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वर्तमान चुनावी व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह और सुधारों की आवश्यकता

भारतीय चुनावी व्यवस्था

पहले चुनाव आयोग को निष्पक्ष, स्वतंत्र और संवैधानिक संस्था के रूप में देखा जाता था। लेकिन अब इस पर सरकार की ओर से हस्तक्षेप और पक्षपात के आरोप लग रहे हैं। 2024 के आम चुनाव और हरियाणा व महाराष्ट्र में हुए उपचुनावों की प्रक्रिया पर सवाल उठाए गए। जिसके कारण निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता को लेकर जनता के बीच भरोसा कमजोर हुआ है।

मुद्दा क्या है

  • भारत में चुनाव लोकतंत्र की सबसे अहम बुनियाद हैं। यह देश के हर नागरिक को यह हक देते हैं कि वे अपने नेताओं को चुन सकें और सरकार के कामकाज में भागीदारी निभा सकें।
  • 88 करोड़ से भी ज्यादा पंजीकृत मतदाता होने के कारण भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। यह सब एक मजबूत संविधान और कानून व्यवस्था के तहत होता है।
  • लेकिन चुनावी प्रक्रिया कई समस्याओं से जूझ रही है। इनमें सबसे बड़ी दिक्कतें हैं; पैसे की ताकत का गलत इस्तेमाल, आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों का चुनाव में उतरना, फर्जी वोटिंग और चुनाव प्रचार में गड़बड़ियाँ।

भले ही अब तक कई सुधार किए गए हों और अदालतों ने समय-समय पर दखल भी दिया हो, फिर भी इन समस्याओं को पूरी तरह से खत्म नहीं किया जा सका है। लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए इन चुनौतियों से निपटना जरूरी है।

चुनाव आयोग क्या है?

ईसीआई एक स्वशासी संवैधानिक प्राधिकरण है जो भारतीय संविधान के अनुसार भारत में चुनाव प्रक्रिया को नियंत्रित करता है। चुनाव आयोग की स्थापना 25 जनवरी 1950 को हमारे देश की चुनावी प्रक्रिया के प्रबंधन के लक्ष्य के साथ की गई थी। चुनाव आयोग राष्ट्रपति से लेकर राज्य विधानसभा तक के चुनावों की देखरेख का प्रभारी है। उक्त भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 के अनुसार, भारत के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के साथ प्रत्येक राज्य की विधानसभाओं और विधानमंडलों के चुनाव की पूरी प्रक्रिया के लिए भारत के चुनाव आयोग की पर्यवेक्षी और निर्देशन की जिम्मेदारी है।

