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तुलनात्मक राजनीति के उपागम (Approaches to Comparative Politics)

डेविड ईस्टन, गैब्रियल आल्मंड चार्ल्स मेरियम, गैब्रियल आल्मंड और बी. पावेल

राजनीति-विज्ञान के अध्ययन में “तुलनात्मक राजनीति” एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण शाखा मानी जाती है। यह विभिन्न देशों की राजनीतिक संस्थाओं, प्रक्रियाओं, विचारों, मूल्यों तथा व्यवहारों की तुलना करके उनके समानताओं और भिन्नताओं को समझने का प्रयास करती है। तुलनात्मक राजनीति का उद्देश्य केवल राजनीतिक संरचनाओं की तुलना करना नहीं है, बल्कि यह जानना है कि कैसे राजनीतिक व्यवस्थाएँ समाज, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय संदर्भों से प्रभावित होती हैं।
वास्तव में, तुलनात्मक राजनीति वह दृष्टिकोण है जो राजनीति के अध्ययन को अधिक वैज्ञानिक, अनुभवजन्य (Empirical) और सैद्धांतिक (Theoretical) बनाता है।

तुलनात्मक राजनीति की परिभाषा और स्वरूप

  • “तुलनात्मक राजनीति” शब्द का अर्थ है, विभिन्न राजनीतिक व्यवस्थाओं, संस्थाओं और प्रक्रियाओं की आपसी तुलना।
    गैब्रियल आल्मंड (Gabriel Almond) के अनुसार, तुलनात्मक राजनीति “राजनीतिक प्रणालियों की संरचना, कार्य और उनके प्रदर्शन का तुलनात्मक अध्ययन” है।
    रॉय मैक्रीडिस (Roy Macridis) ने इसे “राजनीतिक जीवन के विभिन्न रूपों के तुलनात्मक विश्लेषण का व्यवस्थित अध्ययन” कहा है।
  • इस प्रकार तुलनात्मक राजनीति केवल सरकारों की तुलना तक सीमित नहीं है, बल्कि यह राजनीतिक व्यवहार, संस्कृति, दल-प्रणालियों, चुनाव-व्यवस्था, नीति-निर्माण और विकास की प्रक्रियाओं की भी व्याख्या करती है।

तुलनात्मक राजनीति का विकास

  • प्राचीन काल में अरस्तू (Aristotle) ने सबसे पहले तुलनात्मक अध्ययन की नींव रखी। उन्होंने 158 राज्यों के संविधान का विश्लेषण करके “श्रेष्ठ शासन” की खोज की।
  • आधुनिक युग में यह अध्ययन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद नए रूप में उभरा, जब सामाजिक विज्ञानों में ‘Behavioral Revolution’ आया और राजनीति-विज्ञान अधिक अनुभवजन्य और वैज्ञानिक हो गया।
  • 1950 के दशक में अमेरिकन राजनीति वैज्ञानिकों जैसे गैब्रियल आल्मंड, डेविड ईस्टन, लुसियन पाइ, सिडनी वर्बा, और कार्ल डॉइच आदि ने तुलनात्मक राजनीति को एक नए विमर्श में बदला।

तुलनात्मक राजनीति के उपागम (Approaches)

राजनीतिक अध्ययन को समझने के दो व्यापक दृष्टिकोण अपनाए गए हैं

  1. पारंपरिक उपागम (Traditional Approaches)
  2. आधुनिक उपागम (Modern Approaches)

पारंपरिक उपागम (Traditional Approaches)

पारंपरिक उपागमों का केंद्र राजनीतिक संस्थाएँ, संविधान और शासन-प्रणालियाँ होती थीं। यह दृष्टिकोण 19वीं शताब्दी से लेकर 1940 तक प्रचलित रहा। पारंपरिक उपागम मुख्यतः नैतिक (Normative) और दार्शनिक (Philosophical) प्रकृति के होते थे।

() दार्शनिक उपागम (Philosophical Approach)

यह उपागम राजनीति को नैतिक और आदर्शवादी दृष्टिकोण से देखता है। प्लेटो, अरस्तू, रूसो, लॉक, और हेगेल जैसे चिंतकों ने आदर्श राज्य और न्यायपूर्ण शासन की अवधारणा प्रस्तुत की।
इस उपागम का उद्देश्य “श्रेष्ठ शासन प्रणाली” की खोज था, न कि वास्तविक राजनीतिक व्यवहार की व्याख्या।

