‘नया शीत युद्ध’ शब्द का प्रयोग आज के समय में अमेरिका और चीन (कभी-कभी रूस सहित) के बीच बढ़ती वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए किया जाता है।
यह प्रतिस्पर्धा पारंपरिक सैन्य संघर्ष से कम और आर्थिक, तकनीकी, कूटनीतिक व वैचारिक प्रभुत्व पर अधिक केंद्रित है।
प्रमुख कारण
- तकनीकी श्रेष्ठता की दौड़ – कृत्रिम बुद्धिमत्ता, 5G, क्वांटम कंप्यूटिंग, और सेमीकंडक्टर उद्योग में वर्चस्व की होड़।
- आर्थिक टकराव – अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध, प्रतिबंध, और वैकल्पिक मुद्रा प्रणालियाँ।
- वैचारिक प्रतिस्पर्धा – लोकतांत्रिक मॉडल बनाम अधिनायकवादी मॉडल की टक्कर।
- सुरक्षा और क्षेत्रीय तनाव – ताइवान, यूक्रेन, दक्षिण चीन सागर जैसे मुद्दे।
द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात् विश्व-राजनीति में दो ध्रुवों का उदय हुआ, संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ। 1945 से 1991 तक चला यह वैचारिक, आर्थिक और सामरिक संघर्ष इतिहास में ‘शीत युद्ध’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आज, तीन दशक बाद, विद्वान हैल ब्रैंड्स और जॉन लुईस गैडिस यह प्रश्न उठाते हैं कि क्या 21वीं सदी का अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य हमें एक ‘नए शीत युद्ध’ की ओर ले जा रहा है इस बार अमेरिका और चीन के बीच तनाव बढ़ रहा है?
हैल ब्रैंड्स और जॉन लुईस गैडिस का उत्तर ‘हाँ और नहीं’ दोनों है। हाँ, यदि हम इसे लंबे समय तक चलने वाली प्रतिस्पर्धा मानें; और नहीं, यदि हम इसे पिछली सदी के Cold War की हूबहू पुनरावृत्ति समझें।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और परिभाषा का अंतर
शीत युद्ध केवल राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता नहीं था, बल्कि यह विचारधाराओं का संघर्ष भी था। जिसमे पूँजीवाद बनाम साम्यवाद दो विचारधाराए थी। ब्रैंड्स और गैडिस बताते हैं कि नया शीत युद्ध भले ही संरचनात्मक रूप से समान दिखे, लेकिन इसकी परिस्थितियाँ भिन्न हैं। आज न तो कोई वैश्विक वैचारिक आंदोलन है और न ही किसी ‘आयरन कर्टन’ जैसी कठोर सीमाएँ है। बल्कि अब प्रतिस्पर्धा आर्थिक, तकनीकी और भू-राजनीतिक प्रभाव क्षेत्र में मौजूद है।
भूगोल और शक्ति का संतुलन
ब्रैंड्स और गैडिस इस नए दौर में भूगोल की भूमिका को पहला ‘ज्ञात’ तत्व बताते हैं।
चीन, एक महाद्वीपीय शक्ति के रूप में, विस्तार की पुरानी दुविधा से जूझ रहा है यदि वह अपनी सीमाएँ बढ़ाता है तो पड़ोसी भयभीत होते हैं, और यदि सिमटता है तो असुरक्षा बढ़ती है।
इसके विपरीत, अमेरिका के पास महासागरों से सुरक्षित सीमाएँ हैं, जो उसे वैश्विक ‘हाइब्रिड हेजेमनी’ प्रदान करती हैं। यह भौगोलिक अंतर दोनों शक्तियों की रणनीतियों और व्यवहार को गहराई से प्रभावित करता है।
शी जिनपिंग और चीन की नीति का परिवर्तन
ब्रैंड्स और गैडिस, शी जिनपिंग को ‘नए अधिनायकवादी युग’ का प्रतीक मानते हैं। देंग शियाओपिंग के बाद चीन ने आर्थिक उदारीकरण और सीमित राजनीतिक नियंत्रण के बीच संतुलन बनाए रखा था। किंतु शी ने इस सूत्र को पलट दिया। उन्होंने सत्ता का केंद्रीकरण किया, वैश्विक कानूनों को चुनौती दी और ‘वुल्फ वॉरियर’ कूटनीति के माध्यम से आक्रामक राष्ट्रीयता को बढ़ावा दिया।