चुनावों के संचालन के प्रमुख प्रावधान

  • ECI का संवैधानिक अधिकार: अनुच्छेद 324 भारत के चुनाव आयोग को भारत में चुनावों का पर्यवेक्षण, निर्देशन और नियंत्रण करने का अधिकार प्रदान करता है।
    • यह स्वतंत्र एवं निष्पक्ष संसदीय और राज्य चुनाव कराने के लिये संस्थागत प्राधिकरण की स्थापना करता है।
  • मतदाता सूची तैयार करना: लोक प्रतिनिधित्त्व अधिनियम, 1950 मतदाता सूची को तैयार और संशोधनों को नियंत्रित करता है।
    • इसमें निर्वाचन अधिकारियों की नियुक्ति और निर्वाचन क्षेत्रवार मतदाता सूचियों का प्रबंधन शामिल है।
  • लोक प्रतिनिधित्त्व अधिनियम, 1951 की नियामक भूमिका: लोक प्रतिनिधित्त्व अधिनियम, 1951 चुनावपूर्व प्रक्रिया और चुनावों के संचालन को नियंत्रित करता है।
    • इसमें योग्यता, अयोग्यता और चुनाव विवाद प्रक्रियाओं के साथ-साथ अपराध एवं दंड का भी उल्लेख किया गया है।
  • मतदाता सूची प्रबंधन के नियम: मतदाता पंजीकरण नियम, 1960, मतदाता सूची में सुधार और नाम हटाने से संबंधित 1950 के अधिनियम को लागू करता है ।
    • इससे राज्यों में प्रक्रियात्मक एकरूपता सुनिश्चित होती है तथा मतदाता डेटाबेस की सटीकता और अखंडता मज़बूत होती है।
  • परिसीमन: परिसीमन अधिनियम, 2002 आयोगों को जनगणना के बाद संसदीय और विधानसभा की सीमाओं को पुनः निर्धारित करने का अधिकार प्रदान करता है।
    • यह जनसांख्यिकीय परिवर्तनों के आधार पर निष्पक्ष और आनुपातिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करता है।
  • आदर्श आचार संहिता (MCC): यद्यपि कानूनी रूप से लागू करने योग्य नहीं है, लेकिन आदर्श आचार संहिता नैतिक चुनाव आचरण का मार्गदर्शन करती है, जिसमें भारतीय न्याय संहिता (BNS) और RPA 1951 के तहत कानूनों द्वारा समर्थित कई प्रावधान हैं।
    • 1960 में शुरू की गई इस नीति को चुनावी अनुशासन और शिष्टाचार सुनिश्चित करने के लिये दशकों तक मज़बूत किया गया है।
  • न्यायिक निगरानी और जवाबदेही: भारत का सर्वोच्च न्यायालय चुनावी नियमों को बरकरार रखने और चुनाव कानूनों के प्रगतिशील व्याख्या में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है।
    • न्यायिक हस्तक्षेप चुनावी प्रक्रिया की लोकतांत्रिक अखंडता सुनिश्चित करने के लिये आज भी एक अनिवार्य तत्त्व है।
  • डिजिटल प्लेटफॉर्म एकीकरण: भारत निर्वाचन आयोग की ईरोनेट (ERONET – इलेक्टोरल रोल मैनेजमेंट) प्रणाली राज्यों में मतदाता सूचियों के प्रबंधन के लिये एक केंद्रीकृत डिजिटल प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराती है।
    • यह तकनीकी समाधान पहले के विकेंद्रीकरण संबंधी मुद्दों का समाधान करता है, जिनके कारण डुप्लिकेट EPIC नंबर की समस्या उत्पन्न होती थी।

चुनाव आयोग की स्थिति एक चिंताजनक विषय क्यों है?

  1. सरकार का बढ़ता प्रभाव स्वायत्तता पर संकट
  • संविधान का अनुच्छेद 324 चुनाव आयोग की स्थापना और कार्यप्रणाली का आधार है।
  • हालांकि आयोग एक स्वतंत्र संस्था होनी चाहिए, लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य आयुक्तों की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति (जो सरकार की सलाह पर कार्य करते हैं) के पास है।
  • इस प्रक्रिया में सरकार की सीधी भूमिका होने के कारण आयोग की स्वतंत्रता पर संदेह उत्पन्न होता है।
  1. नए संशोधन से पारदर्शिता में गिरावट
  • दिसंबर 2023 में केंद्र सरकार ने 1961 के नियम 93(2) में बदलाव किया, जिससे अब चुनावी प्रक्रिया से जुड़े महत्वपूर्ण दस्तावेजों को सार्वजनिक जांच से छुपाया जा सकता है
  • यह बदलाव लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों पारदर्शिता और जवाबदेही के खिलाफ है।
  1. नियुक्ति प्रक्रिया में समिति का स्वरूप बदला
  • पहले, चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश की समिति की सिफारिश से होती थी – जिससे संतुलन बना रहता था।
  • अब इसे बदलकर एक ऐसी समिति के हाथ में दिया गया है जिसमें सरकार का नियंत्रण अधिक है, जिससे निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लग गया है।
  1. संवैधानिक भावना के खिलाफ कदम
  • भारतीय संविधान की मूल भावना है कि चुनाव आयोग पूरी तरह स्वतंत्र और निष्पक्ष संस्था हो।
  • लेकिन हालिया बदलाव इस भावना को कमजोर करते हैं और चुनाव आयोग की निष्पक्षता को राजनीतिक प्रभाव के अधीन बना सकते हैं।

चुनाव प्रक्रिया से संबंधित अन्य प्रमुख मुद्दे क्या हैं?

