in , , ,

सोशल मीडिया के विनियमन पर सुप्रीम आदेश के निहितार्थ

भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सोशल मीडिया सामग्री के विनियमन को लेकर हाल ही में पारित आदेश भारतीय डिजिटल परिदृश्य में अभूतपूर्व महत्व रखता है । यह आदेश ऐसे समय में आया है, जब सोशल मीडिया के बढ़ते दायरे और प्रभाव के चलते व्यक्तियों, समुदायों और सार्वजनिक संस्थानों के सम्मान व गरिमा के प्रति चिंता गहरा रही है। खास तौर पर, इस आदेश से सार्वजनिक वाणिज्यिक अभिव्यक्ति के क्षेत्र में लंबे समय से चली आ रही बहस को तूल मिला है, जहां संवैधानिक स्वतंत्रता और डिजिटल जवाबदेही के बीच संतुलन साधने की आवश्यकता महसूस की जा रही है।

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश उस याचिका की सुनवाई के दौरान आया, जिसे “स्पाइनल मस्कुलर एट्रोफी” से ग्रसित व्यक्तियों के अधिकारों की वकालत करने वाले एक गैर-सरकारी संगठन ने दायर किया था। विवाद तब उत्पन्न हुआ, जब कुछ हास्य कलाकारों ने सोशल मीडिया पर ऐसे कथन साझा किए जिन्हें याचिकाकर्ता ने अपमानजनक और असंवेदनशील बताया। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मूल अधिकार है, पर इसे शुद्ध वाणिज्यिक लाभ के लिए इस प्रकार उपयोग नहीं किया जा सकता, जिससे समाज के कमजोर वर्गों की गरिमा को ठेस पहुंचे। अदालत ने केंद्र सरकार को राष्ट्रीय प्रसारक एवं डिजिटल संघ (NBDA) के साथ विचार-विमर्श कर विनियमन के तंत्र तैयार करने का निर्देश दिया, साथ ही संबंधित हास्य कलाकारों को सार्वजनिक मंच पर माफी मांगने का आदेश भी दिया ।

भारतीय संविधान में अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित की गई है, लेकिन अनुच्छेद 19(2) इसके उपयोग पर कुछ सीमित प्रतिबंध भी लगाता है। इन प्रतिबंधों में भारत की प्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता और नैतिकता, न्यायालय की अवमानना, मानहानि, और अपराधों के लिए उकसावे जैसी वजहें शामिल हैं। सुप्रीम कोर्ट ने बारंबार स्पष्ट किया है कि इन वजहों से इतर कोई भी सीमितियां असंवैधानिक हैं। इस दिशा में ‘श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ (2015)’ मामला ऐतिहासिक है, जिसमें सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66A को निरस्त कर दिया गया था। न्यायालय ने यह दोहराया कि “offends, shocks, or disturbs” जैसी असमंजस भरी अवधारणाएं संवैधानिक सुरक्षा की परिधि में रहती हैं और इन पर अपरिभाषित ढंग से रोक नहीं लगाई जा सकती ।

वाणिज्यिक अभिव्यक्ति अर्थात् ‘commercial speech’ की भारतीय न्यायिक यात्रा जटिल रही है। ‘हमदर्द दावाख़ाना बनाम भारत संघ (1959)’ मामले में न्यायालय ने विज्ञापनों को व्यापार एवं वाणिज्य की श्रेणी में रखा और इन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा नहीं माना था। किंतु ‘टाटा प्रेस बनाम एमटीएनएल (1995)’ में सुप्रीम कोर्ट ने विज्ञापनों को उस हद तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में शामिल माना, जिसमें वे सार्वजनिक हित में सूचना का प्रसार करते हैं। बाद के फैसलों में, जैसे ‘ए. सुरेश बनाम तमिलनाडु राज्य (1997)’, वाणिज्यिक अभिव्यक्ति और सामाजिक हितों के बीच संतुलन की जरूरत पर बल दिया गया। इन मामलों के जरिए अदालत ने व्यावसायिक अभिव्यक्ति के लिए सामाजिक जिम्मेदारी और उत्तरदायित्व की आवश्यकताओं को रेखांकित किया है, जिससे लाभ-प्रेरित और हित-प्रेरित सामग्री के बीच अंतर किया जा सके ।

