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सत्यशोधक समाज : ज्योतिबा फुले का समानतामूलक समाज का स्वप्न

ब्रिटिश काल के दौरान भारत में अनेक सामाजिक आंदोलन शुरू हुए।इन्हीं में से एक महत्वपूर्ण आंदोलन महाराष्ट्र का गैरब्राह्मण आंदोलनथा। इसी आंदोलन के दौरान भारतीय समाज सुधारक, जातिविरोधीचिंतक और कार्यकर्ता ज्योतिराव गोविंदराव फुले जिन्हें हम ज्योतिबाफुले के नाम से जानते हैं ने 24 सितंबर 1873 को पुणे में सत्यशोधकसमाज की स्थापना की। इसका अर्थ था सत्य की खोज करने वालासमाज

सत्यशोधक समाज की स्थापना और उद्देश्य

सत्यशोधक समाज का गठन फुले ने एक ऐसे समय में किया जब जातिव्यवस्था के खिलाफ कोई खुलकर आवाज उठाने की हिम्मत नहीं करताथा। समाज ब्राह्मणवादी संरचना के आगे झुका हुआ था और शूद्रअतिशूद्र अत्यधिक शोषण झेल रहे थे। फुले स्वयं समाज के पहलेअध्यक्ष और कोषाध्यक्ष बने।

समाज की वैचारिक नींव दो मूल सिद्धांतों पर आधारित थी

1. चेतना (Awareness)वेदों और परंपराओं को अंधविश्वास कीतरह मानकर तर्क के आधार पर जांचना।
2. समानता (Equality)जातिआधारित भेदभाव को दृढ़ता सेचुनौती देना।

सत्यशोधक समाज का मुख्य उद्देश्य था

शूद्रों और अतिशूद्रों को शिक्षा दिलाना
उनमें सामाजिक चेतना जगाना
उन्हें ब्राह्मणों और ऊँची जातियों के नियंत्रण से मुक्त करना
शोषणकारी सामाजिक ढांचे को चुनौती देना

सत्यशोधक समाज की प्रकृति और सिद्धांत

सत्यशोधक समाज पूरी तरह गैरअभिजात्य और जनवादी स्वरूप कासंगठन था। इसका प्रचारप्रसार स्थानीय भाषा में किया जाता था, ताकिआम लोग इसे समझ सकें और इससे जुड़ सकें।

जातिव्यवस्था और ब्राह्मणवाद को चुनौती देने के लिए इसके कुछ प्रमुखसिद्धांत थे

समाज में उच्च जातियों, अभिजात्य वर्ग और नौकरशाहों को नेतृत्वसे दूर रखना
शूद्रों–अतिशूद्रों का नेतृत्व और भागीदारी सुनिश्चित करना लेकिनसंघर्ष में साथ देने वाले सवर्ण व्यक्तियों को शामिल करने कीअनुमति देना
शिक्षा, सम्मान, अवसरसमानता और मानवीय गरिमा का प्रसार
ब्राह्मणवाद द्वारा नियंत्रित धार्मिक और सामाजिक व्यवस्थाओं कातार्किक खंडन

विवाह संस्था में सुधार : क्रांतिकारी कदम

ब्राह्मणवाद विवाह जैसी संस्थाओं के जरिए अपनी शक्ति बनाए रखताथा। इसलिए फुले ने विवाह पद्धति में बदलाव की शुरुआत की।

शूद्रों के विवाह ब्राह्मणों पर निर्भर रहें
संस्कृत मंत्रों के बिना विवाह संपन्न हों
विवाह एक सरल सामाजिक कार्यक्रम बने, धार्मिक अनिवार्यता नहीं

सत्यशोधक समाज के सदस्य ज्ञानोबा ससाने पहली ऐसी व्यक्ति थेजिन्होंने बिना ब्राह्मण और बिना संस्कृत मंत्रों के विवाह किया।

वेदों और धार्मिक ग्रंथों की आलोचना

फुले ने वेदों को इस दृष्टि से पढ़ा कि हर ग्रंथ अपने समय का उत्पाद होताहै। इसलिए वह हमेशा वैध या प्रासंगिक हो, यह जरूरी नहीं।

वेदों को तर्क की कसौटी पर परखा
चतुर्वर्ण व्यवस्था की राजनीति को उजागर किया
अंधविश्वास और पाखंड को चुनौती दी
ब्राह्मणों की सामाजिक सर्वोच्चता को खारिज किया

उनकी दृष्टि में समाज वही दिशा अपनाए जो समानता, अवसर औरमानवीय गरिमा पर आधारित हो, कि किसी शोषणकारी परंपरा पर।

सत्यशोधक समाज का विस्तार

किसी भी आंदोलन को गति तभी मिलती है जब उसे राजनीतिक समर्थनप्राप्त हो। सत्यशोधक समाज को पूरा समर्थन मिला कोल्हापुर केमहाराजा शाहू जी महाराज से।

पिछड़ों के उत्थान को राजनीतिक शक्ति से जोड़ते थे
अपने राज्य में आरक्षण लागू कर चुके थे
महिला शिक्षा के हिमायती थे

उनके सहयोग से समाज का प्रसार तेज़ हुआ। मराठा कुनबी, माली, कोलीआदि कृषि जातियों ने समाज को मजबूती से समर्थन दिया। 1875 मेंसमाज के नए अध्यक्ष डॉ. विश्राम रामजी घोले और कोषाध्यक्ष रामशेतउरवाने बने। हर रविवार को मीटिंग होती, योजनाएँ बनतीं और गांवगांवजाकर समाज की बातें लोगों तक पहुंचाई जातीं।

सत्यशोधक समाज का ऐतिहासिक महत्व

सत्यशोधक समाज बहुजन आंदोलन की वह रणनीति प्रस्तुत करता हैजिसमें

हिंसा की नहीं, बल्कि चेतना की शक्ति है
मुख्यधारा को चुनौती देने का संकल्प है
लोकतांत्रिक और समानतामूलक समाज की नींव है

आज भी इसका अध्ययन हाशिए पर रखे गए वर्गों की शिक्षा, अधिकारऔर सामाजिक न्याय के संघर्ष को समझने में अत्यंत उपयोगी है।


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