VVPAT मिलान की सीमितता

  • वर्तमान में प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में केवल 5 EVMs का VVPAT मिलान होता है।
  • सुप्रीम कोर्ट (2024) ने पूर्ण मिलान की याचिका को खारिज कर दिया।
  • आलोचकों का तर्क है कि इससे पारदर्शिता और जनता का विश्वास प्रभावित होता है।

मतदाता सूची में गड़बड़ियाँ

  • एक जैसे EPIC नंबर वाले मतदाताओं की मौजूदगी से फर्जी मतदान की आशंका।
  • आयोग ने ERONET प्लेटफॉर्म से डुप्लीकेसी को नियंत्रित करने का दावा किया, लेकिन व्यवहार में त्रुटियाँ बनी रहीं।

डिजिटल फर्जीवाड़ा और डीपफेक्स

  • सोशल मीडिया पर फर्जी खबरें, डीपफेक वीडियो और भ्रामक प्रचार व्यापक रूप से फैलाए जा रहे हैं।
  • मौजूदा कानूनों की ढिलाई और कार्यवाही में देरी से स्थिति और गंभीर हो रही है।

आचार संहिता का बारबार उल्लंघन

  • स्टार प्रचारक बार-बार घृणास्पद और सांप्रदायिक भाषण देकर नियमों का उल्लंघन करते हैं।
  • कठोर दंड के अभाव में ऐसे उल्लंघन बढ़ते जा रहे हैं।

राजनीतिक दलों का अनियंत्रित खर्च

  • जबकि उम्मीदवारों के खर्च पर सीमा है, दल किसी सीमा में बंधे नहीं हैं
  • अनुमान: 2024 में ₹1.35 लाख करोड़ अकेले राजनीतिक दलों ने खर्च किए।

राजनीति का अपराधीकरण

  • 2024 के आम चुनावों में 46% सांसदों पर आपराधिक मुकदमे थे, जिनमें गंभीर अपराध भी शामिल हैं।
  • इससे लोकतंत्र की नैतिक वैधता और जनता का भरोसा कमजोर होता है।

एकाधिक सीटों पर चुनाव लड़ना

  • एक व्यक्ति द्वारा दो या अधिक सीटों से चुनाव लड़ना महंगे और अनावश्यक उपचुनावों को जन्म देता है।
  • इससे प्रशासनिक अस्थिरता और मतदाता अरुचि बढ़ती है।

बढ़ती चुनावी लागत

  • 2024 में चुनाव आयोग ने ₹6,931 करोड़ खर्च किए (पार्टियों के खर्च को छोड़कर)।
  • यह सार्वजनिक संसाधनों पर दबाव डालता है और निर्वाचन प्रक्रिया की लागत प्रभावशीलता पर सवाल उठाता है।

राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र की कमी

  • अधिकांश दलों में नेतृत्व चयन में पारदर्शिता या चुनाव नहीं होता।
  • इससे जवाबदेही और उम्मीदवारों में विविधता प्रभावित होती है।

FPTP प्रणाली और अल्प प्रतिनिधित्व

  • मौजूदा First-Past-The-Post प्रणाली में कई विजयी उम्मीदवार 50% से कम वोट पाते हैं।
  • इससे प्रतिनिधित्व की वैधता और जनभावना के प्रतिबिंब पर प्रश्न उठते हैं।

क्षेत्रीय असमानता और परिसीमन चिंता

  • परिसीमन के बाद बड़े राज्यों को अधिक सीटें मिलने की संभावना है, जिससे दक्षिण और छोटे राज्यों के प्रतिनिधित्व में कमी आ सकती है।
  • इससे संघीय संतुलन प्रभावित हो सकता है।

