीच भेद करता है, जिससे जाति, धर्म, भाषा जैसी विशिष्टताएँ अदृश्य हो जाती हैं, और यहीं पर वह नागरिकों के विविध अनुभवों को नजरंदाज करता है।
- पार्थ चटर्जी सवाल करते हैं कि क्या उपनिवेशवादी देशों की राष्ट्रवादी चेतना भी औपनिवेशिक मॉडल की नकल है? वह तर्क देते हैं कि भारत जैसे देशों में राष्ट्रवाद की जड़ें उपनिवेश के “आंतरिक डोमेन” में विकसित हुईं, जैसे टैगोर की ‘घरे बाहर’, राजा रवि वर्मा की चित्रकला आदि।
निष्कर्ष
समस्या यह नहीं है कि हमने राष्ट्र की नई कल्पनाएँ नहीं कीं, बल्कि यह कि हमने आधुनिक राज्य के पुराने रूप को ही जारी रखा। चटर्जी इसे उत्तर-औपनिवेशिक दुख (postcolonial misery) का मूल कारण मानते हैं।
“The nation is an imagined community, then this [spiritual domain] is where it is brought into being.”