मुद्दा क्या है?
हाल ही में ब्राज़ील के रियो डी जेनेरियो में 17वें ब्रिक्स शिखर सम्मेलन संपन्न हुआ। इस सम्मेलन की थीम थी – “अधिक समावेशी और टिकाऊ शासन के लिए वैश्विक दक्षिण सहयोग को मजबूत बनाना”(Strengthening Global South Cooperation for More Inclusive and Sustainable Governance). इस सम्मलेन में भारत ने रियो डी जेनेरियो घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर भी किए। भारत वर्ष 2026 में BRICS की अध्यक्षता करेगा।
- रियो डी जेनेरियो घोषणापत्र, 126 पैराग्राफ में विकसित और विकासशील देशों की चिंताओं को उजागर करते हुए सामने आया। इस लेख में इस वैश्विक राजनीति में हो रहे नए ध्रुवीकरण (New Bipolarity) के संदर्भ में भारत की भूमिका, ब्रिक्स (BRICS), और नए उभरते समूहों के संबंध में विश्लेषण किया गया है।
ब्रिक्स (BRICS) क्या है?
ब्रिक्स एक अंतरराष्ट्रीय समूह है जिसमें विश्व की प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्थाएँ शामिल हैं। इसका उद्देश्य वैश्विक शासन में बहुध्रुवीयता, आर्थिक सहयोग और विकासशील देशों की आवाज़ को मज़बूती देना है।
- BRIC शब्द की अवधारणा वर्ष 2001 में ब्रिटिश अर्थशास्त्री जिम ओ’नील (Jim O’Neill) ने दी थी।
- इसमें शुरुआत में ब्राज़ील, रूस, भारत और चीन शामिल थे, जो तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाएँ मानी जाती थीं।
- वर्ष 2006 में G8 सम्मेलन के दौरान इन देशों ने एक औपचारिक समूह के रूप में काम करना शुरू किया।
- वर्ष 2009 में रूस में पहला शिखर सम्मेलन हुआ।
- 2010 में दक्षिण अफ्रीका के जुड़ने के बाद यह समूह BRICS बन गया।
सदस्य देश: ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन दक्षिण अफ्रीका
2024 में शामिल हुए नवीन सदस्य: ईरान, संयुक्त अरब अमीरात (UAE), मिस्र, इथियोपिया
2025 में शामिल नवीन सदस्य: इंडोनेशिया
सऊदी अरब ने अब तक अपनी सदस्यता की पुष्टि नहीं की है।
अर्जेंटीना को 2024 में शामिल होना था, लेकिन उसने सदस्यता को अस्वीकार कर दिया।
17वें ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के मुख्य बिंदु
- ब्रिक्स देशों ने अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में सुधार की पुरजोर मांग की।
- संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के विस्तार का समर्थन किया गया, ताकि एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका जैसे क्षेत्रों को स्थायी सदस्यता मिले और वैश्विक दक्षिण की आवाज़ को मजबूती मिल सके।
- IMF और विश्व बैंक में भी संरचनात्मक बदलाव की मांग की गई, जिससे उभरते और विकासशील देशों (EMDCs) की भूमिका को और महत्व मिल सके।
- WTO की नियम-आधारित प्रणाली को समर्थन देकर निष्पक्ष वैश्विक व्यापार को प्रोत्साहित करने की प्रतिबद्धता दोहराई गई।
- ब्रिक्स देशों ने विकासशील देशों के लिए जलवायु वित्त जुटाने की रणनीति तैयार की।
- कार्बन मूल्य निर्धारण (Carbon Pricing) और उत्सर्जन व्यापार प्रणाली (Emission Trading) में सहयोग को बढ़ावा देने के लिए ब्रिक्स कार्बन मार्केट साझेदारी के अंतर्गत समझौते को समर्थन मिला।
- अफ्रीकी समस्याओं के लिए अफ्रीकी समाधान की नीति को दोहराया गया।
- गाज़ा संघर्ष के संदर्भ में युद्धविराम की अपील की गई और दो-राष्ट्र समाधान (Two-State Solution) का समर्थन किया गया।
- भारत में हुए पहलगाम हमले की निंदा की गई। भारत ने यह स्पष्ट किया कि आतंकवाद को कभी भी स्वीकार्य विकल्प के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि इसे मूल रूप से अस्वीकार किया जाना चाहिए।
- अमेरिकी डॉलर पर अत्यधिक निर्भरता को कम करने के लिए सीमा पार भुगतान प्रणाली (Cross-border Payments) पर चर्चा को आगे बढ़ाया गया।