() ऐतिहासिक उपागम (Historical Approach)

इस दृष्टिकोण में राजनीतिक संस्थाओं और विचारों के ऐतिहासिक विकास का अध्ययन किया जाता है।
अरस्तू, मैकियावेली, मॉन्टेस्क्यू, और टोकेविल ने राजनीतिक घटनाओं के ऐतिहासिक संदर्भों का विश्लेषण किया।
यह उपागम मानता है कि प्रत्येक राज्य की राजनीतिक संस्थाएँ उसके इतिहास, संस्कृति और सामाजिक विकास से जुड़ी होती हैं।

() कानूनीसंविधानिक उपागम (Legal-Institutional Approach)

यह दृष्टिकोण राज्य की संस्थाओं जैसे संसद, न्यायपालिका, कार्यपालिका और संविधान के सिद्धांतों पर केंद्रित रहता है।
19वीं सदी में यह दृष्टिकोण सबसे प्रभावी था।
ब्लंटशली और ब्राइस जैसे विद्वानों ने विभिन्न देशों के संविधान की तुलना की।
हालांकि इस उपागम की आलोचना यह कहकर की गई कि यह “संस्थाओं की संरचना” पर अधिक ध्यान देता है, “राजनीतिक व्यवहार” की उपेक्षा करता है।

() मानदंडात्मक उपागम (Normative Approach)

यह दृष्टिकोण राजनीति को नैतिक मानदंडों और मूल्यों के संदर्भ में परखता है जैसे न्याय, समानता, स्वतंत्रता।
इसका लक्ष्य है कि शासन को आदर्श नैतिक मूल्यों के अनुरूप बनाया जाए।

आधुनिक उपागम (Modern Approaches)

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद राजनीति-विज्ञान में ‘Behavioral Revolution’ आया, जिसके परिणामस्वरूप अध्ययन का केंद्र व्यक्ति, समाज और उनके राजनीतिक व्यवहार बन गए। आधुनिक उपागम राजनीति को अनुभवजन्य, वैज्ञानिक और विश्लेषणात्मक पद्धति से समझने का प्रयास करते हैं।

() व्यवहारवादी उपागम (Behavioral Approach)

डेविड ईस्टन, गैब्रियल आल्मंड, और चार्ल्स मेरियम इस दृष्टिकोण के प्रमुख विद्वान थे।
इस उपागम का लक्ष्य राजनीति के अध्ययन को वैज्ञानिक बनाना था।
यह व्यक्ति के व्यवहार, दृष्टिकोण, विश्वास और भागीदारी का अध्ययन करता है।
उदाहरण — अमेरिका और ब्रिटेन में नागरिक संस्कृति (Civic Culture) के अध्ययन में इस दृष्टिकोण का प्रयोग हुआ।
मूल तत्व: अनुभवजन्यता, परिमाणात्मक विश्लेषण, मूल्य-मुक्त अध्ययन और राजनीतिक व्यवहार की व्याख्या।

() संरचनात्मककार्यात्मक उपागम (Structural-Functional Approach)

गैब्रियल आल्मंड और बी. पावेल के अनुसार, प्रत्येक राजनीतिक प्रणाली कुछ विशिष्ट कार्य करती है जैसे नीति-निर्माण, संचार, भर्ती और समाजीकरण।
यह दृष्टिकोण समाजशास्त्र के टाल्कॉट पार्सन्स से प्रेरित था।
भारत जैसे देशों में भी राजनीतिक संस्थाओं की कार्यप्रणाली को समझने के लिए इस उपागम का प्रयोग किया गया।

() तंत्र विश्लेषण उपागम (Systems Approach)

डेविड ईस्टन ने इस दृष्टिकोण को विकसित किया।
उन्होंने राजनीति को एक “सिस्टम” माना जिसमें इनपुट (मांगें और समर्थन) तथा आउटपुट (नीतियाँ और निर्णय) के माध्यम से परस्पर संबंध होता है।


राजनीतिक प्रणाली अपने वातावरण (Environment) से प्रभावित होती है।
यह दृष्टिकोण राजनीति को एक जीवंत प्रक्रिया के रूप में देखता है, न कि स्थिर संस्था के रूप में।

() संचार उपागम (Communication Approach)

