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भारतीय संदर्भ में लोकतंत्र की बदलती रुपरेखा

ब्रिटिश राज खत्म होने के बाद भारत में दो तरह के विचार या विमर्श उभरे।
पहला था औपनिवेशिक विमर्श, अंग्रेजों के शासन और उसके प्रभावों पर चर्चा।
दूसरा था राष्ट्रवादी विमर्श, आज़ादी के बाद भारत को किस दिशा में ले जाना चाहिए इस पर भारतीय नेताओं और बुद्धिजीवियों के विचार।

औपनिवेशिक विमर्श

ब्रिटिश उपनिवेशवादी शुरू से ही यह मानते थे कि भारत की जनता लोकतांत्रिक राजनीति करने लायक नहीं है। इसलिए करीब सौ साल पहले लॉर्ड कर्जन ने भारतीय जनता को यह सलाह दी थी कि उन्हें राजनीति के ज़रिए अपनी आज़ादी खोजने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। लेकिन भारतीय जनता ने उनकी बात नहीं मानी। लोगों का एक बड़ा हिस्सा आज़ादी के संघर्ष में शामिल हुआ और राजनीति को अपने जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बना लिया। इस संघर्ष के दौरान जनता ने ब्रिटिश शासन से टकराते हुए आधुनिकता को अपनाया।
इस आंदोलन में जो नेता सामने आए, उनमें ज़्यादातर पश्चिमी शिक्षा और विचारों से प्रभावित थे। उनका व्यक्तित्व उदार और पश्चिमी लोकतंत्र के ढाँचे में ढला हुआ था। इनके प्रभाव में भारतीय समाज की असली, गैर-पश्चिमी सच्चाई छिप गई। जो बुद्धिजीवी इन नेताओं को देखकर जनता को समझने की कोशिश कर रहे थे, उन्होंने कुछ संदेह तो जताए, लेकिन यह नहीं कहा कि भारत में लोकतंत्र ज़्यादा दिन नहीं टिकेगा।
अमेरिकी विद्वान सेलिग हेरिसन ने अपनी किताब में कड़े शब्दों में कहा कि कांग्रेस पार्टी का दबदबा पहली बार कमजोर हुआ है, और अबभारतीय लोकतंत्र का अंत नज़दीक है।
मैक्सवेल और रोनाल्ड सेगल ने भी 1960 के दशक को भारत के लिएनकारात्मक दौर बताया। उनका कहना था कि भारत की राजनीति अस्थिर है और अर्थव्यवस्था कमजोर, इसलिए यह देश इन संकटों को झेल नहीं पाएगा।
मैक्सवेल ने तो यहाँ तक लिखा कि 1967 का चुनाव भारत का आख़िरी चुनाव होगा  यानी भारत में लोकतंत्र खत्म हो जाएगा। फिर1970 के दशक में, जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया, तो यही औपनिवेशिक मानसिकता भारतीय बुद्धिजीवियों में भी दिखने लगी।

राष्ट्रवादी विमर्श

इस राष्ट्रवादी विमर्श में मुख्य भूमिका उन बुद्धिजीवियों की थी जो भारतीय समाज की पुरानी व्यवस्था जैसे जाति, असमानता, पिछड़ापन से असंतुष्ट थे और उसे पूरी तरह बदलना चाहते थे।आज़ादी के बाद भारत में तीन प्रमुख वैचारिक धाराएँ थीं नेहरू, आंबेडकर, और सावरकर की। इन तीनों के विचार लोकतंत्र और समाज-परिवर्तन से जुड़े थे, लेकिन इनके नजरिए अलग-अलग थे।

