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मध्यस्थता: न्यायिक लंबित मामलों के समाधान की ओर एक प्रभावी कदम

भारत की न्यायिक प्रणाली में लंबित मामलों की संख्या तेजी से बढ़ रहीहै। सुप्रीम कोर्ट में 82,000+, उच्च न्यायालयों में 62 लाख, और अधीनस्थन्यायालयों में 5 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। मध्यस्थता न्यायिकविलंब कम करने और विवादों के त्वरित समाधान के लिए एक प्रभावीविकल्प के रूप में उभर रही है।

न्यायपालिका से संबंधितमहत्वपूर्ण भारतीय संविधानकी विशेषता है किन्यायपालिका कार्यपालिकाऔर विधायिका से स्वतंत्रहै।
अनुच्छेद 50 में कार्यपालिकाऔर न्यायपालिका केअलगाव का प्रावधान है।
भारत में एकीकृत न्यायिकप्रणाली है।
अनुच्छेद 124-147 मेंसर्वोच्च न्यायालय के गठन, शक्तियों और अधिकार क्षेत्रका विवरण है।
मुख्य न्यायाधीश और अन्यन्यायाधीशों की नियुक्तिराष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
सर्वोच्च न्यायालय कोसंविधान का संरक्षक(Guardian of the Constitution) कहा जाताहै।
अनुच्छेद 214-231 में उच्चन्यायालय की संरचना, शक्तियाँ और अधिकार क्षेत्रका उल्लेख है।
अनुच्छेद 233-237 मेंअधीनस्थ न्यायालयों कीस्थापना, नियंत्रण औरप्रशासन का विवरण है।
भारतीय न्यायपालिका कोन्यायिक पुनरावलोकन काअधिकार है।
यह अधिकार अनुच्छेद 13, 32, 131, 136, 142 और226 में निहित है।

मध्यस्थता (Mediation) क्या है?

मध्यस्थता (Mediation) एक वैकल्पिकविवाद निवारण (ADR) प्रक्रिया है, जिसमेंएक तटस्थ तीसरा पक्ष (मध्यस्थ) विवादितपक्षों के बीच संवाद स्थापित कर उन्हेंआपसी सहमति से समाधान तक पहुँचने में सहायता करता है।

न्यायिक लंबित मामलों में मध्यस्थता कैसे सहायक है?

मध्यस्थता (Mediation) एक वैकल्पिक विवाद निवारण (ADR) प्रक्रिया है, जिसमें एक तटस्थ तीसरा पक्ष (मध्यस्थ) विवादित पक्षोंके बीच संवाद स्थापित कर उन्हें आपसी सहमति से समाधान तकपहुँचने में सहायता करता है।
इसमें पक्षकार अपनी इच्छा से शामिल होते हैं और उन पर कोईनिर्णय थोपा नहीं जाता।
मध्यस्थता की प्रक्रिया पूरी तरह गोपनीय होती है, जिससेसंवेदनशील जानकारी सार्वजनिक नहीं होती।
यह पारंपरिक न्यायिक प्रक्रियाओं की तुलना में कम समय और कमखर्चीली होती है।
मध्यस्थ विवादित पक्षों को एक सामूहिक रूप से स्वीकार्य हल तकपहुँचने में मार्गदर्शन करते हैं।
अधिकतर विवाद मध्यस्थता में सुलझने से न्यायिक संस्थानों परमामलों का दबाव घटता है।

भारत में न्यायिक विलंब के प्रमुख कारण

भारत में प्रति 10 लाख लोगों पर मात्र 21 न्यायाधीश हैं, जो वैश्विकस्तर पर सबसे कम अनुपातों में से एक है। इससे न्यायाधीशों परकार्यभार बढ़ता है और मामलों के निपटारे में विलंब होता है। कानूनीजागरूकता बढ़ने और जनहित याचिका (PIL) जैसी व्यवस्थाओं सेमामलों की संख्या तेजी से बढ़ी है। छोटे गैरयोग्य मामले भी बड़ीसंख्या में दर्ज किए जाते हैं, जिससे न्यायालयों पर अतिरिक्त बोझपड़ता है। सभी लंबित मामलों में से लगभग 50% मामलों में सरकारस्वयं वादी है, जिससे न्यायिक प्रणाली पर दबाव बढ़ता है।
भारतीय न्यायिक प्रक्रिया में अंतरिम आवेदन और क्रमिक अपील कीअनुमति होने से मामले वर्षों तक चलते रहते हैं।
बिहार मद्यनिषेध और उत्पाद अधिनियम, 2016 जैसे कठोर कानूनों केकारण जमानत याचिकाओं की संख्या में वृद्धि हुई है, जिससे उच्चन्यायालयों पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है।
न्यायालयों में पर्याप्त कक्षों, कर्मचारियों और डिजिटल बुनियादी ढाँचेकी कमी के कारण कार्यवाही में देरी होती है। बजटीय सीमाएँन्यायिक संसाधनों के विस्तार में बाधा बनती हैं।
स्थगन (Adjournment), गवाहों की अनुपलब्धता और साक्ष्य एकत्रकरने में देरी से भी मामलों के निपटान में विलंब होता है।
मध्यस्थता (Mediation), माध्यस्थम् (Arbitration) और सुलह(Conciliation) जैसे वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) तंत्रउपलब्ध होने के बावजूद इनका प्रयोग सीमित है। इनका व्यापकउपयोग न्यायालयों पर बोझ कम कर सकता है, लेकिन जागरूकताऔर क्रियान्वयन की कमी के कारण इनका प्रभाव सीमित है।

