देश में कई गणराज्य विद्यमान थे। मौर्य साम्राज्य का उदय इन गणराज्यों के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ। परन्तु मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात कुछ नये लोकतान्त्रिक राज्यों ने जन्म लिया। यथा यौधेय, मानव और आर्जुनीयन इत्यादि।
प्राचीन भारत के कुछ प्रमुख गणराज्यों का ब्योरा इस प्रकार है:-
शाक्य– शाक्य गणराज्य वर्तमान बस्ती और गोरखपुर जिला (उत्तर प्रदेश) के क्षेत्र में स्थित था। इस गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु थी। यह सात दीवारों से घिरा हुआ सुन्दर और सुरक्षित नगर था। इस संघ में अस्सी हजार कुल और पाँच लाख जन थे। इनकी राजसभा, शाक्य परिषद के 500 सदस्य थे। ये सभा प्रशासन और न्याय दोनों कार्य करती थी। सभाभवन को सन्यागार कहते थे। यहाँ विशेषज्ञ एवं विशिष्ट जन विचार-विमर्श कर कोई निर्णय देते थे। शाक्य परिषद का अध्यक्ष राजा कहलाता था। भगवान बुद्ध के पिता शुद्धोदन शाक्य क्षत्रिय राजा थे। कौसल के राजा प्रसेनजित के पुत्र विडक्घभ ने इस गणराज्य पर आक्रमण कर इसे नष्ट कर दिया था।
लिच्छवि– लिच्छवि गणराज्य गंगा के उत्तर में (वर्तमान उत्तरी बिहार क्षेत्र) स्थित था। इसकी राजधानी का नाम वैशाली था। बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के बसाढ़ ग्राम में इसके अवशेष प्राप्त होते हैं। लिच्छवि क्षत्रिय वर्ण के थे। वर्द्धमान महावीर का जन्म इसी गणराज्य में हुआ था। इस गणराज्य का वर्णन जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों में प्रमुख रूप से मिलता है। वैशाली की राज्य परिषद में 7707 सदस्य होते थे। इसी से इसकी विशालता का अनुमान लगाया जा सकता है। शासन कार्य के लिए दो समितियां होती थीं। पहली नौ सदस्यों की समिति वैदेशिक सम्बन्धों की देखभाल करती थी। दूसरी आठ सदस्यों की समिति प्रशासन का संचालन करती थी। इसे इष्टकुल कहा जाता था। इस व्यवस्था में तीन प्रकार के विशेषज्ञ होते थे- विनिश्चय महामात्र, व्यावहारिक और सूत्राधार।
लिच्छवि गणराज्य तत्कालीन समय का बहुत शक्तिशाली राज्य था। बार-बार इस पर अनेक आक्रमण हुए। अन्तत: मगधराज अजातशत्रु ने इस पर आक्रमण करके इसे नष्ट कर दिया। परन्तु चतुर्थ शताब्दी ई॰ में यह पुनः एक शक्तिशाली गणराज्य बन गया।
वज्जि– लिच्छवि, विदेह, कुण्डग्राम के ज्ञातृक गण तथा अन्य पाँच छोटे गणराज्यों ने मिलकर जो संघ बनाया उसी को वज्जि संघ कहा जाता था। मगध के शासक निरन्तर इस पर आक्रमण करते रहे। अन्त में यह संघ मगध के अधीन हो गया।
अम्बष्ठ– पंजाब में स्थित इस गणराज्य ने सिकन्दर से युद्ध न करके सन्धि कर ली थी।
अग्रेय– वर्तमान अग्रवाल जाति का विकास इसी गणराज्य से हुआ है। इस गणराज्य में सिकन्दर की सेनाओं का डटकर मुकाबला किया। जब उन्हें लगा कि वे युद्ध में जीत हासिल नहीं कर पायेंगे तब उन्होंने स्वयं अपनी नगरी को जला लिया।
इनके अलावा अरिष्ट, औटुम्वर, कठ, कुणिन्द, क्षुद्रक, पातानप्रस्थ इत्यादि गणराज्यों का उल्लेख भी प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है।
भारत में लोकतन्त्र के प्राचीनतम प्रयोग
प्राचीन काल मे भारत में सुदृढ़ व्यवस्था विद्यमान थी। इसके साक्ष्य हमें प्राचीन साहित्य, सिक्कों और अभिलेखों से प्राप्त होते हैं। विदेशी यात्रियों एवं विद्वानों के वर्णन में भी इस बात के प्रमाण हैं।
प्राचीन गणतान्त्रिक व्यवस्था में आजकल की तरह ही शासक एवं शासन के अन्य पदाधिकारियों के लिए निर्वाचन प्रणाली थी। योग्यता एवं गुणों के आधार पर इनके चुनाव की प्रक्रिया आज के दौर से थोड़ी भिन्न जरूर थी। सभी नागरिकों को वोट देने का अधिकार नहीं था। ऋग्वेद तथा कौटिल्य साहित्य ने चुनाव पद्धति की पुष्टि की है परंतु उन्होंने वोट देने के अधिकार पर रोशनी नहीं डाली है।
वर्तमान संसद की तरह ही प्राचीन समय में परिषदों का निर्माण किया गया था जो वर्तमान संसदीय प्रणाली से मिलता-जुलता था। गणराज्य या संघ की नीतियों का संचालन इन्हीं परिषदों द्वारा होता था। इसके सदस्यों की संख्या विशाल थी। उस समय के सबसे प्रसिद्ध गणराज्य लिच्छवि की केन्द्रीय परिषद में 7707 सदस्य थे। वहीं यौधेय की केन्द्रीय परिषद के 5000 सदस्य थे। वर्तमान संसदीय सत्र की तरह ही परिषदों के अधिवेशन नियमित रूप से होते थे।
पाणिनी की अष्टाध्यायी
इसमें जनपद शब्द का उल्लेख मिलता है. जनपद में जनता द्वारा प्रतिनिधि चुना जाता था और वही शासन व्यवस्था संभालता था.
