भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने हाल ही में निचली न्यायपालिका में ठहराव और मुकदमेबाज़ी की बढ़ती प्रवृत्ति को गंभीरता से उठाया। उन्होंने इसे न्यायिक सेवा की कार्यक्षमता में बाधा और मानवाधिकारों के उल्लंघन से जोड़ा।
न्यायालय के समक्ष ठहराव और मुकदमेबाज़ी चुनौतियां क्यों बढ़ गयी है?
- Code of Civil Procedure और Civil Rules of Practice के तहत मामलों की सुनवाई, समन जारी करना, वकालतनामा स्वीकार करना आदि प्रक्रियाएं बेहद जटिल और समय लेने वाली हैं। इससे न्यायाधीशों को हर मामले में बार-बार उपस्थिति की जांच करनी पड़ती है, जिससे न्यायिक समय का दुरुपयोग होता है।
- वकीलों और पक्षकारों द्वारा बार-बार स्थगन (adjournment) की मांग, दस्तावेज़ों की अपूर्णता और प्रक्रिया की जटिलता के कारण मामलों की सुनवाई में वर्षों लग जाते हैं। इससे न्याय में देरी होती है, जो अंततः न्याय से इनकार के समान है।
- National Judicial Data Grid के अनुसार, जिला अदालतों में लगभग 69 करोड़ मामले लंबित हैं। यह आंकड़ा न्यायिक प्रणाली में ठहराव और जनता के विश्वास में गिरावट को दर्शाता है।
उपाय
- विधि आयोग की 120वीं रिपोर्ट: इसमें प्रति 10 लाख आबादी पर 50 न्यायाधीश नियुक्त किए जाने की सिफारिश की गई थी।
- अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS): जिला और अधीनस्थ अदालतों के लिए केंद्रीकृत भर्ती प्रक्रिया होनी चाहिए। इससे अदालतें अपनी पूरी क्षमता से कार्य करने में समर्थ होगी।
- डिजिटल एवं प्रक्रियागत सुधार: ई-कोर्ट्स मिशन मोड प्रोजेक्ट (फेज III) का विस्तार किया जाना चाहिए, जिससे AI-आधारित केस मैनेजमेंट लागू हो सके।
न्यायिक सुधार के लिए कुछ व्यावहारिक सुझाव
- केस प्रबंधन प्रणाली को सुदृढ़ किया जाए।
- न्यायाधीशों की जवाबदेही तय की जाए।
- प्रशिक्षण और तकनीकी सहायता प्रदान की जाए।
- स्थगन की प्रवृत्ति पर नियंत्रण लगाया जाए।
- न्यायिक प्रक्रिया को सरल और समयबद्ध बनाया जाए।
अब यह समझते है कि भारत में न्यायपालिक कैसे कार्य करती है।
भारतीय न्यायपालिका
- भारतीय न्यायपालिका (Indian judiciary) देश की कानूनी व्यवस्था की रीढ़ है, जो न्याय सुनिश्चित करती है और कानून के शासन को कायम रखती है।
- इसमें सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालय शामिल हैं, जिनमें से प्रत्येक की विशिष्ट भूमिकाएँ और ज़िम्मेदारियाँ हैं।
- यह न्यायालयों की एक प्रणाली है जो विवादों को सुलझाने के लिए कानून की व्याख्या और उसे लागू करती है। न्यायपालिका स्वतंत्र और निष्पक्ष है, जो सरकार की कार्यकारी और विधायी शाखाओं से स्वतंत्र रूप से काम करती है।
- भारत की न्यायपालिका एक स्वतंत्र और निष्पक्ष संस्था है।
- यह व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा करती है। यह भारत के संविधान में उल्लिखित सिद्धांतों के आधार पर काम करती है।
भारतीय न्यायपालिका का इतिहास
प्राचीन काल
- वैदिक युग में न्याय का कार्य ग्राम पंचायतों द्वारा किया जाता था। ये स्थानीय संस्थाएं छोटे-मोटे विवादों को सुलझाने में सक्षम थीं।
