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संघीय ढाँचे पर संविधान सभा की बहस: मज़बूत केंद्र बनाम स्वायत्त राज्य

भारत का संविधान, जो 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ, केवल एक कानूनी दस्तावेज़ नहीं है; यह एक ऐसा राजनीतिक और सामाजिक समझौता है जो सदियों पुरानी विविधताओं को एक अखंड राष्ट्र के सूत्र में बाँधता है। इस राष्ट्र के संघीय ढाँचे का निर्माण संविधान सभा में कई महीनों तक चली गहन बहसों का परिणाम था। ये बहसें मुख्य रूप से इस मौलिक प्रश्न पर केंद्रित थीं: क्या भारत को एक मजबूत केंद्र वाला संघ बनाना चाहिए, या राज्यों को अधिक स्वायत्तता प्रदान करनी चाहिए? इस संघर्ष ने भारतीय संघवाद को एक विशिष्ट रूप दिया, जो आज भी केंद्र-राज्य संबंधों को परिभाषित करता है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और वैचारिक संघर्ष:

संविधान सभा के सामने सबसे बड़ी चुनौती देश की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करना था, खासकर विभाजन की त्रासदी और रियासतों के एकीकरण की पृष्ठभूमि में। स्वतंत्रता से पहले, भारत का राजनीतिक ढाँचा 1935 के भारत सरकार अधिनियम से काफी प्रभावित था, जिसने संघ और प्रांतों के बीच शक्तियों का वितरण किया था, लेकिन उसमें केंद्र को प्रबल रखने का स्पष्ट झुकाव था।

संविधान सभा की बहसें शुरू होते ही दो विपरीत विचारधाराएँ उभरीं। एक पक्ष, जिसका नेतृत्व जवाहरलाल नेहरू, डॉ. बी. आर. अम्बेडकर, और सरदार वल्लभभाई पटेल कर रहे थे, का मानना था कि देश की सुरक्षा, आर्थिक विकास और सामाजिक सुधारों को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए एक मज़बूत केंद्र आवश्यक है। उनका मानना था कि अगर राज्यों को बहुत अधिक शक्ति दी गई तो देश छोटे-छोटे स्वायत्त टुकड़ों में बँट सकता है, जैसा कि रियासतों के इतिहास से स्पष्ट था। इसके विपरीत, कुछ सदस्य, जिनमें के. टी. शाह और प्रोफेसर शिब्बन लाल सक्सेना जैसे लोग शामिल थे, ने राज्यों के लिए अधिक स्वायत्तता की वकालत की। उनका तर्क था कि भारत जैसे विशाल और विविध देश में, स्थानीय जरूरतों को पूरा करने के लिए राज्यों को पर्याप्त वित्तीय और प्रशासनिक शक्ति मिलनी चाहिए, अन्यथा लोकतंत्र केवल दिल्ली तक सीमित रह जाएगा।

विधायी शक्तियों का वितरण: 

संविधान सभा ने केंद्र और राज्यों के बीच विधायी शक्तियों को विभाजित करने के लिए तीन-सूची प्रणाली (संघ सूची, राज्य सूची, और समवर्ती सूची) को अपनाया, जो 1935 के अधिनियम से ली गई थी। इस पर हुई बहसें केंद्र की शक्ति के प्रति झुकाव को स्पष्ट रूप से दिखाती हैं।

संघ सूची में राष्ट्रीय महत्व के 97 विषय रखे गए थे, जैसे रक्षा, रेलवे, मुद्रा और विदेश मामले, जिन पर कानून बनाने का एकमात्र अधिकार केंद्र को दिया गया। राज्य सूची में स्थानीय महत्व के 66 विषय रखे गए, जैसे पुलिस, सार्वजनिक स्वास्थ्य और कृषि। समवर्ती सूची में 47 विषय शामिल थे, जिन पर केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते थे, लेकिन विवाद की स्थिति में केंद्र का कानून प्रभावी माना जाएगा।