कौटिल्य की अर्थशास्त्र
इसमें गणराज्य को दो तरह का बताया गया है:
अयुध्य गणराज्य: इसमें केवल राजा ही फैसले लेता था.
किसी भी मुद्दे पर निर्णय होने से पूर्व सदस्यों के बीच में इस पर खुलकर चर्चा होती थी। सही-गलत के आकलन के लिए पक्ष-विपक्ष पर जोरदार बहस होती थी। उसके बाद ही सर्वसम्मति से निर्णय का प्रतिपादन किया जाता था। सबकी सहमति न होने पर बहुमत प्रक्रिया अपनायी जाती थी। कई जगह तो सर्वसम्मति होना अनिवार्य होता था। बहुमत से लिये गये निर्णय को ‘भूयिसिक्किम’ कहा जाता था। इसके लिए वोटिंग का सहारा लेना पड़ता था। तत्कालीन समय में वोट को ‘छन्द’ कहा जाता था। निर्वाचन आयुक्त की भान्ति इस चुनाव की देख-रेख करने वाला भी एक अधिकारी होता था जिसे ‘शलाकाग्राहक; कहते थे। वोट देने के लिए तीन प्रणालियां थीं-
(1) गूढ़क (गुप्त रूप से) – अर्थात अपना मत किसी पत्र पर लिखकर जिसमें वोट देने वाले व्यक्ति का नाम नहीं आता था।
(2) विवृतक (प्रकट रूप से) – इस प्रक्रिया में व्यक्ति सम्बन्धित विषय के प्रति अपने विचार सबके सामने प्रकट करता था। अर्थात खुले आम घोषणा।
(3) संकर्णजल्पक (शलाकाग्राहक के कान में चुपके से कहना) – सदस्य इन तीनों में से कोई भी एक प्रक्रिया अपनाने के लिए स्वतन्त्र थे। शलाकाग्राहक पूरी मुस्तैदी एवं ईमानदारी से इन वोटों का हिसाब करता था।
इस तरह हम पाते हैं कि प्राचीन काल से ही हमारे देश में गौरवशाली लोकतन्त्रीय परम्परा थी। इसके अलावा सुव्यवस्थित शासन के संचालन हेतु अनेक मन्त्रालयों का भी निर्माण किया गया था। उत्तम गुणों एवं योग्यता के आधार पर इन मन्त्रालयों के अधिकारियों का चुनाव किया जाता था।
मन्त्रिमण्डल का उल्लेख हमें अर्थशास्त्र, मनुस्मृति, शुक्रनीति, महाभारत, इत्यादि में प्राप्त होता है। यजुर्वेद और ब्राह्मण ग्रन्थों में इन्हें ‘रत्नि’ कहा गया। महाभारत के अनुसार मन्त्रिमण्डल में 6 सदस्य होते थे। मनु के अनुसार सदस्य संख्या 7-8 होती थी। शुक्र ने इसके लिए 10 की संख्या निर्धारित की थी।
एक प्राचीन उल्लेख के अनुसार अपराधी पहले विचारार्थ ‘विनिच्चयमहामात्र’ नामक अधिकारी के पास उपस्थित किया जाता था। निरपराध होने पर अभियुक्त को वह मुक्त कर सकता था पर दण्ड नहीं दे सकता था। उसे अपने से ऊँचे न्यायालय भेज देता था। इस तरह अभियुक्त को छः उच्च न्यायालयों के सम्मुख उपस्थित होना पड़ता था। केवल राजा को दण्ड देने का अधिकार था। धर्मशास्त्र और पूर्व की जीरों के आधार पर ही दण्ड होता था।
लोकतंत्र का सिद्धांत ऋग्वेद की देन
ऐसा कहना गलत नहीं होगा की लोकतंत्र का सिद्धांत वेदों की ही देन हैं. सभा और समिति का उल्लेख ऋग्वेद एवं अथर्ववेद दोनों में मिलता हैं. जिसमें राजा, मंत्री और विद्वानों से विचार विमर्श करने के बाद ही कोई फैसला लेता था. इनके माध्यम से यह पता चलता है कि उस समय राजनीती कितनी ठोस हुआ करती थी क्योंकि सभा एवं समिति के निर्णयों को लोग आपस में अच्छे द्रष्टिकोण से निपटाते थे. यहाँ तक की विभिन्न विचारधारा के लोग कई दलों में बट जाते थे और आपसी सलाह मशवरा करके निर्णय लेते थे. कभी–कभी विचारों में मदभेद के कारण आपसी झगड़ा भी हो जाता था. अर्थात ऐसा कहना गलत नहीं होगा की वैदिक काल से ही द्विसदस्यीय संसद की शुरुआत मानी जा सकती है. इंद्र का चयन भी वैदिक काल में इन्हीं समितियों के कारण ही होता था. उस समय इंद्र एक पद हुआ करता था जिसे राजाओं का रजा कहा जाता था. गणतंत्र शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्ववेद में 9 बार और ब्राह्माण ग्रंथों में अनेक बार किया गया है. वैदिक काल के पतन के बाद राजतंत्रों का उदय हुआ और वही लंबे समय तक शासक रहे.