उनकी Belt and Road Initiative (BRI) को ब्रैंड्स और गैडिस ‘हाइब्रिड हेजेमनी’ की नई अभिव्यक्ति बताते हैं जो भूमि, समुद्र और अर्थव्यवस्था के माध्यम से वैश्विक प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास है।
लोकतंत्र बनाम अधिनायकवाद की स्थिरता
अमेरिकी लोकतंत्र में भी कमजोरियाँ हैं, सामाजिक असमानता, राजनीतिक ध्रुवीकरण, नस्लीय तनाव। फिर भी उसकी सबसे बड़ी शक्ति ‘आत्म-सुधार’ की क्षमता है। संविधान और चुनाव प्रणाली अमेरिका को पुनर्संतुलन का अवसर देती है।
इसके विपरीत, चीन की व्यवस्था सत्ता के केंद्रीकरण पर आधारित है। ब्रैंड्स और गैडिस तर्क देते हैं कि अधिनायकवादी शासन अक्सर अल्पकालिक सफलताएँ प्राप्त करता है, किंतु दीर्घकालिक रूप से अस्थिर रहता है जैसा कि सोवियत संघ के पतन ने सिद्ध किया।
ताइवान, परमाणु हथियार और नया सामरिक तनाव
नया शीत युद्ध सबसे अधिक खतरनाक वहाँ बन सकता है जहाँ ‘अस्पष्टता’ है विशेषकर ताइवान के प्रश्न पर। अमेरिका की रणनीति ‘रणनीतिक अस्पष्टता’ है, जबकि चीन इसे ‘अधूरे वादे’ के रूप में देखता है।
ब्रैंड्स और गैडिस चेतावनी देते हैं कि ताइवान का मुद्दा किसी भी क्षण इस शीत युद्ध को ‘गरम युद्ध’ में बदल सकता है।
परमाणु शक्ति के असंतुलन के बावजूद, साइबर और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में चीन की प्रगति संभावित अस्थिरता का स्रोत है।
सहयोग और आशा की संभावनाएँ
ब्रैंड्स और गैडिस यह भी मानते हैं कि पूर्ण टकराव अपरिहार्य नहीं है।
जलवायु परिवर्तन, महामारी और वैश्विक तकनीकी आपदाएँ ऐसी अस्तित्वगत चुनौतियाँ हैं, जिनसे निपटने के लिए प्रतिस्पर्धी राष्ट्रों को सहयोग की आवश्यकता होगी; जैसे शीत युद्ध के दौरान नाभिकीय हथियारों के प्रयोग से बचाव के लिए हुआ था। इतिहास बताता है कि प्रतिस्पर्धा और सहयोग दोनों एक साथ संभव हैं।
नया शीत युद्ध’ और ‘वर्तमान समूहबद्धता (Current Grouping)
शीत युद्ध (1945–1991) के दौरान विश्व दो बड़े समूहों में बँटा था:
- अमेरिकी गुट (पश्चिमी लोकतंत्र)
- सोवियत गुट (साम्यवादी ब्लॉक
लेकिन इस बार ‘गुटबद्धता’ का स्वरूप अलग और अधिक जटिल है — इसे हम Current Grouping या समकालीन समूहबद्धता कहते हैं।
हैल ब्रैंड्स और जॉन लुईस गैडिस के अनुसार, ‘नया शीत युद्ध’ वैचारिक संघर्ष से कम और प्रभाव–क्षेत्र की प्रतिस्पर्धा से अधिक जुड़ा हुआ है।
- अमेरिका लोकतांत्रिक मूल्यों, खुले व्यापार और उदार अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का समर्थक है।
- चीन केंद्रीकृत राज्य नियंत्रण, तकनीकी-सत्ता (Techno-authoritarianism) और वैकल्पिक विश्व व्यवस्था की ओर अग्रसर है।
इस प्रतिस्पर्धा ने देशों को पुनः ‘गुटों’ या समूहों में बाँटना शुरू कर दिया है, जैसे पुराने शीत युद्ध में हुआ था।
वर्तमान समूहबद्धता (Current Grouping)
आज की अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में तीन प्रमुख समूह उभर रहे हैं:
(क) अमेरिका–नेतृत्व वाला लोकतांत्रिक गुट
- इसमें अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, यूरोपीय संघ, कनाडा और भारत जैसे देश शामिल हैं।
- ये देश इंडो–पैसिफिक सुरक्षा ढांचे (जैसे QUAD, AUKUS, NATO+) के माध्यम से सहयोग बढ़ा रहे हैं।
- उद्देश्य: चीन के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करना।
(ख) चीन–केन्द्रित गुट
