भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में यह स्पष्ट कर दिया है कि उसे राज्य सरकारों द्वारा बनाए गए कानूनों की जांच करने का पूरा अधिकार है। सर्वोच्च न्यायालय ने नंदिनी सुंदर एवं अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य मामले में कहा कि किसी राज्य द्वारा नया कानून पारित किया जाना, भले ही वह उस विषय से संबंधित हो जिस पर पहले न्यायालय ने निर्णय दिया हो तब तक अदालत की अवमानना नहीं माना जा सकता, जब तक वह संविधान के सिद्धांतों का उल्लंघन न करे।
यह निर्णय विधायी कार्यों की न्यायिक समीक्षा की सीमाओं को रेखांकित करता है और भारतीय लोकतंत्र में शक्तियों के पृथक्करण (separation of powers) के सिद्धांत को सशक्त रूप से पुनः स्थापित करता है।
मामले की पृष्ठभूमि
जुलाई 2011 में, सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण आदेश जारी किया, जिसमें छत्तीसगढ़ सरकार को माओवादी विरोधी अभियानों के लिए विशेष पुलिस अधिकारियों (SPOs) के उपयोग पर रोक लगा दी गई थी।
- कोर्ट ने यह माना कि SPOs की भर्ती; जो न तो पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित थे और न ही उन्हें उचित वेतन मिलता था वह संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) का उल्लंघन करता है।
- इसके साथ ही, कोर्ट ने SPOs को दिए गए सभी हथियार वापस लेने का निर्देश दिया और केंद्र सरकार को उनकी भर्ती के लिए वित्तीय सहायता रोकने का आदेश दिया।
छत्तीसगढ़ सरकार की विधायी प्रतिक्रिया
सुप्रीम कोर्ट के 2011 के आदेश के बाद, छत्तीसगढ़ सरकार ने छत्तीसगढ़ सहायक सशस्त्र पुलिस बल अधिनियम, 2011 पारित किया।
इस कानून के माध्यम से एक सहायक बल के गठन की अनुमति दी गई, जो नियमित सुरक्षा बलों को विद्रोह नियंत्रित करने में सहायता करेगा।
इस अधिनियम में सुप्रीम कोर्ट की चिंताओं को ध्यान में रखते हुए कुछ विशेष प्रावधान शामिल किए गए:
- धारा 4(1): सहायक बलों को केवल अग्रिम पंक्ति (फ्रंटलाइन) के बाहर सहायता कार्यों के लिए अधिकृत किया गया।
- धारा 5(2): यह सुनिश्चित किया गया कि इन कर्मियों को प्रत्यक्ष युद्ध में तैनात नहीं किया जाएगा।
- छह महीने का अनिवार्य प्रशिक्षण और कठोर पात्रता जांच प्रक्रिया लागू की गई।
हालांकि, इस कानून को सुप्रीम कोर्ट के 2011 के निर्णय का उल्लंघन बताते हुए अवमानना याचिका (Contempt Petition) दायर की गई।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना के आरोपों को खारिज कर दिया और निम्नलिखित आधारों पर निर्णय दिया:
- पूर्व आदेशों का अनुपालन (Compliance with Prior Orders):
कोर्ट ने पाया कि छत्तीसगढ़ सरकार ने 2011 के सभी निर्देशों का पालन किया था, और इस बारे में विस्तृत रिपोर्ट भी प्रस्तुत की गई थी। - विधायी अधिकारिता और वैधता (Legislative Competence and Validity):
कोर्ट ने कहा कि राज्य और संसद, दोनों को पूर्ण विधायी अधिकार प्राप्त हैं, बशर्ते कि वे संविधान के अनुरूप हों। केवल किसी नए कानून का बनना ही अवमानना नहीं माना जा सकता, जब तक यह संविधान का उल्लंघन न करता हो।
सत्ता के पृथक्करण का सिद्धांत
- सुप्रीम कोर्ट ने Indian Aluminium Co. बनाम केरल राज्य (1996) जैसे मामलों का हवाला देते हुए यह स्पष्ट किया कि न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका को अपने-अपने कार्यक्षेत्रों की सीमाओं का पालन करना चाहिए।
- कोर्ट ने दोहराया कि न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) केवल किसी कानून की संवैधानिक वैधता की जांच कर सकती है, न कि उसके पारित होने मात्र को चुनौती दी जा सकती है।
न्यायिक निगरानी और राज्य कानून निर्माण पर प्रभाव (Implications for Judicial Oversight and State Legislation)
- विधायिकाओं की स्वतंत्रता की पुष्टि: यह निर्णय स्पष्ट करता है कि कोर्ट तब तक विधायिका को कानून बनाने से नहीं रोक सकता, जब तक कि उस कानून को संविधान विरोधी (unconstitutional) सिद्ध न कर दिया जाए।
- न्यायिक टिप्पणियों के प्रति विधायी प्रतिक्रिया का अधिकार: कोर्ट ने माना कि किसी न्यायिक निर्णय के बाद यदि कोई विधायिका नई कानून व्यवस्था बनाती है, जो कि पुराने मुद्दों को संबोधित करती है, तो यह न्यायालय की अवमानना नहीं है।
- न्यायपालिका की सीमाएँ: यह भी रेखांकित किया कि संवैधानिक न्यायालय (जैसे सुप्रीम कोर्ट) तब तक विधायी प्रक्रिया में दखल नहीं दे सकते, जब तक कि कानून संविधान के विरुद्ध न हो या विधायी अधिकार क्षेत्र के बाहर न हो।
न्यायालय की अवमानना क्या होती है?