पहली धारा

नेहरू और उनके साथी नेहरू मानते थे कि भारत को लोकतंत्र और विकास की प्रक्रिया से आगे बढ़ाया जा सकता है। उनका कहना था कि भारत का समाज जो जातियों, भाषाओं, धर्मों और संस्कृतियों में बँटा हुआ है लोकतंत्र के ज़रिए एकजुट होकर आधुनिक बने। वे विविधता का सम्मान करते हुए सबको साथ लेकर चलने वाले लोकतंत्र पर भरोसा करते थे। क्योकि सत्ता अंग्रेजों से उन्हें ही मिली थी, इसलिए उन्हें अपने विचारों को लागू करने का मौका भी मिला।

दूसरी धारा

डॉ. भीमराव आंबेडकर: आंबेडकर ने संविधान बनाकर लोकतंत्र को मजबूत नींव दी।
वे भी जातिवाद के खिलाफ थे और चाहते थे कि समाज में बराबरी हो। लेकिन वे चिंतित थे कि भारत का समाज अभी भी ऊँच-नीच और भेदभाव में फँसा हुआ है।
उन्हें डर था कि अगर समाज में समानता नहीं आई, तो लोकतंत्र सिर्फ कागज़ी रहेगा।
उनके पास लोकतंत्र का कोई बेहतर विकल्प नहीं था, पर उन्हें यह भी साफ़ नहीं दिखता था कि यह लोकतंत्र समाज को कैसे बदलेगा।

तीसरी धारा  

विनायक दामोदर सावरकर: सावरकर राजनीतिक हिंदुत्व के प्रमुख विचारक थे।
वे ऐसा लोकतंत्र नहीं चाहते थे जिसमें सभी धर्मों या समुदायों खासकर अल्पसंख्यकों  को बराबरी के अधिकार मिलें। उनकी सोच एक एकरूप राष्ट्र की थी, जहाँ हिंदू पहचान को प्राथमिकता मिले।वे भी जातिवाद के खिलाफ थे, लेकिन उनकी मंशा समाज को हिंदू एकता के नाम पर एकरूप बनाना थी, न कि विविधता का सम्मान करना।

चौथी धारा

कम्युनिस्ट (साम्यवादी) विचारधारा: कम्युनिस्टों की सोच पूरी तरह अलग थी।
वे वर्ग-संघर्ष (class struggle) के सिद्धांत से प्रभावित थे। उनके अनुसार, भारत में जो लोकतंत्र है, वह असल में अमीर और पूँजीपतियों (बुर्जुआ वर्ग) की तानाशाही है यानि दिखने में तो यह लोकतंत्र है, लेकिन असल में सत्ता अमीर वर्ग के हाथ में है।
कम्युनिस्टों का लक्ष्य था कि किसानों और मजदूरों को एकजुट कर,उनके नेतृत्व में पूँजीवादी व्यवस्था को खत्म कर क्रांति की जाए।उनका विश्वास था कि भारत का समाज बहुत धीमा और बदलाव के प्रति प्रतिरोधी है यह जल्दी बदलना नहीं चाहता।
कम्युनिस्ट यह भी मानते थे कि राष्ट्रीय आंदोलन (जो गांधी और नेहरू के नेतृत्व में हुआ) से निकले नेता इतने स्वतंत्र विचार वाले और साहसी नहीं हैं कि वे सच्ची पूँजीवादी या समाजवादी क्रांति कर सकें। इसलिए, समाज में असली परिवर्तन तभी आएगा जब किसानों और मजदूरों की अगुआई में क्रांति होगी।

आज़ादी के बाद जब भारत में राष्ट्रवादी विमर्श चल रही थी, तोबहुलतावादी लोकतंत्र
को लेकर नेताओं और विचारकों में कोई एकमत राय या सहमति नहीं थी

संविधान सभा में असहमति और बहस:

लोकतंत्र को लेकर मतभेद इतने गहरे और विवादास्पद थे कि संविधान सभा की चर्चाओं में इन कठिन सवालों से बचने की कोशिश की गई। इसी तरह बहस को समाप्त किया गया, ताकि टकराव और न बढ़े।