- इसमें चीन के साथ रूस, पाकिस्तान, ईरान, उत्तर कोरिया और कुछ अफ्रीकी देशों का झुकाव देखा जा रहा है।
- यह समूह Shanghai Cooperation Organisation (SCO) और BRICS+ जैसी संस्थाओं के माध्यम से अमेरिका-प्रधान व्यवस्था को चुनौती देता है।
- चीन की Belt and Road Initiative (BRI) इस गुट की आर्थिक रीढ़ है।
(ग) ग़ैर–संरेखित या संतुलन साधने वाले देश
- भारत, इंडोनेशिया, सऊदी अरब, तुर्की, और अफ्रीका के कई देश ऐसी स्थिति में हैं जहाँ वे दोनों गुटों के साथ संतुलन बनाए रखते हैं।
- यह नया ‘मल्टी–अलाइनमेंट’ (Multi-alignment) युग है, जो पारंपरिक ‘Non-alignment’ से अलग है।
संबंध की प्रकृति: नया शीत युद्ध– समूहबद्धता
दोनों अवधारणाएँ — नया शीत युद्ध और वर्तमान समूहबद्धता — कारण और परिणाम के रूप में जुड़ी हैं।
| तत्व | नया शीत युद्ध | वर्तमान समूहबद्धता से संबंध |
| मुख्य शक्ति केंद्र | अमेरिका बनाम चीन | समूह इन्हीं के इर्द-गिर्द बने |
| संघर्ष का स्वरूप | तकनीकी, आर्थिक, सैन्य प्रतिस्पर्धा | देशों का झुकाव किसी एक शक्ति की ओर |
| सहयोग मंच | QUAD, NATO, BRI, SCO | नयी गुटबद्धता का संस्थागत रूप |
| प्रमुख उद्देश्य | वैश्विक नेतृत्व और व्यवस्था निर्धारण | क्षेत्रीय संतुलन और सुरक्षा साझेदारी |
वैश्विक प्रभाव
- अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ (जैसे UNO, WTO) अब महाशक्तियों की प्रतिस्पर्धा से प्रभावित हो रही हैं।
- विश्व अर्थव्यवस्था ‘डिकपलिंग’ (Decoupling) की ओर जा रही है विशेषकर प्रौद्योगिकी और आपूर्ति शृंखला में।
- सुरक्षा नीतियाँ पुनर्गठित हो रही हैं, साइबर, अंतरिक्ष, सेमीकंडक्टर, और कृत्रिम बुद्धिमत्ता नए मोर्चे बन चुके हैं।
उभरती प्रवृत्तियाँ
- बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था (Multipolar World Order) – अब शक्ति केवल अमेरिका के पास नहीं, बल्कि चीन, भारत, रूस, यूरोप जैसे कई केंद्र बन चुके हैं।
- क्षेत्रीय संगठन की मज़बूती – ASEAN, African Union, EU जैसी संस्थाओं का प्रभाव बढ़ा है।
- वैश्विक दक्षिण की आवाज़ – विकासशील देशों का अंतरराष्ट्रीय निर्णयों में बढ़ता प्रभाव।
आज के संदर्भ में
- विचारधारा से अधिक व्यवहारवाद (Pragmatism over Ideology) – अब देश विचारधारा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय हित के आधार पर निर्णय लेते हैं।
- आर्थिक हित सर्वोपरि – पूंजीवादी या समाजवादी होने से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण बन गया है आर्थिक विकास और तकनीकी श्रेष्ठता।
- राजनैतिक लचीलापन – भारत जैसे देश ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ (Strategic Autonomy) की नीति अपनाते हैं।
- विचारधारा की जगह यथार्थवाद (Realpolitik) – आज की अंतरराष्ट्रीय राजनीति शक्ति, प्रभाव और सुरक्षा पर केंद्रित है, न कि विचारधारात्मक वादों पर।
निष्कर्ष
इस प्रकार, ‘नया शीत युद्ध’ और ‘वर्तमान समूहबद्धता’ परस्पर अविच्छेद रूप से जुड़े हैं।
एक ओर यह प्रतिस्पर्धा वैश्विक शक्ति-संतुलन को पुनर्गठित कर रही है, वहीं दूसरी ओर यह नए गठबंधनों, क्षेत्रीय साझेदारियों और वैकल्पिक विश्व व्यवस्था को जन्म दे रही है। यह संघर्ष वैचारिक से अधिक प्रौद्योगिकीय और आर्थिक प्रभुत्व का है और इसकी दिशा आने वाले दशकों में विश्व व्यवस्था को परिभाषित करेगी।
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