- न्यू डेवलपमेंट बैंक के विस्तार और निवेशों को सुरक्षित करने हेतु ब्रिक्स बहुपक्षीय गारंटी (BMG) की पायलट परियोजना का समर्थन किया गया।
- वैश्विक स्तर पर कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) के संचालन से संबंधित घोषणापत्र को अपनाया गया।
- डेटा इकोनॉमी गवर्नेंस समझौते को अंतिम रूप दिया गया।
- ब्रिक्स स्पेस काउंसिल के गठन पर सहमति बनी, जिससे सदस्य देश अंतरिक्ष अनुसंधान में सहयोग कर सकें।
- क्षयरोग (TB) जैसे सामाजिक रूप से प्रभावित रोगों के खिलाफ साझा प्रयासों की शुरुआत की गई।
- उद्देश्य है: स्वास्थ्य सेवाओं में असमानताओं को कम करना और सभी के लिए स्वास्थ्य सुरक्षा सुनिश्चित करना।
ब्रिक्स कर रहा है वैश्विक शासन को पुनर्परिभाषित
- ईरान, सऊदी अरब और UAE के शामिल होने से BRICS अब वैश्विक तेल उत्पादन का 44% नियंत्रित करता है, जिससे इसकी ऊर्जा नीतियों में बड़ी भूमिका बन गई है।
- भारत-चीन जैसे तनावों में ब्रिक्स एक गैर-पश्चिमी, तटस्थ मंच प्रदान करता है जो संवाद को बढ़ावा देता है।
- BRICS, UNSC, IMF, WTO जैसी संस्थाओं में विकासशील देशों की भागीदारी बढ़ाने का सामूहिक मंच बन रहा है।
- नए सदस्य देशों के जुड़ने से BRICS का वैश्विक प्रभाव और ‘Global South’ की आवाज़ और मजबूत हो रही है।
- BRICS को G7 का संतुलन और G20 में एक प्रभावी ध्रुव के रूप में देखा जा रहा है।
ब्रिक्स, लघु–गुटनिरपेक्ष आंदोलन और नई द्विध्रुवीयता में संतुलन
- ब्रिक्स, जिसमें ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका शामिल हैं, को अब विभिन्न वैश्विक मुद्दों पर नेतृत्वकारी भूमिका में देखा जा रहा है। यह समूह बहुपक्षीय व्यवस्था को मजबूत करने, विकासशील देशों की चिंताओं को उठाने और पश्चिमी प्रभुत्व वाली संस्थाओं (जैसे IMF, वर्ल्ड बैंक, UNSC) में सुधार की मांग करता है।
- अमेरिका का ध्यान अब यूरोप और मध्य-पूर्व की बजाय इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में चीन की चुनौती पर केंद्रित हो गया है। इस बीच, भारत को अमेरिका के साथ अपने संबंध बनाए रखते हुए, चीन और रूस के बढ़ते प्रभाव का संतुलन करना कठिन हो रहा है। खासकर जब SCO (शंघाई सहयोग संगठन) और BRICS जैसे मंचों में चीन की भूमिका प्रमुख होती जा रही है।
- अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा दुनिया से अमेरिका को अलग-थलग करने की नीति ने चीन और रूस को ब्रिक्स जैसे मंचों का प्रभाव बढ़ाने का अवसर दिया है।
- भारत का प्रयास है कि वह अमेरिका से रणनीतिक संबंध बनाए रखे, लेकिन साथ ही स्वतंत्र और बहुपक्षीय नीति भी अपनाए। इसके लिए भारत मिनी-NAM (गुटनिरपेक्ष आंदोलन) जैसे मंचों में भागीदारी बढ़ा रहा है। भारत को अब यह तय करना होगा कि वह अमेरिका की प्राथमिकताओं के साथ कितनी दूरी या निकटता बनाए रखे।
ब्रिक्स के समक्ष चुनौतियाँ
- स्थायी ढांचे की कमी: कोई स्थायी सचिवालय नहीं होने से संचालन असंगठित है।
- सदस्य देशों के विरोधाभास: अमेरिका समर्थक और विरोधी देशों के शामिल होने से सहमति बनाना मुश्किल होता जा रहा है।
- आंतरिक आर्थिक कमजोरी: चीन की आर्थिक मंदी और रूस पर प्रतिबंध BRICS की क्षमता को सीमित कर रहे हैं।
- संस्थानिक निष्क्रियता: BRICS क्रेडिट रेटिंग एजेंसी जैसी योजनाएँ ठप पड़ी हैं; आंतरिक व्यापार भी बहुत कम है (सिर्फ 2.2%)।
- वैश्विक संस्थाओं में सीमित प्रभाव: BRICS+ के पास IBRD में G7 की तुलना में बहुत कम मतदान शक्ति है।
- डॉलर पर निर्भरता बनी हुई: वैकल्पिक मुद्रा पर प्रयास अभी भी बिखरे हुए हैं।
ब्रिक्स की नेतृत्व क्षमता कैसे बढ़ाई जा सकती है?