औपनिवेशिक और राष्ट्रवादी विचारों में समानता:

औपनिवेशिक और राष्ट्रवादी विचार अलग थे, फिर भी दोनों में कुछसमानता मौजूद थे। लगभग सभी विचारधाराओं का यह मानना था कि भारतीय समाज अपनी मौजूदा स्थिति में लोकतंत्र के लिए तैयार नहीं है। उनके अनुसार समाज को बदलना जरूरी है, जाति व्यवस्था खत्म करनी होगी, वरना लोकतंत्र बीच में ही कमज़ोर या असफल हो जाएगा।

लोकतंत्र के विरोधी भी समाज बदलना चाहते थे:

यहाँ तक कि जो लोग लोकतंत्र को पसंद नहीं करते थे जैसे सावरकर के हिंदुत्ववादी, जिन्हें समानता वाला लोकतंत्र स्वीकार नहीं था
मार्क्सवादी, जो समानता के समर्थक थे लेकिन मौजूदा लोकतंत्र को अमीरों का शासन मानते थे दोनों ही अपने-अपने तरीके से समाज को पूरी तरह बदलने के पक्ष में थे।

आलोचना

इन सभी विचारधाराओं और नेताओं में से किसी ने भी ऐसा विचार नहीं दिया जो भारतीय समाज की वास्तविक परिस्थितियों के अनुसार कोई नई राजनीतिक व्यवस्था तैयार करता। किसी ने यह नहीं सोचा कि भारत के अपने इतिहास, संस्कृति और परंपराओंसे लोकतंत्र को कैसे जोड़ा जा सकता है। न उन्हें भारतीय राज्य की पारंपरिक अवधारणा में कोई रुचि थी, न उन्होंने यह जानने की कोशिश की कि भारत में पहले से मौजूद लोकतांत्रिक परंपराएँ कैसे काम करती थीं। भारत में नेहरू, आंबेडकर, सावरकर और कम्युनिस्टों की विचारधाराओं के साथ-साथ एक और अलग धारा जो महात्मा गांधी की थी

गांधी के विचार
गांधी का नजरिया बाकी सब से अलग था। वे सावरकर या कम्युनिस्टोंकी तरह लोकतंत्र पर अविश्वास नहीं करते थे। वे आंबेडकर की तरह यह नहीं मानते थे कि लोकतंत्र सामाजिक समानता लाने में अक्षम है। और न ही वे नेहरू की तरह लोकतंत्र को विकास और आर्थिक प्रगति का साधन मानते थे।

गांधी का लोकतंत्र का मॉडल

गांधी का विचार ऐसा था जिसमें लोकतंत्र को जनता की जरूरतों के अनुसार ढाला जाए। वे मानते थे कि लोकतंत्र का असली उद्देश्य लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करना है न कि केवलविभिन्न वर्गों और हितों के बीच प्रतिस्पर्धा (interest competition) को बढ़ावा देना। उनका मानना था कि हितों की होड़ कोई आदर्श नहीं हो सकती। इसके बजाय लोकतंत्र को इस तरह बनाया जाना चाहिए कि वह सीधे जनता से जुड़ा रहे, बड़ी संस्थाओं या जटिल सरकारी प्रक्रियाओं के बीच फँसे बिना।
प्रत्यक्ष लोकतंत्र : गांधी का लोकतंत्र ऐसा था जिसमें जनता खुद शासन में भाग ले प्रत्यक्ष लोकतंत्र (Direct Democracy) उनके अनुसार लोकतंत्र का असली स्वरूप गांवों और स्थानीय समुदायों में होना चाहिए, जहाँ लोग अपने फैसले खुद लें और सरकार जनता के जीवन से सीधा जुड़ाव रखे।