कौटिल्य और अर्थशास्त्र (350 – 275 ईसा पूर्व)
- लोकतंत्र नागरिकों को प्राथमिकता देता है, जैसा कि चंद्रगुप्त मौर्य के सलाहकार कौटिल्य द्वारा तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के शासन ग्रंथ अर्थशास्त्र में ज़ोर दिया गया है
- यह दावा करता है कि शासक की खुशी और कल्याण व्यक्तियों की भलाई पर निर्भर करता है, जो भारत के सेवा करने के स्थायी लोकतांत्रिक सिद्धांत का प्रतीक है, न कि शासन करने का.
मेगस्थनीज़ और डायोडोरस सिकुलस के रिकॉर्ड (300 ईसा पूर्व)
- प्राचीन यूनानियों ने विभिन्न राज्यों में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का उल्लेख किया। भारतीयों की एक सराहनीय प्रथा थी: किसी को भी गुलाम नहीं बनाना, समान स्वतंत्रता सुनिश्चित करना। वैश्विक गुलामी 150 वर्ष पहले समाप्त हो गई, सच्चा लोकतंत्र इसे बाहर रखता है। लेकिन भारत ने कभी गुलामी नहीं अपनाई थी।
अशोक का शासन काल (265 – 238 ईसा पूर्व)
- एक राज्य लोकतंत्र का प्रतीक है जब कानून द्वारा संरक्षित समान अधिकार और सम्मान, व्यक्तियों का कल्याण सुनिश्चित करते हैं।
- सम्राट अशोक ने कलिंग की जीत के बाद ऐसे शासन की स्थापना की, जो प्रत्येक पाँच वर्ष में व्यवस्थित मंत्रिस्तरीय चुनावों के माध्यम से शांति और कल्याण को बढ़ावा देता था। उनके आदर्श लोकतंत्र के प्रतीक भारत के राष्ट्रीय प्रतीक में अंकित हैं।
फाह्यान के अभिलेख (5वीं शताब्दी ई.पू.)
लोकतंत्र अधिकारियों को लोगों की सेवा करने का अधिकार देता है, फाह्यान ने लोगों, कानून के शासन और सार्वजनिक कल्याण के प्रति भारतीय सम्मान का पालन किया।
खलीमपुर ताम्रपत्र (9वीं शताब्दी ई.)
गोपाल को लोगों ने एक अयोग्य शासक को प्रतिस्थापित करने के लिये चुना था। खलीमपुर ताम्रपत्र अव्यवस्था के अंत और न्याय के सिद्धांत पर प्रकाश डालते हैं।
श्रेणिसंघा प्रणाली (876 ई.)
भारत में लोकतांत्रिक प्रशासन में गिल्ड और शहर के नेताओं सहित जवाबदेह प्रशासनिक अधिकारियों का चुनाव करना तथा उन्हें रखना शामिल है।
उथिरामेरुर शिलालेख (919 ई.)
दक्षिण भारत के उथिरामेरुर मंदिर में शासक परांतक चोल प्रथम के शिलालेख एक हज़ार साल पहले के लोकतांत्रिक चुनावों और स्थानीय स्वशासन की पुष्टि करते हैं।
विजय नगर साम्राज्य का शासन
सर्व-सम्मति‘ लोकतांत्रिक आधार है, जिसका उदाहरण दक्षिण भारत में विजयनगर है, जहाँ कृष्णदेव राय के सहभागी शासन, मंडलम, नाडु और स्थल में विभाजन, ग्रामीण स्तर पर स्वशासन पर ज़ोर दिया गया था, जो लोगों के लाभ के लिये एक आदर्श राज्य था।
छत्रपति शिवाजी (1630-1680 ई.)
मराठा साम्राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी (1630-1680 ई.) ने लोकतांत्रिक शासन का समर्थन किया। उनके आज्ञा पत्र में अष्ट-प्रधान के लिये कर्त्तव्यों की रूपरेखा दी गई, समान अधिकार सुनिश्चित किये गए। शिवाजी की लोकतंत्र विरासत उनके उत्तराधिकारियों के माध्यम से कायम रही।
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