वर्तमान डिजिटल परिदृश्य में सोशल मीडिया प्लेटफार्मों के संचालन हेतु भारत सरकार ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के तहत IT (Intermediary Guidelines and Digital Media Ethics Code) Rules, 2021 लागू किए हैं। इन नियमों के अंतर्गत प्लेटफार्मों को अश्लील, आपत्तिजनक या हानिकारक कंटेंट को रोकने के लिए बाध्य किया गया है। सोशल मीडिया प्रभावितकर्ता और डिजिटल निर्माता भी उस स्थिति में आपराधिक न्याय व्यवस्था के तहत कार्रवाई की जद में आते हैं, जब उनका भाषण मानहानि, उकसावे या किसी अन्य अपराध की श्रेणी में आता है। विशेषज्ञों का मत है कि कोई भी नया दिशा-निर्देश अत्यंत सजगता और संवेदनशीलता के साथ तैयार किया जाना चाहिए, ताकि सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक तौर पर रक्षित फ्री स्पीच के सिद्धांतों पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े ।

इस न्यायिक हस्तक्षेप के व्यापक प्रभाव को कई दृष्टियों से समझा जा सकता है। वर्तमान में भारत में तकरीबन 491 मिलियन लोग सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं, जिससे ऑनलाइन प्लेटफार्मों का नियमन अब कानूनी ही नहीं, बल्कि सामाजिक आवश्यकता भी बन गया है। न्यायालय का आदेश इस बात को रेखांकित करता है कि अभद्रता या अपमानजनक अभिव्यक्ति, जो मनोरंजन या मार्केटिंग की आड़ में प्रस्तुत की जाती है, उसे नियंत्रित करना जरूरी है, लेकिन इसके साथ यह जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है कि सरकारी नियंत्रण सेंसरशिप का साधन न बन जाए। देश के कई कानूनी विद्वानों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट की फ्री स्पीच को लेकर “polyvocality”—विविध न्यायिक व्याख्याएं—निरंतरता की समस्या उत्पन्न करती रही हैं। ऐसे में नए आदेश को जवाबदेही और संवैधानिक सुरक्षा के बीच संतुलन साधने का अवसर भी माना जा सकता है ।

इतिहास पर नजर डालें तो भारतीय अदालतें बार-बार फ्री स्पीच की परिभाषा, सीमा और अपवाद को पुनर्परिभाषित करती रही हैं। ‘श्रेया सिंघल’ मामले में न्यायालय ने बेहद स्पष्ट शब्दों में कहा था कि सिर्फ असहज करने वाली, चौंकाने वाली या परेशान कर देने वाली बातों पर रोक उचित नहीं है, जब तक वे अनुच्छेद 19(2) के प्रतिबंधित क्षेत्रों में न आती हों। बात करें वाणिज्यिक अभिव्यक्ति की, तो ‘टाटा प्रेस’ जैसे उदाहरण व्यावसायिक हित और उपभोक्ता अधिकार को समान महत्व देने की प्रवृत्ति दिखाते हैं। लेकिन सोशल मीडिया की विविधता और नवीनता ने इस संतुलन को जमीनी स्तर पर और अधिक चुनौतीपूर्ण बना दिया है ।

अब जबकि सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को समग्र और विवेकपूर्ण दिशा-निर्देश तैयार करने का आदेश दिया है, सामने कई व्यावहारिक और नैतिक प्रश्न उठ खड़े हुए हैं। सबसे महत्वपूर्ण लिहाज यही है कि क्या सख्त विनियमन संवैधानिक अधिकारों का हनन नहीं बन जाएगा? या यह आंख मूंद लेने के विकल्प के मुकाबले समाज की भलाई के लिए न्यायसंगत और विवेकशील कदम है? विधि विशेषज्ञों के अनुसार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तब तक सुदृढ़ रह सकती है, जब तक रोक उस पर अनुच्छेद 19(2) के परिधि में हो—इससे बाहर जाने पर खतरा उत्पन्न होता है कि शासन असहमति या असुविधाजनक भाषण को सेंसरशिप का शिकार बना दे। पूर्व में सोशल मीडिया को लेकर जब भी शासन या न्यायालय ने अति सक्रियता दिखाई, तो उसे भारी सार्वजनिक विरोध और कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ा, खासतौर पर श्रेया सिंघल मामले में।