- स्थायी सचिवालय की स्थापना, आर्थिक निर्णयों में भारित मतदान और सदस्यता मापदंड तय करके।
- वैकल्पिक स्विफ्ट नेटवर्क, नया BRICS+ विकास बैंक और मुक्त व्यापार समझौते को बढ़ावा देकर।
- UNSC और WTO सुधार पर एकमत रुख अपनाना; आतंकवाद और संघर्ष समाधान पर साझेदारी करके।
- AI, ग्रीन टेक और स्पेस रिसर्च में संयुक्त अनुसंधान के लिये BRICS+ डिजिटल गठबंधन बना कर।
- ब्रिक्स+ विश्वविद्यालय नेटवर्क और वीज़ा-मुक्त यात्रा के माध्यम से लोगों से लोगों का संपर्क बढ़ा कर।
मिनी–NAM क्या है?
मिनी-NAM पारंपरिक NAM से छोटा, अधिक सक्रिय, और समकालीन वैश्विक मुद्दों पर केंद्रित समूह या विचार है। यह मुख्य रूप से ऐसे मध्यम शक्ति वाले देशों (middle powers) का नेटवर्क है जो किसी एक महाशक्ति (जैसे अमेरिका या चीन) के प्रभाव में नहीं आना चाहते।
मुख्य विशेषताएँ
- मिनी-NAM स्थायी संगठन की बजाय एक issue-based सहयोग मंच है।
- अमेरिका और चीन के बीच बढ़ती टकराव की स्थिति में यह तीसरा विकल्प बनने का प्रयास करता है।
- यह एक बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था (Multipolar World Order) का समर्थन करता है जिसमें कोई भी देश हावी न हो।
- यह समूह विकासशील देशों की आवाज़ को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मज़बूती से उठाने की कोशिश करता है।
भारत के लिए मिनी–NAM क्यों ज़रूरी है?
- भारत, जो पारंपरिक रूप से NAM का संस्थापक सदस्य रहा है, अब अमेरिका के साथ घनिष्ठ होता जा रहा है जबकि SCO और BRICS में चीन और रूस के साथ भी जुड़ा है।
- ऐसी स्थिति में भारत को चाहिए कि वह किसी एक ध्रुव पर निर्भर न होकर, एक मिनी-NAM जैसी रणनीति अपनाए जो उसे रणनीतिक लचीलापन (strategic autonomy) दे।
- इससे भारत न केवल अपनी स्वतंत्र विदेश नीति को बनाए रख पाएगा, बल्कि विकासशील देशों के बीच भी नेतृत्वकारी भूमिका निभा सकेगा।

मिनी-NAM (Mini-NAM) या लघु गुटनिरपेक्ष आंदोलन एक नया और उभरता हुआ कूटनीतिक विचार है, जो पारंपरिक गुटनिरपेक्ष आंदोलन (Non-Aligned Movement – NAM) की भावना को आधुनिक वैश्विक संदर्भों में दोबारा परिभाषित करने का प्रयास करता है।
गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) क्या था?
- NAM की स्थापना 1961 में हुई थी।
- इसका उद्देश्य था कि शीत युद्ध के दौरान दुनिया के देश अमेरिका और सोवियत संघ, इन दो महाशक्तियों के गुटों में शामिल न हों।
- इसके प्रमुख संस्थापक थे: जवाहरलाल नेहरू (भारत), टीटो (यूगोस्लाविया), नासेर (मिस्र), सुखर्णो (इंडोनेशिया) और क्वामे एनक्रूमा (घाना)।
- NAM ने विकासशील देशों की स्वायत्तता, संप्रभुता और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को प्राथमिकता दी।
अंत: मिनी-NAM कोई औपचारिक संगठन नहीं है, बल्कि यह एक राजनयिक अवधारणा (diplomatic approach) है जो बताती है कि दुनिया के कुछ देश आज की नई द्विध्रुवीयता (US बनाम China) में गुटनिरपेक्ष रहते हुए सामूहिक सहयोग चाहते हैं। यह विचार भारत जैसी उभरती शक्तियों को संतुलनकारी (balancing power) भूमिका में रखने में मदद करता है।
निष्कर्ष
भारत को अपनी विदेश नीति में पुनर्संतुलन की आवश्यकता है। केवल अमेरिका पर निर्भर रहना अब व्यावहारिक नहीं है, और चीन तथा रूस के साथ संबंधों में सावधानी बरतनी होगी। इसलिए, भारत को ऐसे मंचों में सक्रिय भागीदारी निभानी चाहिए जो विकासशील देशों की चिंताओं को प्राथमिकता दें, बिना किसी एक शक्ति ब्लॉक का हिस्सा बने।