“न्यायालय की अवमानना” शब्द लैटिन शब्द “कंटेम्प्टस क्यूरी” से लिया गया है।न्यायालय के अवमानना का अर्थ न्यायालय के प्रति अनादर या अवज्ञा है। यह एक कानूनी अवधारणा है कि ऐसे व्यवहार या कार्रवाई को प्रतिंधित करता है, जो अदालत के अधिकार के आदेश का अनादर करता है, कानूनी प्रक्रिया को कमजोर करता है, या अदालती कार्यवाही को बाधित करता है।
“अदालत की अवमानना” की अवधारणा आधुनिक नहीं है, लेकिन इसकी जड़ें इतिहास में हैं। पहले, यह सिद्धांत प्रचलित था कि “राजा कोई गलत काम नहीं कर सकता या राजा सर्वोच्च अधिकारी है या राजा का सम्मान करना चाहिए” और जो कोई भी राजा से सवाल करता था या उसका विरोध करता था, उसे दंडित किया जाता था।
इस प्रकार, भारत में अवमानना कानून स्वतंत्रता-पूर्व युग में पाए गए और अवमानना के मुद्दे से निपटने वाला पहला कानून न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1926 था।
स्वतंत्रता के बाद, इस अधिनियम को न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1952 द्वारा निरस्त कर दिया गया , जिसने न्यायिक आयुक्त के न्यायालयों को अपने या अपने अधीनस्थ न्यायालयों की किसी भी अवमानना की जाँच करने या उस पर मुकदमा चलाने का अधिकार दिया।
बाद में, वर्ष 1960 में, भारत में मौजूदा अवमानना कानून को समेकित और संशोधित करने के लिए एक विधेयक पेश किया गया। श्री एच.एन. सान्याल की अध्यक्षता में एक विशेष समिति गठित की गई जिसने 1963 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की तथा अधिकांश सिफारिशें स्वीकार कर ली गईं और न्यायालय अवमानना अधिनियम, 1971 अस्तित्व में आया तथा 1952 के अधिनियम को निरस्त कर दिया गया।
वैधानिक आधार
- जब संविधान को अपनाया गया, तो न्यायालय की अवमानना कोभारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों में से एक बना दिया गया।
- अलग सेसंविधान के अनुच्छेद 129 ने सर्वोच्च न्यायालय को अपनी अवमानना के लिये दंडित करने की शक्ति प्रदान की। अनुच्छेद 215 ने उच्च न्यायालयों को तदनुरूपी शक्ति प्रदान की।
- न्यायालय अवमानना अधिनियम, 1971 इस विचार को वैधानिक समर्थन देता है।
न्यायालय की अवमानना के प्रकार
- सिविल अवमानना:यह किसी न्यायालय के किसी निर्णय, डिक्री, निर्देश, आदेश, रिट या अन्य प्रक्रिया की जान-बूझकर अवज्ञा या न्यायालय को दिये गए वचन का जान-बूझकर उल्लंघन है।
आपराधिक अवमानना: इसमें किसी भी ऐसे मामले का प्रकाशन या कोई अन्य कार्य शामिल है जो किसी अदालत के अधिकार को कम करता है या उसे बदनाम करता है या किसी न्यायिक कार्यवाही की उचित प्रक्रिया में हस्तक्षेप करता है या किसी अन्य तरीके से न्याय प्रशासन में बाधा डालता है।
इस निर्णय का महत्व
- इस फैसले ने यह सुनिश्चित किया कि न्यायपालिका का कार्य कानूनों की व्याख्या और मौलिक अधिकारों की रक्षा करना है, न कि विधायिका की भूमिका को कमजोर करना।
- यह निर्णय एक मिसाल कायम करता है कि न्यायिक निर्णय के बाद पारित नया कानून स्वयं में अवमानना नहीं है, जिससे विधायकों और याचिकाकर्ताओं दोनों को स्पष्टता मिलती है।
- राज्य सरकारें अब संवेदनशील मुद्दों पर न्यायालय की चिंताओं को ध्यान में रखते हुए, और संवैधानिक सीमाओं का पालन करते हुए, कानून बनाने के लिए अधिक साहसिक और स्पष्ट रास्ता अपना सकती हैं।