लोकतंत्र को मज़बूत करने हेतु आवश्यक चुनाव सुधार

  1. VVPAT मिलान प्रक्रिया को अधिक वैज्ञानिक बनाया जाना चाहिए, जिसमें क्षेत्रीय आधार पर नमूना परीक्षण हो, और यदि कोई विसंगति पाई जाए, तो उस क्षेत्र में मैनुअल गणना अनिवार्य हो।
  2. टोटलाइज़र मशीनों का उपयोग शुरू किया जाना चाहिए, जिससे कई मतदान केंद्रों के वोटों को मिलाकर मतदाता की गोपनीयता सुनिश्चित की जा सके।
  3. मतदाता पहचान संख्या (EPIC) को आधार से जोड़ा जाना चाहिए, जिससे डुप्लिकेट या फर्जी प्रविष्टियों को हटाया जा सके, बशर्ते कि गोपनीयता की रक्षा के लिये उचित डेटा संरक्षण उपाय लागू हों।
  4. बारबार आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करने वाले स्टार प्रचारकों का दर्जा रद्द किया जाना चाहिए, जिससे प्रचार पर व्यय छूट समाप्त हो और नैतिक चुनाव प्रचार को बढ़ावा मिले।
  5. राजनीतिक दलों के चुनावी खर्च पर सीमा तय करने के लिये जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन किया जाना चाहिए, ताकि उम्मीदवारों के साथ-साथ पार्टियों के खर्च को नियंत्रित किया जा सके।
  6. एक राष्ट्र, एक चुनाव की अवधारणा को अपनाकर चुनावी प्रक्रिया को सुव्यवस्थित किया जा सकता है और चुनाव पर आने वाली बार-बार की लागतों को कम किया जा सकता है।
  7. आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को उनके मामलों की सार्वजनिक घोषणा तीन बार करनी चाहिए, और इसे चुनाव आयोग द्वारा सख्ती से लागू कराना चाहिए।
  8. आपराधिकराजनीतिक गठजोड़ को तोड़ने हेतु एक नोडल एजेंसी गठित की जानी चाहिए, जैसा कि वोहरा समिति और द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) ने अनुशंसा की थी।
  9. राजनीतिक अपराधों की सुनवाई के लिये फास्टट्रैक अदालतों की स्थापना की जानी चाहिए, जिससे चुनाव से पहले गंभीर आरोपों की समयबद्ध समीक्षा हो सके।
  10. उम्मीदवारों को एकाधिक सीटों से चुनाव लड़ने की स्थिति में पहले से इस्तीफा देना अनिवार्य किया जाना चाहिए, ताकि अनावश्यक उपचुनावों और संसाधनों की बर्बादी को रोका जा सके।
  11. ऐसे उम्मीदवारों से उपचुनाव की लागत का हिस्सा वसूल किया जाना चाहिए, जो जानबूझकर त्यागपत्र देकर रिक्तियाँ उत्पन्न करते हैं।
  12. पैराशूट उम्मीदवारों और सीट परिवर्तन की प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिये संवैधानिक संशोधन किए जाने चाहिए, जिससे स्थानीय प्रतिनिधित्व की भावना बनी रहे।
  13. राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए, जिसमें नियमित आंतरिक चुनाव और नेतृत्व के लिए कार्यकाल सीमा लागू हो।
  14. राजनीतिक दलों को सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम के अंतर्गत लाया जाना चाहिए, जिससे चुनावी वित्त में पारदर्शिता सुनिश्चित हो सके।
  15. राजनीतिक दलों पर आयकर नियमों की सख्ती से निगरानी की जानी चाहिए, जिससे अवैध वित्तपोषण और अपारदर्शी दान पर अंकुश लगाया जा सके।
  16. SVEEP जैसे कार्यक्रमों को नैतिक मतदान और फर्जी समाचारों के खिलाफ साक्षरता बढ़ाने के लिये और अधिक विस्तारित किया जाना चाहिए, जिससे मतदाता अधिक जागरूक और भागीदार बन सकें।
  17. डिजिटल माध्यमों पर चुनावी गलत सूचना और डीपफेक के प्रसार को रोकने के लिए सोशल मीडिया नियमों को सख्ती से लागू किया जाना चाहिए, और प्लेटफार्मों के साथ सहयोग कर पूर्व-निवारक मॉडरेशन प्रणाली अपनाई जानी चाहिए।
  18. राजनीतिक अभियानों के लिए राज्य वित्तपोषण की व्यवस्था की जानी चाहिए, जैसा कि पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एस. कृष्णमूर्ति और इंद्रजीत गुप्ता समिति ने अनुशंसा की थी।

निष्कर्ष

भारत में लोकतंत्र की वैधता, नागरिकों का भरोसा और संस्थागत विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए चुनावी सुधार अत्यंत आवश्यक हैं। प्रणाली में व्याप्त कमजोरियों को दुरुस्त करके, पारदर्शिता को बढ़ावा देकर और स्वतंत्र संवैधानिक संस्थाओं को मजबूत बनाकर, यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि देश की चुनावी प्रक्रिया निष्पक्ष और व्यापक प्रतिनिधित्व देने वाली बनी रहे। चुनावी न्याय की भावना को साकार करने के लिए सभी संबंधित पक्षों की भागीदारी वाला एक समन्वित और प्रतिबद्ध दृष्टिकोण अनिवार्य है।


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