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शाह बानो मामला (1985) और मुस्लिम महिलाओं की कानूनी स्थिति

शाह बानो निर्णय ने भारत में मुस्लिम महिलाओं की कानूनी स्थिति को कैसे बदला?

शाह बानो मामले (1985) पर आधारित एक आगामी बॉलीवुड फिल्म ने फिर से इस ऐतिहासिक न्यायिक निर्णय पर ध्यान केंद्रित किया है, जिसने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों, व्यक्तिगत कानूनों और समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code – UCC) पर राष्ट्रीय बहस को जन्म दिया था। यह मामला भारत के संविधान और व्यक्तिगत धार्मिक कानूनों के बीच संतुलन की दिशा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर माना जाता है।

शाहबानो मामला क्या था?

  • 1978 में, इंदौर की पाँच बच्चों की माता, शाह बानो बेगम को उनके पति मोहम्मद अहमद खान ने 43 वर्ष की शादी के बाद एक अपरिवर्तनीय ‘तलाक’ के ज़रिए तलाक दे दिया था। शुरुआत में, खान ने कुछ महीनों तक उन्हें भरण-पोषण का खर्च दिया, फिर पूरी तरह से बंद कर दिया।
  • अपना भरण-पोषण करने का कोई साधन न होने के कारण, शाह बानो ने दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC), 1973 की धारा 125 के अधीन एक याचिका दायर की, यह एक पंथनिरपेक्ष उपबंध है जिसके अधीन पर्याप्त साधन वाले व्यक्तियों को उन लोगों को भरण-पोषण देने की आवश्यकता होती है जिनकी वे उत्तरदायी हैं, जिनमें तलाकशुदा पत्नियाँ भी सम्मिलित हैं जिन्होंने दोबारा विवाह नहीं किया है।
  • खान ने याचिका का विरोध करते हुए उन्होंने दावा किया कि उन्होंने  इद्दत अवधि तक के लिये पहले ही भरण-पोषण दे दिया है और उन्हें स्थगित महर (दहेज) दे दिया है, जिससे मुस्लिम विधि के अधीन सभी दायित्त्व पूरे हो गए हैं।
  • एक स्थानीय न्यायालय ने शाह बानो को नाममात्र 25 रुपए प्रति माह का भत्ता दिया था, जिसे मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने बढ़ाकर 179.20 रुपए मासिक कर दिया था। इसके बाद खान ने उच्चतम न्यायालय में अपील की।

शाह बानो निर्णय ने भारत में मुस्लिम महिलाओं की कानूनी स्थिति को कैसे बदला?

  • 1978 में शाह बानो बेगम, 62 वर्षीय मुस्लिम महिला, ने अपने पति द्वारा तलाक दिए जाने के बाद दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125 के तहत भरण-पोषण की मांग की।
  • यह धारा सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होती है, धर्म के भेदभाव के बिना।
  • पति का तर्क था कि मुस्लिम व्यक्तिगत कानून के अनुसार उसकी जिम्मेदारी केवल इद्दत अवधि (3 महीने) तक सीमित है।
  • मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने शाह बानो के पक्ष में फैसला दिया, जिसके बाद पति ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय (1985)

  • पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से शाह बानो के पक्ष में फैसला दिया।
  • कोर्ट ने कहा कि धारा 125 एक धर्मनिरपेक्ष कानून है, जो सभी पर समान रूप से लागू होती है।
  • निर्णय में कहा गया कि महिला को इद्दत अवधि के बाद भी भरण-पोषण का अधिकार है।
  • सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 44 (Uniform Civil Code) को लागू न किए जाने पर अफसोस जताया और कहा कि यह “मृत अक्षर” बन गया है।

विवाद और सरकार की प्रतिक्रिया (1986)

  • इस निर्णय के बाद कुछ मुस्लिम संगठनों ने विरोध किया।
  • सरकार ने दबाव में आकर मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित किया।
  • इस अधिनियम ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को सीमित कर दिया, पति की जिम्मेदारी को केवल इद्दत अवधि तक सीमित किया और आगे का दायित्व वक्फ बोर्ड या रिश्तेदारों पर डाल दिया।