संविधान सभा में प्रोफेसर शिब्बन लाल सक्सेना ने यह तर्क दिया कि समवर्ती सूची में इतने सारे विषयों को शामिल करने और केंद्र को अंतिम शक्ति देने से राज्यों की स्वायत्तता का हनन होता है। उन्होंने केंद्र की अत्यधिक शक्ति पर चिंता व्यक्त की। दूसरी ओर, अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर ने इस दृष्टिकोण का समर्थन करते हुए कहा कि समवर्ती सूची आवश्यक है क्योंकि कई विषय ऐसे हैं जिन पर राज्यों को कानून बनाने की ज़रूरत होती है, लेकिन राष्ट्रीय एकता के लिए इन पर केंद्र का नियंत्रण भी आवश्यक है। उन्होंने दृढ़ता से कहा कि एक मज़बूत केंद्र भारत जैसे देश के लिए स्थिरता की अनिवार्य शर्त है।

अवशिष्ट शक्तियाँ एक और प्रमुख विषय थीं। अमेरिकी मॉडल में अवशिष्ट शक्तियाँ राज्यों को दी गई हैं, जबकि 1935 के अधिनियम के आधार पर, भारतीय संविधान में यह तय किया गया कि अवशिष्ट शक्तियाँ केंद्र के पास रहेंगी। डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने यह सुनिश्चित किया कि अवशिष्ट शक्तियाँ केंद्र के पास ही रहें ताकि भविष्य की अनपेक्षित चुनौतियों का सामना करने के लिए केंद्र हमेशा सक्षम रहे।

आपातकालीन प्रावधानों पर गहन चर्चा:

संविधान में शामिल आपातकालीन प्रावधानों (अनुच्छेद 352, 356 और 360) पर सबसे अधिक तीव्र बहस हुई। ये प्रावधान भारत के संघीय ढाँचे को आपातकाल में पूरी तरह एकात्मक स्वरूप प्रदान करते हैं।

अनुच्छेद 356 (राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता): यह प्रावधान केंद्र को राज्य सरकार को बर्खास्त करने और राष्ट्रपति शासन लगाने की शक्ति देता है। इस पर संविधान सभा में कई सदस्यों ने गंभीर आपत्ति जताई। प्रोफेसर एच. वी. कामथ ने इसे ‘संघवाद की हत्या’ और ‘तानाशाही का प्रवेश द्वार’ बताया। उन्होंने आशंका व्यक्त की कि इसका उपयोग राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को दबाने के लिए किया जाएगा। पंडित हृदय नाथ कुंजरू ने भी इस प्रावधान की आलोचना करते हुए कहा कि राज्यों की स्वायत्तता पर यह एक कठोर हमला है।

इसके जवाब में, डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने इन प्रावधानों का पुरजोर बचाव किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि इनका उद्देश्य ‘मृत पत्र’ (Dead Letter) के रूप में काम करना है और इन्हें तभी लागू किया जाना चाहिए जब राज्यों में संवैधानिक संकट वास्तविक हो।

उन्होंने कहा कि “मैं आशा और विश्वास करता हूँ कि इन अनुच्छेदों का कभी उपयोग नहीं किया जाएगा और यदि किया जाएगा भी, तो ये केवल अंतिम उपाय के रूप में होंगे।”

उन्होंने देश की स्थिरता के लिए ऐसी सुरक्षा जाल (safety net) की आवश्यकता पर बल दिया।

प्रशासनिक और वित्तीय संबंध:

शक्तियों के विधायी विभाजन के अलावा, वित्तीय और प्रशासनिक संबंधों पर भी व्यापक बहस हुई, जिसने केंद्र की मज़बूती को और बढ़ाया। संविधान सभा ने केंद्र को अधिक राजस्व स्रोत दिए (जैसे आय कर, सीमा शुल्क) जबकि राज्यों को कृषि कर और भूमि राजस्व जैसे सीमित स्रोत प्राप्त हुए। के. टी. शाह जैसे सदस्यों ने वित्तीय स्वायत्तता की कमी पर चिंता व्यक्त की और राज्यों के लिए अधिक वित्तीय संसाधन की माँग की।

इसके समाधान के रूप में, वित्त आयोग के गठन का प्रावधान (अनुच्छेद 280) किया गया। यह निकाय केंद्र और राज्यों के बीच राजस्व के वितरण को संतुलित करने का काम करता है, जो सहकारी संघवाद का एक प्रमुख उदाहरण है।

