भारत में लिंग और राजनीति का संबंध केवल सत्ता की भागीदारी तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज में समानता, प्रतिनिधित्व और समावेश के संघर्ष की गाथा है।
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में महिलाएँ देश की आधी आबादी हैं, फिर भी राजनीतिक निर्णय प्रक्रिया में उनकी भागीदारी पुरुषों की तुलना में सीमित रही है।
राजनीति में महिलाओं की भागीदारी केवल मतदान तक नहीं, बल्कि शासन, नीति-निर्माण, नेतृत्व और सामाजिक सक्रियता तक फैली है। स्वतंत्रता के बाद से अब तक भारत ने महिला मतदाताओं की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि देखी है 2019 के आम चुनाव में महिलाओं का मतदान प्रतिशत 65.63% था, जो पुरुषों के 67.09% से थोड़ा ही कम था।
फिर भी, लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व मात्र 14.4% है, जिससे भारत अभी भी वैश्विक औसत से नीचे है।
संवैधानिक और कानूनी ढांचा
भारतीय संविधान ने लिंग आधारित भेदभाव के विरुद्ध ठोस कानूनी नींव रखी है।
- अनुच्छेद 14– समानता का अधिकार
- अनुच्छेद 15(1) – लिंग, जाति, धर्म आदि के आधार पर भेदभाव का निषेध
- अनुच्छेद 15(3) – महिलाओं और बच्चों के हित में विशेष प्रावधान का अधिकार
- अनुच्छेद 16 – समान अवसरों का अधिकार
- अनुच्छेद 39(a) – समान कार्य के लिए समान वेतन
- अनुच्छेद 42 – मातृत्व लाभ और बेहतर कार्य परिस्थितियाँ
- अनुच्छेद 243D और 243T – पंचायती राज और नगर निकायों में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण सुनिश्चित करते हैं।
इन संवैधानिक प्रावधानों ने महिलाओं की भागीदारी का आधार तैयार किया, किंतु इनके प्रभावी क्रियान्वयन में सामाजिक पितृसत्ता और संरचनात्मक असमानताएँ बड़ी बाधा बनती रही हैं।

महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
- स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका
भारत की स्वतंत्रता संग्राम ने महिलाओं को राजनीति के क्षेत्र में प्रवेश का अवसर दिया।
सरोज़िनी नायडू, एनी बेसेंट, कस्तूरबा गांधी, अरुणा आसफ़ अली, विजयलक्ष्मी पंडित और कमला देवी चट्टोपाध्याय जैसी महिलाओं ने स्वतंत्रता आंदोलन में नेतृत्व दिया और सामाजिक रूढ़ियों को चुनौती दी।
उनके संघर्षों ने स्वतंत्र भारत में महिलाओं के अधिकारों और समान राजनीतिक भागीदारी की नींव रखी।
- स्वतंत्रता के बाद की चुनौतियाँ
आज़ादी के बाद भी महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी सीमित रही, जिसके कारण थे:-
- पितृसत्तात्मक समाज जहाँ राजनीति को पुरुषों का क्षेत्र माना गया।
- शैक्षणिक पिछड़ापन, विशेषकर ग्रामीण महिलाओं में।
- आर्थिक निर्भरता, जिससे चुनावी राजनीति में भाग लेना कठिन रहा।
- राजनीतिक दलों की पुरुष–प्रधान संरचना, जिसने नेतृत्व में महिलाओं की भूमिका सीमित कर दी।
- सुरक्षा और सामाजिक प्रतिरोध, जिसने महिलाओं की सार्वजनिक उपस्थिति को प्रभावित किया।
महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण की रणनीतियाँ
- आरक्षण नीति का प्रभाव:
1992 में 73वें और 74वें संविधान संशोधन के तहत पंचायतों और शहरी निकायों में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण लागू किया गया।