- मौर्य काल में चंद्रगुप्त मौर्य ने धर्म महामात्यों की देखरेख में एक संगठित न्याय व्यवस्था की स्थापना की। यह व्यवस्था धर्मशास्त्रों पर आधारित थी और राज्य के स्तर पर न्याय सुनिश्चित करती थी।
- गुप्त काल में भी ग्राम स्तर पर पंचायतें सक्रिय थीं, जबकि गंभीर अपराधों और दीवानी मामलों की सुनवाई शाही अदालतों में होती थी।
मध्यकाल (मुग़ल काल)
- मुग़ल शासन में न्याय व्यवस्था धार्मिक आधार पर विभाजित थी:
- काजी मुसलमानों के लिए इस्लामी कानून लागू करते थे।
- पंडित हिंदुओं के लिए धर्मशास्त्रों के अनुसार न्याय करते थे।
- सम्राट स्वयं अंतिम अपील की अदालत के रूप में कार्य करता था, जिससे न्याय का सर्वोच्च अधिकार शाही दरबार में केंद्रित था।
औपनिवेशिक काल
- अंग्रेजों ने भारत में अपने व्यापारिक हितों की रक्षा के लिए न्यायिक संस्थाएं स्थापित कीं।
- 1773 के रेग्युलेटिंग एक्ट के तहत कलकत्ता में पहला सुप्रीम कोर्ट स्थापित हुआ।
- 1833 के चार्टर अधिनियम ने गवर्नर जनरल को विधायी और न्यायिक सुधारों का अधिकार दिया।
- 1862 में प्रमुख प्रांतों में उच्च न्यायालयों की स्थापना की गई, जिससे ब्रिटिश न्याय प्रणाली का ढांचा मजबूत हुआ।
स्वतंत्रता के बाद
- 1950 में भारतीय संविधान लागू होने के साथ ही एक स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका की नींव रखी गई।
- न्यायिक प्रणाली को तीन स्तरों में विभाजित किया गया:
- निचली अदालतें (जिला और मजिस्ट्रेट स्तर)
- उच्च न्यायालयें (राज्य स्तर)
- सर्वोच्च न्यायालय (राष्ट्रीय स्तर)
- श्रीकृष्ण आयोग ने इस त्रिस्तरीय ढांचे की सिफारिश की थी, जिसे संविधान में अपनाया गया।
- स्वतंत्र भारत की न्यायपालिका ने कई ऐतिहासिक निर्णय दिए हैं, जिन्होंने सामाजिक न्याय, मौलिक अधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत किया है।
भारतीय न्यायपालिका के कार्य
भारतीय न्यायपालिका (Indian judiciary) के पास महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ हैं जो संविधान की रक्षा और सभी के लिए न्याय सुनिश्चित करने में मदद करती हैं। यहाँ भारतीय न्यायपालिका के कुछ प्रमुख कार्यों को सरल भाषा में समझाया गया है:
- संविधान को कायम रखना और उसकी व्याख्या करना: न्यायपालिका का मुख्य काम संविधान के नियमों की रक्षा करना और उनका पालन करना है। वे सुनिश्चित करते हैं कि संविधान के विरुद्ध कोई भी कानून या नियम न बने।
- राज्यों के बीच विवादों का समाधान: भारत में, कई बार अलग-अलग राज्यों के बीच मतभेद या टकराव होते हैं। न्यायपालिका, खास तौर पर सुप्रीम कोर्ट, इन विवादों को सुलझाने में मदद करती है और यह सुनिश्चित करती है कि सभी के लिए चीजें निष्पक्ष हों।
- मौलिक अधिकारों की रक्षा: संविधान सभी नागरिकों और यहां तक कि गैर-नागरिकों को भी कुछ महत्वपूर्ण अधिकार देता है। न्यायपालिका सुनिश्चित करती है कि इन अधिकारों का उल्लंघन न हो। अगर सरकार कोई ऐसा कानून बनाती है जो इन अधिकारों के खिलाफ़ है, तो अदालतों के पास हस्तक्षेप करने और उसे रोकने का अधिकार है।