सीमाएँ
गांधी का यह मॉडल लोगों की भागीदारी पर आधारित था, लेकिन इसके भीतर कुछ कमियां भी थी जैसे कि यह मॉडल भावनात्मक जनशक्ति पर ज़रूरत से ज़्यादा भरोसा कर सकता था साथ ही, गांधी ने इस विचार के आधार पर राज्य या शासन की ठोस रूपरेखा (state structure) पेश नहीं की थी। गाँधी के विचारों ने बहुलतावादी लोकतंत्र की आलोचना से एक नया और समाज-केंद्रित दृष्टिकोण खोला। उनका मानना था कि किसी भी लोकतंत्र या राजनीतिक व्यवस्था की सबसे पहली जरूरत समाज है और उस समाज की स्थिति और समय को समझकर ही मॉडल तैयार किया जाना चाहिए।

लोकतंत्र और कांग्रेस: रजनी कोठारी

पचास के दशक में राजनीतिशास्त्रज्ञ रजनी कोठारी ने कांग्रेस के लंबे शासन का अध्ययन किया और निष्कर्ष निकाला कि कांग्रेस ने इस समय तक शासन इसलिए बनाए रखा क्योंकि वह भारतीय समाज की संरचनाओं के अनुसार अपने आप को ढालती रही। उन्होंने कांग्रेस को केवल एक पार्टी नहीं, बल्कि एक प्रणाली कहा।
करीब दस साल बाद साठ के दशक में कोठारी ने देखा कि लोकतंत्र और समाज के बीच लगातार होने वाली क्रियाएँ कुछ अनोखी घटनाओं को जन्म दे रही थीं। उन्होंने जातियों के राजनीतिकरण का सिद्धांत विकसित किया। इसके अनुसार आधुनिकता, शहरीकरण, शिक्षा, संचार, व्यक्तिवाद, पश्चिमी जीवन-शैली, भूमि सुधार और आरक्षण जैसे कदम समाज में हो रहे बदलाव को समझाने में मदद करते हैं।
कोठारी के नए दृष्टिकोण ने यह दिखाया कि कांग्रेस के वर्चस्व का क्षय और बहुपार्टी प्रणाली की ओर बढ़ना समाज और लोकतंत्र के बीच की इस प्रक्रिया का परिणाम था। चुनावी राजनीति में जातियों का आधार बनाना और गोलबंदी करना धीरे-धीरे जातियों को उनके पुराने कर्मकांड और ऊँच-नीच के मानकों से मुक्त कर राजनीतिक और सेकुलर दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित कर रहा था।
साठ के दशक में यह प्रक्रिया इतनी शक्तिशाली थी कि कांग्रेस पुराने ढंग से शासन नहीं कर सकती थी। कांग्रेस-प्रणाली का टूटना जरूरी था और इसे बहुपार्टी प्रतियोगिता के लिए जगह बनानी थी। इस क्रम में आरक्षण ने पिछड़े और हाशिए पर पड़े समुदायों को लोकतंत्र की मुख्यधारा में लाने में निर्णायक भूमिका निभाई। इस प्रक्रिया ने लोकतंत्र का चेहरा बदल दिया और पश्चिमी लोकतंत्र का भारतीयकरण संभव हुआ।

1990 के बाद का लोकतंत्र

आस्सी और नब्बे के दशक में वैश्वीकरण, बाजार की ताकत, कल्याणकारी राज्य का पतन और टीवी,मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने एक मध्यवर्गीय बाजारू संस्कृति बनाई। इस संस्कृति में लोकतंत्र की जन-राजनीति के साथ गहरे संबंध बनने की क्षमता थी, लेकिन इसके साथ बहुसंख्यकवाद और सांप्रदायिकता के खतरे भी बढ़ गए।
भारतीय लोकतंत्र पर लिखे गए ये सात अध्याय अलग-अलग समय और शैली में हैं, लेकिन इनकी विचारधारा समान है। ये सभी मिलकर भारतीय लोकतंत्र की एक पूरी कहानी बयान करते हैं।


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