इसका परिणाम यह हुआ कि वर्तमान में देशभर में लगभग 13 लाख से अधिक निर्वाचित महिलाएँ स्थानीय निकायों में प्रतिनिधित्व कर रही हैं।
कई राज्यों ने इसे बढ़ाकर 50% आरक्षण कर दिया है (जैसे बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़)। - शिक्षा और नेतृत्व प्रशिक्षण:
विभिन्न NGO और सरकारी कार्यक्रम जैसे राष्ट्रीय महिला सशक्तिकरण मिशन, महिला शक्ति केंद्र योजना, और निर्भया फंड के तहत प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। - जागरूकता अभियान:
नागरिक समाज और महिला संगठनों ने ‘हर महिला नेता बने’ और ‘महिला मतदाता सशक्तिकरण अभियान’ जैसे कार्यक्रमों से राजनीतिक भागीदारी को प्रोत्साहित किया है। - संवैधानिक समितियाँ और आयोग:
- राष्ट्रीय महिला आयोग (1992) — महिला अधिकारों की रक्षा और भेदभाव की जांच।
- महिला सशक्तिकरण पर समिति (1971) — सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति का विश्लेषण।
- स्थानीय निकायों में महिला सशक्तिकरण समिति (2009) — निर्णय-निर्माण में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के सुझाव।
महिला अधिकारों हेतु संसद के प्रमुख अधिनियम
| अधिनियम | वर्ष | उद्देश्य |
| समान पारिश्रमिक अधिनियम | 1976 | समान कार्य के लिए समान वेतन सुनिश्चित करना |
| दहेज निषेध अधिनियम | 1961 | दहेज प्रथा पर रोक और उत्पीड़न में कमी |
| घरेलू हिंसा से संरक्षण अधिनियम | 2005 | घरेलू हिंसा की परिभाषा और कानूनी सुरक्षा |
| मातृत्व लाभ अधिनियम (संशोधन) | 2017 | मातृत्व अवकाश 26 सप्ताह तक |
| यौन उत्पीड़न निवारण अधिनियम | 2013 | कार्यस्थल पर सुरक्षा सुनिश्चित करना |
| पीसीपीएनडीटी अधिनियम | 1994 | लिंग-चयनात्मक गर्भपात पर रोक |
| बाल विवाह निषेध अधिनियम | 2006 | बाल विवाह को गैरकानूनी घोषित करना |
इन कानूनी प्रावधानों ने भारतीय राजनीति को लिंग-संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाने की दिशा में प्रेरित किया।
राजनीति में महिलाओं की उपलब्धियाँ
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, भारत में राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने में क्रमिक लेकिन धीमी प्रगति देखी गई है। ब्रिटिश शासन के दौरान , भारत में महिलाओं को सीमित मताधिकार प्राप्त था।
हालाँकि, भारतीय संविधान के पारित होने के साथ , सभी भारतीय महिलाओं को मतदान और भागीदारी का अधिकार प्राप्त हुआ, और तब से, उनकी भागीदारी में महत्वपूर्ण बाधाओं के बावजूद, विकास हुआ है।
- लोकसभा चुनावों में महिला मतदाताओं का मतदान: एक प्रमुख संकेतक महिलाओं का मतदान प्रतिशत है। 1962 में, मतदान प्रतिशत 46.6% था, और 2024 तक, 18वें लोकसभा चुनावों के दौरान यह उल्लेखनीय रूप से बढ़कर 65.8% हो गया ।
- आम चुनाव लड़ने वाली महिलाओं की संख्या: चुनाव लड़ने वाली महिलाओं की संख्या में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। 1957 में, केवल 45 महिलाएँ लोकसभा चुनावों में उम्मीदवार थीं। 2024 में 18वीं लोकसभा के चुनावों में, यह संख्या बढ़कर 797 हो गई, जो महिलाओं के लिए राजनीतिक उम्मीदवार के रूप में भाग लेने की बढ़ती इच्छा और अवसर को दर्शाता है।