कार्ल डॉइच ने इस दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया।
उन्होंने राजनीति को सूचना-प्रवाह की प्रक्रिया माना जिसमें विभिन्न संस्थाएँ और व्यक्ति एक-दूसरे से संवाद करके निर्णय लेते हैं।
संचार जितना प्रभावी होगा, राजनीतिक व्यवस्था उतनी ही स्थिर होगी।

() विकासात्मक उपागम (Developmental Approach)

लूसियन पाइ, मार्टिन लिपसेट, और सैमुअल हंटिंगटन ने राजनीतिक विकास की अवधारणा दी।
यह दृष्टिकोण राजनीतिक संस्थाओं के आधुनिकीकरण, स्थिरता, और वैधता के आधार पर विकास को परखता है।
भारत, इंडोनेशिया और अफ्रीका जैसे देशों में राजनीतिक विकास का अध्ययन इसी उपागम से किया गया।

प्रमुख विचारक और उनके योगदान

विचारकयोगदान / सिद्धांत
अरस्तूतुलनात्मक अध्ययन की नींव रखी
गैब्रियल आल्मंडसंरचनात्मक-कार्यात्मक और राजनीतिक संस्कृति सिद्धांत
डेविड ईस्टनराजनीतिक प्रणाली का तंत्र सिद्धांत
लूसियन पाइराजनीतिक विकास का अध्ययन
कार्ल डॉइचसंचार सिद्धांत
रॉय मैक्रीडिसतुलनात्मक राजनीति की वैज्ञानिक पद्धति
सिडनी वर्बानागरिक संस्कृति का सिद्धांत

तुलनात्मक राजनीति का महत्व

  1. राजनीतिक प्रणालियों की समझ – इससे यह ज्ञात होता है कि विभिन्न देशों की शासन-प्रणालियाँ कैसे काम करती हैं।
  2. राजनीतिक स्थिरता का विश्लेषण – इससे यह पता चलता है कि किन कारकों से राजनीतिक स्थिरता या अस्थिरता उत्पन्न होती है।
  3. लोकतंत्र के विकास में सहायता – तुलनात्मक अध्ययन से लोकतांत्रिक संस्थाओं की कार्यकुशलता का मूल्यांकन किया जा सकता है।
  4. सैद्धांतिक निर्माण – इससे राजनीति-विज्ञान में सार्वभौमिक सिद्धांतों की रचना होती है।
  5. नीतिनिर्माण में सहयोग – तुलनात्मक अध्ययन नीति-निर्माताओं को बेहतर प्रशासनिक ढांचे की दिशा देता है।
  6. राजनीतिक संस्कृति और भागीदारी का अध्ययन – यह नागरिकों की राजनीतिक चेतना और भागीदारी की गहराई को समझने में मदद करता है।

तुलनात्मक राजनीति की सीमाएँ

  • सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता के कारण सार्वभौमिक निष्कर्ष निकालना कठिन है।
  • अनुभवजन्य आँकड़ों की कमी और डेटा असमानता।
  • पश्चिमी देशों के दृष्टिकोण से व्याख्या का पक्षपात।
  • विकासशील देशों की विशिष्ट परिस्थितियाँ प्रायः उपेक्षित रहती हैं।

निष्कर्ष

तुलनात्मक राजनीति आधुनिक राजनीति-विज्ञान की आत्मा कही जा सकती है। यह हमें यह समझने का अवसर देती है कि विभिन्न समाजों में सत्ता कैसे कार्य करती है, राजनीतिक संस्थाएँ कैसे रूपांतरित होती हैं और नागरिक किस प्रकार राजनीति में भाग लेते हैं।
पारंपरिक उपागम जहाँ राजनीति को आदर्श और संस्थागत दृष्टि से देखते हैं, वहीं आधुनिक उपागम इसे अनुभवजन्य और व्यवहारिक दृष्टिकोण से विश्लेषित करते हैं।
गैब्रियल आल्मंड के शब्दों में, “तुलनात्मक राजनीति राजनीति-विज्ञान को सार्वभौमिक दृष्टिकोण प्रदान करती है।” इस प्रकार, तुलनात्मक राजनीति केवल अध्ययन का एक क्षेत्र नहीं, बल्कि यह राजनीति-विज्ञान की विधा को वैज्ञानिक, बहुआयामी और सार्वभौमिक बनाती है।

 


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