प्रशासनिक स्तर पर, अखिल भारतीय सेवाओं , जैसे आईएएस (IAS) और आईपीएस (IPS), की स्थापना ने केंद्र सरकार को राज्यों के प्रमुख प्रशासनिक पदों पर नियंत्रण रखने की अनुमति दी। हालाँकि यह संघवाद की भावना के विपरीत लग सकता है, सरदार वल्लभभाई पटेल ने इन सेवाओं का समर्थन करते हुए कहा कि ये राष्ट्र की एकता और निष्पक्ष, कुशल प्रशासन के लिए अनिवार्य हैं। उन्होंने अखिल भारतीय सेवाओं को ‘स्टील फ्रेम ऑफ इंडिया’ कहकर उनकी महत्ता को रेखांकित किया।

जे.बी. कृपलानी और अन्य विचारकों के मत:

संविधान सभा में, जे. बी. कृपलानी ने भारत के संघवाद पर एक अत्यंत महत्वपूर्ण मत रखा। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि देश की एकता सर्वोपरि है, और विभाजन के अनुभव को देखते हुए, केंद्र का मजबूत होना अपरिहार्य है। उनका विचार था कि अगर केंद्र कमजोर हुआ तो देश बाहरी और आंतरिक दोनों तरह के खतरों का सामना नहीं कर पाएगा। उनका दृष्टिकोण भारत की विशिष्ट भू-राजनीतिक स्थिति और सामाजिक-धार्मिक जटिलताओं पर आधारित था।

इसी तरह, टी. टी. कृष्णामाचारी ने भी इस बात पर जोर दिया कि संविधान एक ही समय में संघीय और एकात्मक दोनों हो सकता है, जो भारत की अनूठी आवश्यकता है। डॉ. पी. एस. देशमुख ने भी कहा कि हमारा संविधान केवल संघीय या एकात्मक नहीं है, बल्कि यह समय और परिस्थितियों के अनुसार दोनों के बीच संतुलन स्थापित करने में सक्षम है।

निष्कर्ष और आज की प्रासंगिकता:

संविधान सभा की बहस में, मज़बूत केंद्र के पक्ष में तर्क प्रबल रहे, जिसके कारण भारतीय संविधान को ‘अर्ध-संघीय’ (Quasi-Federal) या ‘सहकारी संघवाद’ (Cooperative Federalism) की संज्ञा दी गई।

डॉ. अम्बेडकर ने भारत के संघवाद को ‘यूनियन ऑफ स्टेट्स’ के रूप में वर्णित किया, जिसमें राज्यों को संघ से अलग होने का अधिकार नहीं है। यह ढाँचा ‘विनाशकारी राज्यों का अविनाशी संघ’ (Indestructible Union of Destructible States) है।

निम्नलिखित मुद्दे आज भी केंद्र-राज्य संबंधों के संदर्भ में अत्यंत प्रासंगिक हैं:

  • अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग: संविधान सभा के सदस्यों की आशंकाएँ सही साबित हुईं। अनुच्छेद 356 का राजनीतिक रूप से दुरुपयोग किया गया, जिससे राज्यों की स्वायत्तता को ठेस पहुँची। हालाँकि, एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद इसके उपयोग पर अंकुश लगा है।
  • राजस्व असमानता: जीएसटी (GST) लागू होने के बाद भी, राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता को लेकर बहसें जारी हैं। राज्यों को केंद्र पर अनुदान और राजस्व हस्तांतरण के लिए निर्भर रहना पड़ता है, जो संविधान सभा के कुछ सदस्यों की आशंका को दर्शाता है।
  • एकात्मक झुकाव: महामारी, राष्ट्रीय आपदाओं और आतंकवाद के समय केंद्र की निर्णायक भूमिका संविधान सभा के मज़बूत केंद्र के दृष्टिकोण को सही ठहराती है।

संक्षेप में, संविधान सभा ने एक ऐसा संघीय ढाँचा तैयार किया जो स्वतंत्रता और एकता, स्वायत्तता और अखंडता के बीच एक सूक्ष्म संतुलन बनाता है। इस बहस का सार यही था कि राष्ट्रीय एकता को दाँव पर लगाए बिना स्थानीय जरूरतों को पूरा करने के लिए राज्यों को पर्याप्त शक्ति दी जाए। यह संतुलन ही भारतीय संघवाद की आत्मा है और आज भी राष्ट्र के राजनीतिक और आर्थिक भविष्य की दिशा निर्धारित करता है।


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