- विधायी निकायों में महिलाओं का निर्वाचन: विधायी निकायों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व धीरे-धीरे बढ़ा है। लोकसभा में, 1951 में महिला प्रतिनिधियों की संख्या 22 (5%) थी, जो 2024 में बढ़कर 74 (13.6%) हो गई। इसी प्रकार, राज्यसभा में महिला प्रतिनिधित्व 1952 में 7% से बढ़कर 2023 में 13% हो गया।
स्थानीय स्तर पर, महिलाओं की सीटों में हिस्सेदारी ज़्यादा है। 2022 में, स्थानीय स्वशासन संस्थाओं में महिलाओं की हिस्सेदारी 44% थी , यानी कुल 1,375,914 महिला प्रतिनिधि थीं। - हालिया घटनाक्रम: महिला आरक्षण विधेयक सितंबर 2023 में पारित हो गया है, जिससे लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% सीटें आरक्षित हो जाएँगी। अगली जनगणना और परिसीमन के बाद इसके क्रियान्वयन की उम्मीद है।
- वैश्विक तुलना: महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में भारत की वैश्विक रैंकिंग अभी भी कम है । 18वीं लोकसभा चुनाव से पहले, आईपीयू के अनुसार, संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में भारत 185 देशों में 143वें स्थान पर था । 18वीं लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या में मामूली कमी के साथ, इस रैंकिंग में और गिरावट आने की संभावना है।
महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी में बाधाएँ
- राजनीतिक दलों में अवसर की कमी: टिकट वितरण में महिलाओं का हिस्सा 10% से कम है।
- चुनावी खर्च और आर्थिक निर्भरता: महिलाएँ संसाधन जुटाने में पिछड़ी रहती हैं।
- सांस्कृतिक रूढ़ियाँ : राजनीति को ‘पुरुषों का क्षेत्र’ मानने की सामाजिक सोच।
- सुरक्षा और हिंसा: चुनावी हिंसा, चरित्र हनन और ऑनलाइन उत्पीड़न से महिलाओं का मनोबल घटता है।
- मीडिया में प्रस्तुति: महिला नेताओं को अक्सर ‘भावनात्मक’ या ‘अनुभवहीन’ बताया जाता है।
समानता का मार्ग : आगे की दिशा
समान राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए निम्न सुधार आवश्यक हैं:
- महिला आरक्षण विधेयक (Women’s Reservation Bill): संसद और राज्य विधानसभाओं में 33% सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित करने का प्रस्ताव, जो 2023 में ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ के रूप में पारित हुआ है।
- राजनीतिक दलों में कोटा प्रणाली: दलों को आंतरिक स्तर पर कम से कम 33% पद महिलाओं को देने चाहिए।
- आर्थिक सशक्तिकरण: महिला उम्मीदवारों के लिए वित्तीय सहायता योजनाएँ।
- शैक्षणिक और डिजिटल साक्षरता: महिला नेताओं के लिए तकनीकी और नेतृत्व प्रशिक्षण।
- मीडिया में समान प्रस्तुति: महिला नेताओं की उपलब्धियों को संतुलित और सम्मानजनक रूप से प्रदर्शित करना।
- पितृसत्तात्मक सोच का अंत : समाज में नेतृत्व के पारंपरिक पुरुषवादी दृष्टिकोण को चुनौती देना।
निष्कर्ष
भारत में लिंग और राजनीति का अंतर्संबंध न केवल समाज की प्रगति का संकेतक है, बल्कि लोकतंत्र की गहराई का भी प्रतिबिंब है।
संविधान ने समानता की नींव रखी, लेकिन वास्तविक समानता तभी संभव है जब महिलाएँ नीति निर्माण से लेकर शासन तक हर स्तर पर समान भागीदारी करें।
महिलाओं की बढ़ती राजनीतिक उपस्थिति यह दर्शाती है कि परिवर्तन की दिशा स्पष्ट है — अब आवश्यकता है संरचनात्मक सुधारों और मानसिक बदलाव की, ताकि राजनीति में ‘नारी शक्ति’ केवल प्रतीक नहीं, बल्कि शक्ति का वास्तविक स्रोत बन सके।
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