डेनियल लतीफ़ी मामला (2001)

  • शाह बानो के वकील डेनियल लतीफ़ी ने 1986 के कानून को चुनौती दी।
  • सुप्रीम कोर्ट ने अधिनियम को बरकरार रखा, लेकिन यह कहा कि पति को इद्दत अवधि में एकमुश्त भुगतान करना होगा जो महिला की भविष्य की ज़रूरतों को पूरा करे।
  • इस व्याख्या ने शाह बानो निर्णय की भावना को बरकरार रखा।

मोहम्मद अब्दुल समद बनाम तेलंगाना राज्य (2024)

  • सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 1986 का अधिनियम CrPC की धारा 125 को समाप्त नहीं करता, मुस्लिम महिलाएँ दोनों कानूनों के तहत भरण-पोषण की मांग कर सकती हैं।

शाह बानो मामला क्यों महत्वपूर्ण है:

  • इसने मुस्लिम महिलाओं को न्याय तक पहुँच दिलाई।
  • संवैधानिक समानता को मजबूत किया।
  • भारतीय कानून की धर्मनिरपेक्षता को पुनः स्थापित किया।
  • इसने धर्म बनाम समानता और राजनीति बनाम कानून के बीच संतुलन की चुनौती को उजागर किया।

समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code – UCC)

  • संविधान का अनुच्छेद 44, राज्य को निर्देश देता है कि भारत में सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू की जाए।
  • यह सरकार के लिए निर्देशक सिद्धांत (Directive Principle) है, बाध्यकारी नहीं।
  • ब्रिटिश काल में आपराधिक कानूनों को एकरूप बनाया गया, लेकिन पारिवारिक कानूनों को धर्म के आधार पर अलग रखा गया।
  • संविधान सभा में मुस्लिम सदस्यों ने व्यक्तिगत कानूनों की सुरक्षा की मांग की, जबकि के.एम. मुंशी, बी.आर. अंबेडकर और अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर ने UCC के पक्ष में दलील दी।

भारत में वर्तमान स्थिति

  • 2018 में 21वीं विधि आयोग ने कहा कि इस समय समान नागरिक संहिता “न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय।”
  • गोवा में 1867 के पुर्तगाली सिविल कोड के तहत UCC पहले से लागू है।
  • उत्तराखंड पहला भारतीय राज्य है जिसने 2024 में अपनी स्वयं की UCC लागू की।

UCC को बढ़ावा देने वाले प्रमुख निर्णय

  1. सरला मुद्गल बनाम भारत संघ (1995): धर्मांतरण और बहुविवाह से संबंधित विवाद; UCC की आवश्यकता पर जोर।
  2. लिली थॉमस बनाम भारत संघ (2013): कोर्ट ने कहा कि हिंदू पुरुष इस्लाम धर्म अपनाकर बिना पहली शादी तोड़े दूसरी शादी नहीं कर सकता।
  3. शायरा बानो बनाम भारत संघ (2017): तीन तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) को असंवैधानिक घोषित किया गया; इसके बाद मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण अधिनियम, 2019 लाया गया।
  4. जोसे पाउलो कुतिन्हो मामला (2019): सुप्रीम कोर्ट ने गोवा की सराहना करते हुए उसे “उज्ज्वल उदाहरण” कहा।

निष्कर्ष

शाह बानो मामला भारतीय न्यायपालिका की उस भूमिका को दर्शाता है जहाँ उसने व्यक्तिगत कानूनों और संविधान के बीच संतुलन बनाने का प्रयास किया।
यह निर्णय महिलाओं की समानता और अधिकारों की रक्षा की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम था।
भारत में आज भी समान नागरिक संहिता को लेकर बहस जारी है जो धर्मनिरपेक्षता, लैंगिक न्याय और सामाजिक सुधार के बीच संतुलन की खोज को दर्शाती है।

 


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