- कानून बनाने में मदद करना: कभी-कभी, न्यायालय समाज में समस्याओं को हल करने के लिए नए नियम या मौजूदा कानूनों में बदलाव का सुझाव देते हैं। वे संविधान से जुड़े मुद्दों पर सरकार को सलाह भी देते हैं। इससे बेहतर कानून बनाने और सभी के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करने में मदद मिलती है।
भारत में न्यायिक पदानुक्रम
भारतीय न्यायिक प्रणाली एक त्रिस्तरीय पदानुक्रम का अनुसरण करती है, जिसमें विभिन्न स्तरों के न्यायालय विशिष्ट अधिकार क्षेत्र और कार्यक्षमता के साथ कार्य करते हैं। इसके अतिरिक्त, अर्ध-न्यायिक निकाय और वैकल्पिक विवाद समाधान मंच भी न्यायिक ढांचे का हिस्सा हैं।
- सुप्रीम कोर्ट (भारत का सर्वोच्च न्यायालय)
- संवैधानिक आधार: संविधान के भाग V, अध्याय IV के तहत स्थापित।
- भूमिका: यह संविधान का संरक्षक है और नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है।
- संरचना: एक मुख्य न्यायाधीश और अधिकतम 30 अन्य न्यायाधीश (राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त)।
- क्षेत्राधिकार:
- मूल: केंद्र और राज्यों के बीच विवाद।
- अपीलीय: उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपील।
- सलाहकार: राष्ट्रपति द्वारा संदर्भित कानूनी मामलों पर राय।
- विशेष शक्तियाँ: असंवैधानिक कानूनों को रद्द करने की शक्ति (न्यायिक समीक्षा)।
- न्यायाधीशों की नियुक्ति: कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से।
- स्थान: नई दिल्ली।
- चुनौतियाँ: पारदर्शिता, दक्षता और सुधार की आवश्यकता।
- उच्च न्यायालय (High Courts)
- संवैधानिक आधार: अनुच्छेद 214।
- संख्या: भारत में 25 उच्च न्यायालय।
- क्षेत्राधिकार:
- मूल: गंभीर सिविल और आपराधिक मामले।
- अपीलीय: अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णयों पर।
- रिट: मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु रिट जारी करना।
- प्रशासनिक नियंत्रण: अधीनस्थ न्यायालयों पर।
- न्यायाधीशों की नियुक्ति: राष्ट्रपति द्वारा, CJI और राज्यपाल से परामर्श के बाद।
- सुधार प्रयास: ई-कोर्ट, रजिस्ट्री प्रणाली में सुधार, लंबित मामलों की कमी।
- अधीनस्थ न्यायालय (Subordinate Courts)
- संरचना: जिला एवं सत्र न्यायालय, सिविल न्यायालय, मजिस्ट्रेट न्यायालय।
- क्षेत्राधिकार: भूमि विवाद, पारिवारिक मामले, आपराधिक अपराध आदि।
- न्यायाधीश:
- जिला न्यायाधीश (सिविल एवं आपराधिक दोनों मामलों में)
- मुंसिफ, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, न्यायिक मजिस्ट्रेट (निचले स्तर पर)
- प्रशासनिक नियंत्रण: संबंधित उच्च न्यायालय।
- सुधार प्रयास: केस प्रबंधन प्रणाली, ई-कोर्ट, लोक अदालतें।
- चुनौतियाँ: बुनियादी ढांचे की कमी, न्यायाधीशों की रिक्तियाँ, न्याय में देरी।
- न्यायाधिकरण (Tribunals)
- प्रकृति: अर्ध-न्यायिक निकाय।
- उद्देश्य: विशिष्ट विषयों में त्वरित निर्णय और अदालतों पर दबाव कम करना।
- प्रमुख उदाहरण:
- आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण
- ऋण वसूली न्यायाधिकरण
- प्रतिभूति अपीलीय न्यायाधिकरण
- राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण
- समीक्षा: उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट द्वारा सीमित न्यायिक समीक्षा।
- चुनौतियाँ: रिक्तियाँ, प्रशिक्षण की कमी, बुनियादी ढांचे की समस्याएं।
- संवैधानिक पहल: 122वां संशोधन विधेयक न्यायाधिकरणों को संवैधानिक दर्जा।
- न्याय पंचायतें (Nyaya Panchayats)
- प्रकृति: ग्राम स्तर की अनौपचारिक अदालतें।
- संरचना: पंचायत प्रमुख और स्थानीय बुजुर्ग।
- क्षेत्राधिकार: भूमि, संपत्ति, ऋण, पारिवारिक विवाद, छोटे अपराध।
- लाभ: त्वरित, सस्ता और सुलभ न्याय।
- चुनौतियाँ: कानूनी प्रक्रिया की कमी, रिकॉर्डिंग और अपील की सीमाएं।
- संवैधानिक मान्यता: अनुच्छेद 244 के तहत जनजातीय क्षेत्रों में।
- राज्य पहल: राजस्थान, ओडिशा, आंध्र प्रदेश ने विनियमन हेतु कानून बनाए।
- लोक अदालतें (Lok Adalats)
- प्रकृति: वैकल्पिक विवाद समाधान मंच।
- संरचना: वर्तमान/सेवानिवृत्त न्यायाधीश और कानूनी विशेषज्ञ।
- उद्देश्य: सुलह और मध्यस्थता के माध्यम से विवादों का निपटारा।
- प्रमुख विषय: मोटर दुर्घटना, पारिवारिक विवाद, बिजली-पानी बिल।
- लाभ: कम लागत, त्वरित समाधान, बाध्यकारी समझौते।
- सुधार प्रयास: राष्ट्रीय लोक अदालतें, स्थायी लोक अदालतों की सिफारिश।
भारतीय न्यायिक पदानुक्रम एक बहुस्तरीय और बहुआयामी संरचना है, जिसमे सुप्रीम कोर्ट से लेकर न्याय पंचायतों तक, प्रत्येक स्तर की अपनी विशिष्ट भूमिका है। सुधार, पारदर्शिता और तकनीकी एकीकरण के माध्यम से यह प्रणाली अधिक प्रभावी और सुलभ बन सकती है।
भारतीय न्यायपालिका के समक्ष चुनौतियाँ
भारतीय न्यायपालिका (Indian judiciary in Hindi) को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है जो इसके कामकाज और प्रभावशीलता को प्रभावित करती हैं। इनमें से कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं:
- भारतीय न्यायपालिका के सामने सबसे बड़ी चुनौती लंबित मामलों का बड़ा बोझ है। अदालतों पर लंबित मामलों की बड़ी संख्या का बोझ है। इससे न्याय मिलने में देरी होती है।
- न्यायपालिका में भ्रष्टाचार एक गंभीर चिंता का विषय है जो न्याय प्रदान करने में बाधा डालता है। कुछ न्यायालय अधिकारियों के बीच रिश्वतखोरी, पक्षपात और दुर्व्यवहार के मामले सामने आए हैं।
- न्यायपालिका में अधिक विविधता और प्रतिनिधित्व की आवश्यकता है। विशेष रूप से हाशिए पर पड़े समूहों का न्यायपालिका में कम प्रतिनिधित्व रहा है।
- भारतीय न्यायपालिका (Bhartiya Nyayapalika) को अक्सर अपर्याप्त बुनियादी ढांचे और संसाधनों के संदर्भ में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
- न्याय तक पहुंच में सुधार के प्रयासों के बावजूद, समाज के कई वर्गों को अभी भी न्यायिक प्रणाली तक पहुंचने में बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है।
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