मध्यस्थता से संबंधित विधिक ढाँचा

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908: इस संहिता में मध्यस्थता, मध्यकताऔर सुलह जैसी प्रक्रिया को औपचारिक रूप से मान्यता दी गई है।इन वैकल्पिक उपायों से पारंपरिक अदालती कार्यवाही के बाहरविवादों को जल्द और सौहार्दपूर्ण समाधान प्रदान करने में सहायतामिलती है।
वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015: वाणिज्यिक विवादों में, न्यायालय का दरवाजा खटखटाने से पहले पक्षकारों को मध्यस्थताका प्रयास करना अनिवार्य बनाया गया है। इससे व्यापारिक विवादोंका तेजी से समाधान होता है और न्यायालयों का बोझ कम होता है।
मध्यस्थता अधिनियम, 2023: सिविल और वाणिज्यिक विवादों में, अत्यावश्यक मामलों को छोड़कर, अदालत में जाने से पहलेमध्यस्थता करना आवश्यक है। इस अधिनियम के तहत मध्यस्थतासे प्राप्त समझौतों को न्यायालय के आदेश के समान विधिकमान्यता दी गई है। विवादों का समाधान 120 दिनों के भीतर करनाअनिवार्य है, जिसमें आवश्यकता पड़ने पर 60 दिनों का अतिरिक्तविस्तार किया जा सकता है। दांडिक अपराध, तृतीय पक्ष अधिकारोंऔर कराधान मामलों को मध्यस्थता प्रक्रिया से बाहर रखा गया है।
नीति आयोग की सिफारिशें: नीति आयोग ने सरकारी मामलों मेंमुकदमापूर्व मध्यस्थता की सिफारिश की है, जिससे न्यायालयों मेंमामलों की भीड़ कम हो सकती है।

 

मध्यस्थता के लाभ

समय और लागत की बचत: औपचारिक न्यायिक प्रक्रिया की तुलनामें मध्यस्थता तेजी से होती है और कम खर्चीली है।
संबंधों की रक्षा: विशेष रूप से व्यावसायिक, पारिवारिक औरसामुदायिक विवादों में, मध्यस्थता से सौहार्दपूर्ण समाधान निकलताहै और रिश्ते सुरक्षित रहते हैं।
मुकदमेबाजी की प्रवृत्ति में कमी: मध्यस्थता के बढ़ते उपयोग सेअदालती मामलों की संख्या कम होती है और न्यायिक प्रणाली परदबाव घटता है।

 

भारत में मध्यस्थता से संबंधित चुनौतियाँ

मध्यस्थता अधिनियम, 2023 में भारतीय मध्यस्थता परिषद (MCI) की स्थापना का प्रावधान है, लेकिन इसका प्रभावी क्रियान्वयन अबतक नहीं हुआ है। एक संस्थागत ढाँचे के अभाव में मध्यस्थतासमझौतों को लागू कराना चुनौतीपूर्ण बना रहता है।
मध्यस्थता के लाभों के बारे में सीमित जानकारी के कारण कई वादीऔर वकील इसे अपनाने में रुचि नहीं दिखाते।
पारंपरिक अदालती प्रक्रिया को अधिक विश्वसनीय मानते हुए, लोगमध्यस्थता को एक प्रभावी समाधान के रूप में नहीं अपनाते।
मध्यस्थता प्रक्रिया स्वैच्छिक होती है और जब तक समझौता नहींहोता, यह कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं होती।
यदि किसी पक्ष को समझौता स्वीकार्य नहीं लगता, तो वे मध्यस्थताछोड़कर अदालत में जा सकते हैं, जिससे प्रक्रिया विफल हो जातीहै।
भारत में न्यायालयसंबद्ध मध्यस्थता केंद्र सभी न्यायालयों में उपलब्धनहीं हैं, जिससे लोगों की मध्यस्थता सेवाओं तक पहुँच सीमित रहतीहै।

इन चुनौतियों के कारण भारत में मध्यस्थता प्रणाली अपनी पूर्ण क्षमता केअनुसार न्यायालयों पर बोझ कम करने में अभी तक सफल नहीं हो पाईहै।

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