प्रभावित समूहों, चाहे वे विकलांगता के साथ जी रहे लोग हों, धार्मिक या जातिगत अल्पसंख्यक हों, या छोटे व्यवसाय/स्टार्टअप हों, उनके हितों की रक्षा और उनकी गरिमा का सम्मान लोकतांत्रिक समाज का आधार है। लेकिन सृजनात्मक स्वतंत्रता, सांस्कृतिक विविधता और स्वतंत्र विमर्श भी अत्यंत आवश्यक हैं, जिनके बिना डिजिटल भारत की आकांक्षाएं अधूरी रह जाएंगी। यदि नए दिशा-निर्देश अत्यंत कठोर होते हैं, तो इससे डिजिटल क्रिएटिविटी और व्यावसायिक उद्यमिता प्रभावित हो सकती है; वैसे ही अगर दिशानिर्देश बेहद उदार हैं, तो सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर पहुँच रखने वाले रसूखदार व्यक्ति या संस्थाएँ अपने लाभ के लिए समाज के प्रति गैर-जिम्मेदार हो सकती हैं ।

समकालीन परिदृश्य में सोशल मीडिया एक ऐसा मंच बन चुका है, जहां सूचनाओं का आदान-प्रदान बेहद तेज़ और सार्वभौमिक है; कम समय में लाखों-करोड़ों लोगों तक भावनाओं, विचारों और सूचना का वितरण होता है। लेकिन यह खुलापन कई बार गैर-जिम्मेदार, भड़काऊ या मानहानिपूर्ण अभिव्यिक्तियों को भी जन्म देता है, जिसके गंभीर सामाजिक, मानसिक और आर्थिक दुष्परिणाम हो सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय का ताजा आदेश इसी खतरे को समझते हुए जवाबदेही की आवश्यकता पर बल देता है, ताकि डिजिटल मीडिया के लाभों के साथ उसके दुष्परिणामों को नियंत्रित किया जा सके ।

बहरहाल, आगे की राह संवैधानिक संतुलन, विधिक संवेदनशीलता और परामर्श की मांग करती है। केंद्र सरकार के सामने चुनौती है कि वह सामाजिक, नैतिक और कानूनी पहलुओं का सुसंगत समायोजन कर ऐसी रूपरेखा तैयार करे, जिससे न तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अनुचित अतिक्रमण हो, न ही समाज की संवेदनाओं और कमजोर वर्गों की गरिमा का हनन। इसमें NBDA जैसे हितधारकों की सहभागिता आवश्यक है, ताकि ग्राउंड रियलिटी के अनुरूप, व्यावहारिक लेकिन न्यायसंगत विनियमन तैयार हो सके। शासन, नीति-निर्माताओं और न्यायपालिका, तीनों के लिए यह अवसर है कि वे डिजिटल इंडिया में फ्री स्पीच को सशक्त बनाए रखते हुए उसके दुष्प्रभावों पर विवेकपूर्ण नियंत्रण सुनिश्चित करें ।

कुल मिलाकर, सोशल मीडिया के विनियमन पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश महज क़ानूनी निर्देश भर नहीं है; यह भारतीय समाज-राजनीति, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, डिजिटल कारोबार और सांस्कृतिक विवेक के बीच जटिल संतुलन साधने की कोशिश का प्रतीक भी है। भविष्य में इसकी परिणति कैसी होगी, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि दिशा-निर्देश तैयार करने वाली संस्थाएँ किस स्तर की भागीदारी, पारदर्शिता, और संवेदनशीलता दिखाती हैं तथा डिजिटल भारत के नागरिक किस रूप में अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हैं ।


Discover more from Politics by RK: Ultimate Polity Guide for UPSC and Civil Services

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

What do you think?

विदेश नीति के निर्धारक तत्व

संसदीय समितियां और उनका महत्व